निर्भय पौरुष के स्वामी:डॉ. हेडगेवार

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नई दिल्ली, 01 अप्रैल (हि.स)। कहानी 22 जून, 1897 से शुरू होती है। इसी तिथि को रानी विक्टोरिया की ताजपोशी की 60वीं सालगिरह थी। उस समारोह से आठ वर्ष का एक बालक निराश था। उसने समारोह में हिस्सा नहीं लिया। घर लौट आया। मिठाई भी फेंक दी।

जब बड़े भाई ने पूछा- ”केशव, क्या तुम्हें मिठाई नहीं मिली?” तो उसने गंभीरता के साथ कहा- “मिली थी। लेकिन इन अंग्रेजों ने हमारे भोंसले परिवार को ख़त्म कर दिया। हम इनके समारोह में कैसे हिस्सा ले सकते हैं?” इस कहानी की चर्चा ‘डॉ हेडगेवार, द एपक मेकर’ नामक किताब में है। डॉ. हेडगेवार की इस जीवनी को बीवी. देशपांडे और एसआर. रामास्वामी ने तैयार की है। संपादन का कार्य एचवी. शेषाद्री ने किया है।

यह परिवार मूल रूप से तेलंगाना के कांडकुर्ती गांव का रहने वाला था। जब बालक हेडगेवार का जन्म हुआ तो परिवार नागपुर आ गया। यहीं बसा। इसी परिवार में बलिराम पंत हेडगेवार और रेवती जी के घर बालक का जन्म हुआ। वह बालक क्रांतिकारी मनोभाव के साथ बड़ा हुआ। जब वे पुणे में हाई स्कूल की पढ़ाई के दौरान वंदे-मातरम का गायन किया तो उन्हें स्कूल से निकाल दिया गया था, क्योंकि ऐसा करना ब्रिटिश सरकार के सर्कुलर का उल्लंघन था।

वैद्यकीय शिक्षा प्राप्त करने लिए जब नवयुवक हेडगेवार कोलकाता गए, तो वहीं अन्य क्रांतिकारी विचार वाले नवयुवक से उनकी भेंट हुई। 1911 में अनुशीलन समिति का कार्य प्रारंभ किया। 1920 में हेडगेवार ने डॉ. ल.वा. परांजपे के साथ भारत स्वयंसेवक मंडल की स्थापना की। इसी वर्ष वे पांडिचेरी में योगी श्रीअरविंद से मिले। दिसंबर 1920 में स्वयंसेवक दल के प्रमुख बने।

इसी क्रम में अंग्रेजी सरकार को उनकी गतिविधियों से भय लगने लगा था तो 19 अगस्त, 1921 को राजद्रोह का आरोप लगाकर उन्हें कारावास में बंद कर दिया। एक साल बाद वे जेल से रिहा हुए। 1925 को विजयादशमी के दिन उन्होंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना की। इस बात की घोषणा की कि- ‘आज से हम संघ प्रारंभ कर रहे हैं।’ इसके तीन साल बाद संघ का पहला गुरुपूजन व दक्षिणा कार्यक्रम 1928 में हुआ।

अब से करीब ढाई साल पहले 17 सितंबर, 2018 को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आएएसएस) के सरसंघचालक मोहन भागवत ने एक अनूठी बात बताई। दरअसल, वे राजधानी दिल्ली में संघ परिवार को लेकर आम देशवासियों की जिज्ञासा पर अपने विचार रख रहे थे। इसी क्रम में उन्होंने कहा- “पहली बार जब संघ का पथसंचालन 1928 में नागपुर में हुआ, तो संख्या में 21-22 लोग थे। लेकिन अपने समाज में उस समय 21-22 लोग भी एक दिशा में कदम मिलाकर चल रहे थे, यह दृश्य बड़ा दुर्लभ था।”

अपनी बात रखते हुए भागवत ने आगे बताया कि लोग प्रभावित हो गए और डॉ. हेडगेवार के पास गए, क्योंकि उनको पता था कि ये क्रांतिकारी प्रवृत्ति के आदमी हैं और अपना जीवन देश के लिए समर्पित किया है। उन लोगों को लगा कि इनकी जरूर कोई दूर की योजना है। वे लोग बड़े विश्वास के साथ डॉक्टर साहब से बोले कि अब अपने पचास लोग हो गए, आप आगे क्या करेंगे? तो डॉ. साहब ने कहा कि पचास के बाद पांच सौ करेंगे। पांच सौ के बाद पांच हजार।

फिर उन लोगों ने पूछा कि पांच हजार होने के बाद? इस पर डॉक्टर साहब ने कहा कि अभी हुए कहां! नहीं मान लो हो गये तो क्या करेंगे? पचास हजार करेंगे। ऐसा बढ़ते-बढ़ते पांच करोड़ तक पहुंचा। तब उन लोगों ने उसने उठकर पूछा कि आप करेंगे क्या इनका? तो डॉक्टर साहब ने कहा कि कुछ नहीं करेंगे। इतना ही करेंगे।

डॉक्टर साहब ने कहा कि ‘सम्पूर्ण हिन्दू समाज को हमको संगठित करना है। उसमें अपना अलग संगठन नहीं खड़ा करना है। सबको संगठित करना है। ये छोड़कर हमको दूसरा कोई काम नहीं करना है। क्योंकि ऐसा समाज खड़ा होने के बाद जो होना चाहिए, वह अपने आप होगा। उसके लिए और कुछ नहीं करना पड़ेगा।’

मोहन भागवत ने बताया कि सम्पूर्ण हिन्दू समाज को संगठित करने के लिए ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की उस समय स्थापना हुई थी। डॉ. हेडगेवार की एक मराठी उक्ति है- याचि देही, याचि डोला। अर्थात इसी देश से, इन्हीं आंखों से लक्ष्य पूर्ति देखना है।

संघ के बारे में गहरी समझ और जानकारी रखने वाले बताते हैं कि अप्पाजी जोशी डॉ. हेडगेवार के पुराने मित्र और सहयोगी थे। संघ की स्थापना के आठ वर्ष पूर्व 1917 से ही डॉ. हेडगेवार की क्रांतिकारी गतिविधियों में उनके साथी थे। अप्पाजी जोशी ने 1952 में प्रकाशित ‘हमारा आदर्श’ पुस्तक में अपने संस्मरणों में लिखा है- “1922 में ही वे (डॉ. हेडगेवार) कहा करते थे कि 1940 के लगभग का काल भारतवर्ष की स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए अनुकूल होगा। अतएव उस समय तक अंग्रेजों की सत्ता को समाप्त कर अपना स्वातंत्र्य प्राप्त करने के लिए आवश्यक सामर्थ्य हमें समाज में निर्माण करानी चाहिए।” इसका अर्थ यह है कि उन्होंने भविष्य का अनुमान लगा लिया था और उस हिसाब से तैयारी कर रहे थे।

नमक सत्याग्रह के समर्थन में जब डॉ. हेडगेवार ने जंगल सत्याग्रह किया तो अंग्रेजी सरकार उनसे डर गई थी। उन्हें 21 जुलाई, 1930 को फिर से कारावास की सजा सुनाई गई। वे मानते थे कि हिन्दू संस्कृति, हिन्दूस्तान की धड़कन है। इसलिए अगर हिन्दुस्तान को सुरक्षित करना है तो पहले हिन्दू संस्कृति को संवारना होगा। डॉ. हेडगेवार इस बात में विश्वास करते थे कि ताकत संगठन के जरिए आती है। इसलिए प्रत्येक हिन्दू का कर्तव्य है कि वे हिन्दू समाज को मजबूत बनाने के लिए हर संभव प्रयास करें।

1938 में डॉ. हेडगेवार ने ‘हिन्दू युवा परिषद’ के अध्यक्ष का पद संभाला था। 1940 आते-आते बीमार रहने लगे। 1940 में तृतीय संघ शिक्षावर्ग में अपना अंतिम उद्बोधन दिया। पिछले दिनों पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी जब डॉ हेडगेवार के निवास स्थल गए तो वहां विजिटर बुक में लिखा- ‘मैं आज यहां भारत मां के महान सपूत डॉ. के.बी.हेडगेवार को श्रद्धांजलि देने आया हूं।’

एक स्थान पर स्वयं गुरुजी ने डॉ. हेडगेवार के संबंध में लिखा है, वह कुछ इस तरह है- “परमपूजनीय डॉक्टरजी के कष्टपूर्ण, परिश्रमी एवं कर्मठ जीवन से सर्वसाधारण व्यक्ति को एक आशादायी सन्देश मिलता है। उनमें राष्ट्रभक्ति का भाव बाह्य परिस्थिति के कारण उत्पन्न नहीं हुआ था, अपितु उनका अभिजात स्थायी स्वभाव ही था। बचपन से ही वह प्रकट होता था। अन्तःकरण में निर्भय पौरुष का भाव होने के कारण सशस्त्र क्रान्ति की ओर उनका झुकाव सहज था, किन्तु दूसरे मार्गों का समादर न करने की क्षुद्रता उनके अन्दर नहीं थी। उनकी तो यही उदात्त भूमिका थी कि सब अपने-अपने प्रकार से विदेशी सत्ता को निर्मूल करने के लिए प्रयत्नशील हों, उसमें विचित्र कुछ भी नहीं है, अपने ही मार्ग का हठ धारण कर अन्य सब प्रकार के काम करने वालों को हीन और हेय न मानते हुए सबके बीच जितना सम्भव हो सहयोग बना रहे।”

डॉ. हेडगेवार कहते थे कि परतंत्र राष्ट्र के लिए स्वतंत्रता-संग्राम के अतिरिक्त और कोई राजनीति नहीं हो सकती। इसलिए चुनाव, कौंसिल आदि की ओर उनकी सदैव उपेक्षा रही। अन्यान्य सामाजिक कार्यों की ओर भी उन्होंने इसी उद्देश्य से ध्यान दिया कि उनका स्वतंत्रता-संग्राम में उपयोग हो सके।

स्वर्गीय डॉक्टर हेडगेवार द्वारा स्थापित राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भारत के सभी जिलों में फैल चुका है। भारत के बाहर भी कई देशों में उसका विस्तार है। जन-जन में भारत-भाव की निर्मल धारा बहाने में संघ जुटा है, ताकि भारत अपने प्राचीन गौरव को प्राप्त कर सके। दुनिया को उचित मार्ग दिखा सके।

 


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