ठेला से गांव आए प्रदीप ने बढ़ाया आत्मनिर्भर भारत निर्माण की ओर कदम
बेगूसराय, 29 मई (हि.स.)। कोरोना वायरस ने लोगों को एक नई त्रासदी से रूबरू कराया है। ऐसी त्रासदी जिसमें महानगर में रहने वाले प्रवासी जैसे बन पा रहा है अपने घर की ओर भागे जा रहे हैं। कोई साधन नहीं मिला तो पैदल ही चल दिए और हजारों किलोमीटर का सफर तय कर पैदल ही गांव पहुंच रहे हैं। बेतहाशा गांव की ओर भागते चले आ रहे इन प्रवासियों ने ना केवल बिहार के समग्र विकास की पोल खोल दी है। बल्कि दिल्ली, मुंबई, कोलकाता जैसे जिन शहरों में रहते थे वहां की सरकारों की नाकामी को भी उजागर कर दिया है। हालांकि इनमें से बहुत सारे ऐसे भी हैं, जो गांव आकर आत्मनिर्भर भारत निर्माण की दिशा में कदम बढ़ा चुके हैं। ऐसे ही प्रवासी श्रमिकों में से एक हैं प्रदीप यादव।
बेगूसराय जिला के गढ़पुरा थाना क्षेत्र स्थित मणिकपुर गांव निवासी प्रदीप यादव दिल्ली के आर.के. पुरम में रहकर ठेला चलाते थे। आर.के. पुरम में फर्नीचर की काफी दुकानें है, जिसके कारण प्रदीप को वहां काम अच्छा मिलता था। पैसे की बचत होती थी तो घर परिवार भी गांव में ठीक से चल रहा था। लेकिन जब लॉकडाउन हो गया तो सारा काम अचानक बंद हो गया, जिससे कुछ दिन तो पास के पैसे से खाना-पीना चलता रहा। उसके बाद दिल्ली में ही रहकर राजनीति कर रहे संजय झा ने खाने-पीने की व्यवस्था की। फिर जब हालत बदतर होते गए तो प्रदीप पांच किलो चूरा, पांच सौ ग्राम नमक और पांंच सौ ग्राम मिर्ची लेकर अपने ठेला से गांव की ओर चल पड़ा।
गाजियाबाद बॉर्डर पूरी तरह से सील था और उसे वापस लौटा दिया गया। इसके बाद प्रदीप आगरा, वृन्दावन होते हुए गांव जाने का प्लान बनाकर चल पड़ा। रास्ते में आगरा में स्थित प्रेम की निशानी ताजमहल को देखते हुए अपने परिवार को याद कर लगातार आगे बढ़ता रहा। इस दौरान हरियाणा की राज्य सरकार तथा उत्तर प्रदेश राज्य सरकार द्वारा जगह-जगह खाने की व्यवस्था से उसे किसी प्रकार की दिक्कत नहीं हुई। इसके अलावा अन्य सामाजिक संगठनों ने भी जगह-जगह पर रोक कर खाना दिया। वहां से जब बिहार की सीमा पर गोपालगंज पहुंचे तो बॉर्डर पर चेकिंग के बाद खाना दिया गया। हालांकि बिहार में प्रवेश के बाद आगे के रास्ते में किसी भी प्रकार की ना तो सरकारी और ना ही प्राइवेट स्तर पर खाने की व्यवस्था मिली। आठ दिन का थका प्रदीप चूरा, नमक, मिर्च खाते हुए समस्तीपुर पहुंचा, जहां सदर अस्पताल में जांच के बाद उसे खाना मिला और अपने घर पहुंच गया।
फिलहाल लंबे समय तक दिल्ली नहीं जाने का प्रदीप ने मन बना लिया है। उसने घर आते ही अपने पास के पैसे और कुछ अन्य से लेकर एक छोटा किराना का दुकान अपने घर पर ही खोल लिया है और सप्ताह भर से सपरिवार खुशीपूर्वक रह रहे हैं। उसने बताया कि वह ठेला चलानेेे के साथ मोदी जी के डिजिटलीकरण का फायदा उठा रहा है। एंड्राइड मोबाइल से लैस रहने के कारण उसे एक-एक गतिविधि की जानकारी मिलती है। दिल्ली की केजरीवाल सरकार ने लॉकडाउन से उत्पन्न स्थिति के बाद घोषणा की कि 60 वर्ष से अधिक उम्र के श्रमिकों को पांच-पांच हजार रुपया और राशन कार्ड धारियों को अनाज दिया जाएगा। जबकि दिल्ली में काम करने वाले बिहार के लाखों कामगार में से 20 प्रतिशत के पास भी वहां का राशन कार्ड नहीं है। 60 वर्ष से अधिक उम्र के किसी भी बाहरी व्यक्ति को दिल्ली में काम नहीं मिलता है, ऐसे में वे वहां रुककर क्या करेंगे।
सरकार सिर्फ ढ़कोसला कर रही है, सिर्फ घोषणाएं कर रही है, बाहरी लोगों को खाने-पीने की कोई व्यवस्था नहीं है। वह तो भला हो बिहार से जुड़े कुछ नेताओं का, जिनके भरोसे दिल्ली में बेसहारों की जिंदगी लॉकडाउन में किसी तरह गुजर रही है। प्रदीप का कहना है कि यहां बिहार में सरकार लोगों को रोजी रोजगार की व्यवस्था कर दे तो हम लोग प्रवासी मजदूर नहीं कहलाएंगे। कभी बाहर नहींं जाएंगे। प्रदीप ने भरण पोषण के लिए अपने घर पर ही दुकान खोल लिया है। आत्मनिर्भर बनने और परिवार के लोगों को भी आत्मनिर्भर बनाने की दिशा में यह उसका पहला कदम है।