सुरेंद्र किशोरी
24 अप्रैल 1974 की शाम गंगा की गोद में उत्पन्न दिनकर के अस्ताचल जाने की शाम थी। वह रात भारतीय साहित्य के इतिहास में काली स्याही से दर्ज हो गयी, जब हिंदी साहित्य के सूर्य रामधारी सिंह दिनकर सदा के लिए इस नश्वर शरीर को त्याग बैकुंठ लोक चले गए। उस समय संचार के इतने साधन तो थे नहीं, धीरे-धीरे जब लोगों को पता चला कि तिरुपति बालाजी के दर्शन के बाद दिनकर जी ने इस शरीर को हमेशा के लिए त्याग दिया, दिनकर अब नहीं रहे। इस ख़बर पर सहसा किसी को विश्वास नहीं हुआ कि ओजस्वी वाणी और भव्य स्वरूप का सम्मिश्रण भारतीय हिंदी साहित्य के तेजपुंज अब हमारे बीच नहीं रहे। लेकिन यह यह सत्य था, देश ही नहीं विदेशों के भी साहित्य जगत में शोक की लहर फैल गई। मद्रास से लेकर दिल्ली तक, कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक के साहित्यजगत और हिन्दी पट्टी में शोक की लहर फैल गई। उनके पैतृक गांव बेगूसराय के सिमरिया का हर घर रो उठा, तो इंदिरा गांधी भी सदमे में आ गईं।
प्रत्येक कवि, लेखक, चित्रकार के जीवन के अंतिम दिन अत्यंत ही आश्चर्यजनक और लोमहर्षक होते हैं। ऐसा ही दिनकर जी के साथ भी हुआ था, तिरुपति बालाजी के दर्शन करने गए दिनकर जी को जब वहीं दिल का दौरा पड़ा तो वहां से मद्रास तक रास्ते में हे राम-मेरे राम को याद करते रहे। बालाजी के सामने उन्होंने प्रार्थना की थी- हे भगवान, तुमसे तो उऋण हो गया अब मेरी उम्र आप जयप्रकाश को दे दो। अपनी मृत्यु के दिन ही दिनकर जी ने हरिवंश राय बच्चन को एक पत्र लिखा था। जिसमें दिनकर जी ने कहा था कि प्रिय भाई देखें पिता श्री रामचंद्र कहीं स्थापित करेंगे या यूं ही घूमते रहेंगे। ‘लॉजिक गलत, पुरुषार्थ झूठा, केवल राम की इच्छा ठीक।’
बिहार के तत्कालीन मुंगेर (अब बेगूसराय) जिला के सुरसरि गंगा के तटवर्तिनी सिमरिया के एक सामान्य किसान के घर में 23 सितंबर 1908 को जब मनरूप देवी एवं रवि सिंह के यहां जब द्वितीय पुत्र जन्म हुआ था तो किसी ने सोचा भी नहीं था कि एकदिन यह राष्ट्रीय फलक पर ध्रुवतारा-सा चमकेगा। लेकिन निधन के बाद जब देश में शोक की लहर दौड़ी तब पता चला यह ध्रुवतारा नहीं सूर्य थे। गांव में पैदा हुए दिनकर सदा जमीन से जुड़े रहे और संघर्ष करते हुए राष्ट्र की भावना को निरंतर सशक्त भाषा में अभिव्यक्त कर अपनी अद्वितीय रचनाओं के कारण साहित्य के इतिहास में अमर हो गए। सभी मानते हैं कि हमारे देश का हर युग, युवा पीढ़ी राष्ट्रकवि दिनकर को सदा श्रद्धा एवं सम्मान सहित याद करती रहेगी।
प्रारंभिक शिक्षा गांव तथा बारो स्कूल से लेकर दिनकर जी को पढ़ाई के लिए दस किलोमीटर पैदल चलकर गंगा के पार मोकामा उच्च विद्यालय जाना पड़ा। कभी तैरकर तो कभी नाव से स्कूल आते-जाते रहे और 1928 में मोकामा उच्च विद्यालय से पास करने बाद नामांकन पटना कॉलेज पटना में हो गया। 1932 में वहां से प्रतिष्ठा की डिग्री लेकर आगे पढ़ने की इच्छा थी लेकिन घर की परिस्थिति से मजबूर होकर पढ़ाई छोड़ दी और 1933 में एच.ई. उच्च विद्यालय बरबीघा में शिक्षक बन गए। अगले ही साल निबंधन विभाग के अवर निबंधक के रूप में नियुक्त कर दिया गया। इस दौरान कविता का शौक जोर पकड़ चुका था, दिनकर उपनाम को ‘हिमालय’ और ‘नई दिल्ली’ ख्याति भी मिलने लगी। लेकिन इस ख्याति का पुरस्कार मिला कि पांच साल की नौकरी में 22 बार तबादला हुआ।
दिनकर ब्रिटिश शासन काल में सरकारी नौकर थे लेकिन नौकरी उनकी स्वतंत्र अभिव्यक्ति में कभी बाधक नहीं बनी। वह उस समय भी अन्याय के विरुद्ध बोलने की शक्ति रखते थे और बाद में स्वाधीनता के समय भी सरकारी नौकरी करते समय हमेशा अनुचित बातों का डटकर विरोध करते रहे। 1943 से 1945 तक संगीत प्रचार अधिकारी तथा 1947 से 1950 तक बिहार सरकार के जनसंपर्क विभाग में निदेशक के पद पर कार्यरत रहे। 1952 में जब राज्यसभा का गठन हुआ तो तेजस्वी वाणी एवं राष्ट्र प्रेरक कविता की धारणा के कारण जवाहरलाल नेहरू ने दिनकर जी को राज्यसभा के लिए मनोनीत कर अपने पाले में लेने की कोशिश की। 1962 का लोकसभा का चुनाव हारने के बाद ललित नारायण मिश्रा ने जब अपने लिए उनसे इस्तीफा देने का अनुरोध किया था तो बगैर कुछ सोचे और समय गंवाए राज्यसभा सदस्य पद से इस्तीफा देे दिया था। 1963 में भागलपुर विश्वविद्यालय के कुलपति बने। लेकिन 1965 में उन्होंने त्यागपत्र दे दिया और कहा था सीनेट और सिंडिकेट में जबतक वाकयुद्ध होता रहा तो उसे सहता रहा लेकिन जब अंगस्पर्श की नौबत आ गई तो पद का परित्याग कर देना आवश्यक था। इसके बाद दिनकर जी को 1965 से 1972 तक भारत सरकार के हिंदी विभाग में सलाहकार का दायित्व निर्वहन करना पड़ा।
राष्ट्र प्रेमियों को प्रेरणा देकर, उनके दिल और दिमाग को उद्वेलित कर झंकृत करने वाले राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर ने 26 जनवरी 1950 को जब लाल किले के प्राचीर से ‘सदियों की ठण्डी बुझी राख सुगबुगा उठी, मिट्टी सोने का ताज पहन इठलाती है, दो राह समय के रथ का घघर्र नाद सुनो, सिंहासन खाली करो कि जनता आती है’ कहा तो पूरे परिदृश्य में एक सन्नाटा खिंच गया था। अपनी कविता के माध्यम से समाज के सभी वर्ग के लोगों को ललकार कर उन्होंने कर्तव्य बोध जगाने का काम किया, ताकि लोग अपनी जिम्मेदारी समझें और पूरी निष्ठा से उसका निर्वहन करें। तभी तो उन्होंने लिखा था ‘समर शेष है नहीं पाप का भागी केवल व्याध्र, जो तटस्थ हैं समय लिखेगा उनका भी अपराध।’ बाल्मीकि, कालिदास, कबीर, इकबाल और नजरुल इस्लाम की गहरी प्रेरणा से राष्ट्रभक्त कवि बने दिनकर को सभी ने राष्ट्रीयता का उद्घोषक और क्रांति का नेता माना। रेणुका, हुंकार, सामधेनी आदि कविता स्वतंत्रता सेनानियों के लिए प्रेरक सिद्ध हुआ था। दिनकर जी ने राष्ट्रप्रेम एवं राष्ट्रीय भावना का ज्वलंत स्वरूप परशुराम की प्रतीक्षा में युद्ध और शांति का द्वंद कुरुक्षेत्र में व्यक्त किया है। संस्कृति के चार अध्याय में भारतीय संस्कृति के प्रति अगाध प्रेम दर्शाया और 1959 में संस्कृति के चार अध्याय के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला। 1959 में ही राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद से पद्मभूषण प्राप्त किया। भागलपुर विश्वविद्यालय के चांसलर डॉ. जाकिर हुसैन (बाद में भारत के राष्ट्रपति बने) से साहित्य के डॉक्टर का सम्मान मिला। गुरुकुल महाविद्यालय द्वारा विद्याशास्त्री से अभिषेक मिला। आठ नवंबर 1968 को उन्हें साहित्य-चूड़मानी के रूप में राजस्थान विद्यापीठ उदयपुर में सम्मानित किया गया। 1972 में उर्वशी के लिए ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया गया। सम्मान समारोह में उन्होंने कहा था ‘मैं जीवन भर गांधी और मार्क्स के बीच झटके खाता रहा हूं। इसलिए उजाले को लाल से गुणा करने पर जो रंग बनता है, वही रंग मेरी कविता का है और निश्चित रूप से वह बनने वाला रंग केसरिया है।’ द्वापर युग की ऐतिहासिक घटना महाभारत पर आधारित प्रबन्ध काव्य ‘कुरुक्षेत्र’ को विश्व के एक सौ सर्वश्रेष्ठ काव्यों में 74वां स्थान मिला है।
प्रतिरोध की आग मद्धिम नहीं हो, इसके लिए रश्मिरथी में कर्ण और परशुराम प्रतीक्षा को दिनकर ने प्रतीकात्मक पात्र के रूप में प्रस्तुत किया है। दोनों ने सामंती व्यवस्था का प्रतिकार किया है, दोनों ने व्यक्तिगत जीवन को सेवा और त्याग से जोड़ कर रखा तथा नई मानवता को उन्हें समर्पित कर दिया। क्रोपोटकिन एवं गांधी वर्तमान में इसके प्रतीक हैं। गांधी की आग को जिस तरह दिनकर जी ने प्रस्तुत किया, उस तरह और कवि ने नहीं किया। प्रतिरोध का कवि जनता की सत्ता चाहता है और उसका स्वयं सजग प्रहरी बनकर रहना चाहता है, उसका आत्मसंघर्ष यहीं आकर सार्थक होता है। कर्ण और परशुराम उसके आत्म संघर्ष को वाणी प्रदान करते हैं। निराला में प्रतिरोध की गहराई है और मुक्तिबोध में उसकी वैचारिक भूमि मिलती है। लेकिन आग और प्रज्वलन जो प्रतिरोध की सुंदरता है, धर्म है, वह दिनकर की कविताओं में है। कुरुक्षेत्र में दिनकर के युद्ध दर्शन पर मार्क्सवादी चिंतन का गहरा प्रभाव पड़ा, उनकी मान्यता है कि जबतक समाज में सम स्थापित नहीं होगा युद्ध रोकना असंभव है। ‘जबतक मानव-मानव का सुख भाग नहीं सम होगा, शमित न होगा कोलाहल संघर्ष नहीं कम होगा।’ इस तरह आर्थिक गुलामी से भी मुक्ति की गहरी आकांक्षा दिनकर के काव्य की मूल प्रेरणा है। भारतीयता के बिम्ब के रूप में हुए महाराणा प्रताप, शिवाजी, चंद्रगुप्त, अशोक, राम, कृष्ण और शंकर का नाम लेते हैं तो दूसरी ओर टीपू सुल्तान, अशफाक, उस्मान और भगत सिंह का भी। भगत सिंह और उनके किशोर क्रांतिकारी साथियों की शहादत के बाद ‘हिमालय’ में गांधीवादी विचारधारा के प्रतीक युधिष्ठिर की जगह गांडीवधारी अर्जुन और गदाधारी भीम के शौर्य का अभिनंदन करते हुए उन्होंने कहा था ‘रे रोक युधिष्ठिर को न यहां जाने दे उनको स्वर्गधीर, पर फिरा हमें गांडीव गदा लौटा दे अर्जुन भीम वीर।’
चीन आक्रमण के समय ‘परशुराम की प्रतीक्षा’ में शांतिवादियों की आलोचना करते हुए भगत सिंह जैसे क्रांतिवीरों के इतिहास का स्मरण किया है कि ‘खोजो टीपू सुल्तान कहां सोए हैं, अशफाक और उस्मान कहां सोए हैं, बम वाले वीर जवान कहां सोए हैं, वे भगत सिंह बलवान कहां सोए हैं।’ शांति की रक्षा के लिए वीरता और शौर्य की आवश्यकता महसूस करते हुए उन्होंने कहा था ‘देशवासी जागो, जागो गांधी की रक्षा करने को गांधी से भागो।’ छायावादी संस्कारों से कविता लेखन प्रारंभ करने वाले दिनकर जी की आरंभिक कीर्ति रेणुका की कुछ कविताओं, हिमालय के प्रति हिमालय, कविता की पुकार में प्रगतिशीलता का उन्मेष दिखाई पड़ता है। किसान जीवन की विडम्बनाओं से कविता की पुकार में रूबरू कराते हुए उन्होंने लिखा था ‘ऋण शोधन के लिए दूध घी बेच-बेच धन जोड़ेंगे, बूंद-बूंद बेचेंगे अपने लिए नहीं कुछ छोड़ेंगे।’ गरीब मजदूरों की आर्थिक और असहायता से शुद्ध होकर स्वर्ग लूटने को आतुर दिनकर जी ‘हाहाकार’ में कहते हैं ‘हटो व्योम के मेघ पंथ से स्वर्ग लूटने हम जाते हैं, दूध-दूध ओ वत्स तुम्हारा दूध खोजने हम जाते हैं।’ कहा जाता है कि दिनकर की ‘उर्वशी’ हिंदी साहित्य का गौरव ग्रंथ है। परशुराम की प्रतीक्षा कहती है ‘दोस्ती ही है देख के डरो नहीं, कम्युनिस्ट कहते हैं चीन से लड़ो नहीं, चिंतन में सोशलिस्ट गर्क है, कम्युनिस्ट और कांग्रेस में क्या फर्क है, दीनदयाल के जनसंघी शुद्ध हैं, इसलिए आज भगवान महावीर बड़े क्रुद्ध हैं।’ उन्होंने कहा था अगर एकता को आलस्य और सावधानता में आकर हमने खिड़की की राह से जाने दिया तो हमारी स्वाधीनता सदर दरवाजा खोल कर निकल जाएगी। अपने कथन में अपूर्व सरल भंगिमा और सहज तर्कों का समावेश करते हुए दिनकर कहते थे ‘रोजगार इसलिए कम हैं क्योंकि धंधे देश में काफी नहीं हैं। धंधे इसलिए नहीं बढ़ते कि धन देश में कम है, धन की कमी इसलिए है कि उत्पादन थोड़ा है और उत्पादन इसलिए थोड़ा है कि लोग काम नहीं करते।’
अपने जीवन के अंतिम दिनों में राष्ट्रकवि दिनकर इंदिरा गांधी के शासन से ऊब गए थे। उन्होंने इंदिरा राज के खिलाफ खुलेआम बोलना शुरू कर दिया था। कहा था ‘मैं अंदर ही अंदर घुट रहा हूं, अब विस्फोट होने वाला है, जानते हो मेरे कान में क्या चल रहा है, अगर जयप्रकाश को छुआ गया तो मैं अपनी आहुति दूंगा। अपने देश में जो डेमोक्रेसी लटर-पटर चल रही है, इसका कारण है कि जो देश के मालिक हैं, वह प्रचंड मूर्ख हैं। स्थिति बन गई है कि वोट का अधिकार मिल गया है भैंस को, मजे हैं चरवाहों के।’
आज कविवर दिनकर हमारे बीच नहीं हैं- ‘तुम जीवित थे तो सुनने को जी करता था, तुम चले गए तो गुनने को जी करता है।’ दिनकर को पैदा करने वाली बेगूसराय की क्रांतिकारी धरती उनकी ‘हुंकार, कुरुक्षेत्र, रसवंती, रश्मिरथी, उर्वशी, नील कुसुम, बापू, परशुराम की प्रतीक्षा और संस्कृति के चार अध्याय के रूप में आज भी समस्त जागृत ज्वलंत समस्याओं के समाधान की प्रेरणा से पुलकित हैं। दिनकर जी के साहित्य का प्रकाश अमिट है। राष्ट्रीय स्वाभिमान के नायक, राष्ट्र के सजग प्रहरी, व्यापक सांस्कृतिक दृष्टि और सात्विक मूल्यों के आग्रही, समाज को तराशने वाले शिल्पकार राष्ट्रकवि दिनकर में पूरा युग प्रतिबिंबित है, अतीत के स्वर्णिम पृष्ठ हैं, वर्तमान जीवंत है तथा भविष्य निर्देशित हैं।
(लेखक हिन्दुस्थान समाचार से संबद्ध हैं।)