विलुप्त हो गई देशी मछलियां, बाजार पर आंध्रा का कब्जा

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बाजार से विलुप्त हो गई इचना, पोठी, गरई, सिंघी और कबैय



बेगूसराय, 26 जून (हि.स.)। एक समय था जब चारों ओर से नदी और तालाब से घिरे बखरी के मछली की डिमांड बिहार से बंगाल तक थी। बढ़ते जल संकट के कारण सूखती नदी और तालाब ने आज उसी बखरी को आंध्र प्रदेश के मछली का मोहताज बना दिया है।
मछली के शौकीन लोग बखरी आने पर चारों तरफ से चौर, पोखर, तालाब, नहर तथा बागमती, चन्द्रभागा और बूढ़ी गंडक नदी से निकली मछलियों का स्वाद लेना नहीं भूलते थे। बखरी को मछली का शहंशाह कहा जाता था। मगर अब ये बातें बखरी के इतिहास के पन्नों में दफन होने जा रही है। देसी मछलियों का निकलना कम हो गया है।
मछली निकालने के जलस्रोत सूख चुके हैं। नदी में जाल तो डाला जा रहा है लेकिन मछुआरे को अपेक्षित मछलियां नहीं मिल रही हैं। इससे स्थानीय मछुआरों में चिंता है। अगर ऐसी ही स्थिति रही तो मछुआरे के सामने भुखमरी की नौबत आ जाएगी। स्थिति यह कि अब मछली बाजार पर आंध्रप्रदेश से आयातित मछलियों का कब्जा है, जो कि विभिन्न गंभीर बीमारी फैला रहा है। देसी मछलियां आती भी हैं तो कीमत इतनी ऊंची होती है कि आमजन इसे खरीदने से वंचित रह जाते हैं।
बखरी नगर पंचायत के गोढ़ियारी निवासी मछली व्यवसायी मुन्ना सहनी, अशर्फी सहनी, बिट्टू सिंह, स्थानीय नागरिक संजीत कुमार साह, पार्षद नीरज नवीन, सुबोध सहनी, कुन्दन पंडित, रामू यादव एवं कौशल किशोर कहते हैं कि रोहू, कतला, बुआरी, छही, रेबा, पोठी, इचना, गरई, सिंघी, कबई, मांगुर आदि स्वादिष्ट मछलियों की मांग दूर-दूर तक होती थी। आज आसपास के लोग भी इन मछलियों का स्वाद पाने को तरसते रहते हैं।
आढ़त में इन दिनों देशी मछली की जगह गिलास कप, कोमना, चाईना पोठी, पंगास, विदेशी मुंगरी शोभा बढ़ा रही है। जानकारों का कहना है कि बखरी के दासिन चौर, पचैला चौर तथा स्थानीय नदी, पोखर आदि में सालों भर पानी नहीं है। बरसात के मौसम में पानी रहता भी है तो उसकी मात्रा इतनी कम होती है कि मछुआरों को मछली पालन में भारी नुकसान का सामना करना पड़ता है, जिससे वे ज्यादा संख्या में मछली का उत्पादन नहीं कर पाते हैं। जबकि कुछ मछलियां नदी की तेज धारा में बह जाती हैं। 1992 से पूर्व नदी में मछली मारने पर सरकार द्वारा टैक्स लिया जाता था तो मछुवारे मछलियों के प्रजनन का भी ख्याल रखते थे लेकिन टैक्स फ्री करने से देखभाल में कमी आई।
मछली व्यवसायी मुन्ना साहनी कहते हैं कि पहले आढ़त पर प्रतिदिन तीन-चार क्विंटल देशी मछली पहुंचती थी। अभी दो-तीन दिनों के अंतराल पर कभी कभार 10-20 किलो देशी मछली मछुआरे लाते हैं। पहले दूसरे राज्यों में मछली भेजा जाता था। अभी दूसरे राज्यों से विदेशी मछली मंगाया जा रहा है।
निरंतर बढ़ते तापमान के कारण जलस्रोतों का पानी गायब होता जा रहा है, जिसमें निकट भविष्य में देशी मछली इचना, पोठी, गरई, सिंघी, कबई बाजार से विलुप्त हो जाएगी तथा लोग स्वाद के लिए तरस जाएंगे। बहरहाल अगर जल संरक्षण का प्रयास इन जलस्रोतों में किया जाए तो देशी मछलियों को कुछ वर्षों तक बचाया जा सकता है। इसके लिए स्थानीय प्रशासन, सरकार तथा मछुआरों को व्यापक पहल करनी होगी।
विलुप्त हो रही मछलियों के संरक्षण, संवर्धन के सवाल पर बेगूसराय के सांसद और केंद्रीय पशुपालन, डेयरी और मत्स्यपालन मंत्री गिरिराज सिंह ने बताया कि जीडीपी में मत्स्यपालन का सात प्रतिशत योगदान है। मत्स्यपालन को बढ़ावा देने तथा देसी मछली को संरक्षित करने की योजना बनाई गई है। मछुवारा हित के लिए समान्य पानी में तेजी से विकसित होने वाले झींगा मछली पालन की योजना बनाने का निर्देश आईसीआर को दिया गया है।

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