72 साल बाद भी हिन्दी, अंग्रेजी की पिछलग्गू

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भारत और विश्व के विभिन्न देशों में लगभग 50 करोड़ लोग हिन्दी बोलते हैं। यही नहीं, करीब 90 करोड़ लोग हिन्दी भाषा को समझते हैं।



नई दिल्ली, 19 जुलाई (हि.स.)। भारत के स्‍वतंत्र होने के 72 साल बाद भी हिन्दी हमारी राष्ट्रभाषा नहीं बन पाई है। हिन्दी को जब भी अनिवार्य करने या राष्ट्रभाषा बनाने की चर्चा भी शुरू होती है तो इसमें विभिन्न राजनीतिक दल सियासी खेल शुरू कर देते हैं। जबकि चीनी भाषा के बाद हिन्दी विश्व में सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषा है। बावजूद इसके केंद्र सरकार अपनी नई शिक्षा नीति में भी हिन्दी भाषा को अनिवार्य अथवा राष्ट्रभाषा घोषित नहीं कर पाई है।
ध्यान देने की बात है कि भारत और विश्व के विभिन्न देशों में लगभग 50 करोड़ लोग हिन्दी बोलते हैं। यही नहीं, करीब 90 करोड़ लोग हिन्दी भाषा को समझते हैं। हिन्दी भाषा का उद्भव संस्कृत भाषा से हुआ है। फिलहाल संविधान में देश की केवल दो भाषाएं अंग्रेजी और हिन्दी ऑफिशियल भाषाएं हैं। लेकिन इनमें से कोई भी राष्ट्रभाषा नहीं है। संविधान समिति ने अंग्रेजी को महज 15 साल के लिए ऑफिशियल भाषा के रूप में प्रयोग का लक्ष्य रखा था। यह 15 साल का समय 26 जनवरी 1965 को खत्म हो गया था। लेकिन विभिन्न राजनीतिक दलों और दक्षिण राज्यों  के रवैये के चलते हम अंग्रेजी के पिछलग्गू बने हए हैं। अंग्रेजी अब भी दूसरी ऑफिशियल भाषा बनी हुई है। यहां यक्ष प्रश्न यह है कि आखिर यह सिलसिला कब तक चलता रहेगा? क्या राजनीतिक दल कभी अपने निहित स्वार्थ से ऊपर उठकर देशहित में इस प्रश्न का हल निकालने का प्रयास करेंगे?
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 343 .1 में देवनागरी लिपि में  हिन्दी को संघ की राजभाषा घोषित किया गया है। हिन्दी सहित 25 भाषाएं आठवीं अनुसूची में शामिल हैं। 22 भाषाओं को संविधान की अनुसूची 8 में मान्यता दी गई है। इनमें हिन्दी, पंजाबी उर्दू, संस्कृत, कश्मीरी, असमिया, उड़िया, बांग्ला, गुजराती, सिंधी, मराठी, तमिल, तेलुगु, कन्नड़, मलयालम,  मणिपुरी, कोंकणी, नेपाली, संथाली, मैथिली, डोगरी और बोड़ो शामिल हैं।
उल्लेखनीय है कि विश्व के कई देशों में भी भारतीय संस्कृति के प्रति रुचि और आकर्षण बढ़ा है। यही कारण है कि कई देशों ने अपने यहां भारतीय भाषाओं को प्रोत्साहन देने के लिए प्रशिक्षण केंद्र भी खोल दिए हैं। इन केंद्रों में भारत के धर्म और संस्कृति पर पाठ्यक्रम संचालित किए जा रहे हैं। पिछले कुछ वर्षों में जिस तरह से वैश्वीकरण की प्रक्रिया तेज हुई है और अन्य देशों के साथ भारत के व्यापारिक संबंध प्रगाढ़ हुए हैं, उसके मद्देनजर व्यापारिक साझेदार देशों के बीच हिन्दी शिक्षा की जरूरत महसूस की जाने लगी है। अमेरिका में कुछ स्कूलों ने फ्रेंच, स्पेनिश और जर्मन के साथ-साथ हिन्दी को भी विदेशी भाषा के रूप में पढ़ाना शुरू करने का फैसला किया है। कहने का आशय है कि हिन्दी भाषा ने एक वैश्विक मान्यता अर्जित कर ली है। लेकिन अपने देश में हिन्दी भाषा को लेकर यह विडंबना है कि जब केंद्र सरकार ने नई शिक्षा नीति में तीन भाषा का फार्मूला लागू करने का प्रस्ताव देश के समक्ष रखा तो इस प्रस्ताव के खिलाफ दक्षिण भारतीय राज्यों में सुर गूंजने लगे। यही कारण है कि केंद्र सरकार को अपने इस प्रस्ताव में संशोधन करना पड़ा और प्रस्ताव में अनिवार्य की जगह फ्लेक्सिकेबल शब्द का इस्तेतमाल किया। इसका आशय है कि स्कूल तीसरी भाषा के तौर पर हिन्दी की जगह अन्या भाषा का चयन कर सकते हैं।
दूसरी ओर, यह भी बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है कि नेता देश की 38 बोलियों को भाषा की श्रेणी में शामिल कराने की राजनीति कर रहे हैं। वे भोजपुरी, अवधी, ब्रज, बुंदेली, मालवी, कुमाऊंनी, गढ़वाली, हरियाणवी, राजस्थानी, छत्तीसगढ़ी, अंगिका, मगही, सरगुजिया, हालवी और बघेली को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल कराने की मुहिम छेड़े हुए हैं। क्या ही अच्छा होता कि हम चीन और रूस जैसे देशों पर नजर डालते। इन देशों ने अपनी भाषा के दम पर अनेक क्षेत्रों में वैश्विक स्तर पर अपना परचम लहराया है। इसलिए देश के हर क्षेत्र के नागरिक को यह समझना चाहिए कि हिन्दी को कमजोर करने से कभी भी देश का भला नहीं होने वाला है। भारत को एकता के सूत्र में बांधने के लिए आवश्यक है कि पूरे देश में विभिन्न बोलियां होने के बावजूद हमारी एक राष्ट्रभाषा हो और उसका सम्मान देश का हर नागरिक करे।

 


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