देवघर: जिंदगी बदहाल वनोत्पाद पर जीवन-यापन करने वाली आदिवासी महिलाओं की

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देवघर, 22 मई (हि. स.)। देवघर जिले के अधिसंख्य जनजातीय बाहुल्य ग्रामीण क्षेत्रों में वनोत्पाद पर आधारित जीवन जीने वालों के लिए समय मुसीबतों भरा बन गया है। आलम यह कि वनोत्पाद पर आधारित जीविकोपार्जन के साधन तो पूर्व की तरह ही हैं किंतु उससे जुड़े व्यवसाय पूरी तरह ठप्प हो गए हैं। इसके चलते जीवन कठिनाइयों भरा हो गया है।
जिले के मधुपुर, मोहनपुर, सारवां, देवीपुर जैसे प्रखंडों का आदिवासी बाहुल्य क्षेत्रों के संताल, कोल आदि जनजातियां वनोत्पाद पर आधारित सखुआ के पत्तों से बने स्वनिर्मित पत्तल, दातुन, महुआ का अचार, महुआ का लड्डू बनाकर इसे बंगाल के आसनसोल, दुर्गापुर, सीतारामपुर जैसे शहरों में बेचकर जीविकोपार्जन करते रहे किन्तु वर्तमान समय में मधुपुर रेलवे खण्ड में सवारी गाड़ी के परिचालन नहीं होने से उनके आवागमन के कोई और साधन नहीं होने से यह व्यवसाय पूरी तरह ठप्प हो गया है।
उल्लेखनीय है कि जिले के मधुपुर विधानसभा क्षेत्र सहित अन्य क्षेत्रों में वनोत्पाद की बहुलता है। बावजूद इनके रोजगार के जरिये पर दोहरी मार पड़ी है, जिस कारण इनकी दशा दयनीय है। ज्ञात हो कि वनोत्पाद के ऐसे लघु व्यवसाय में ज्यादातर आदिवासी महिलाएं ही जुड़ी हैं।
आदिम जनजाति की ये महिलाएं दिनभर सखुआ का पत्ता तोड़ती हैं और पत्तियों को सुखाकर उनसे पत्तल का निर्माण कर बाजारों में बेच लाती हैं जिससे प्राप्त आमदनी से परिवार का गुज़र-बसर करती हैं।
लॉकडाउन के कारण यह व्यवसाय बुरी तरह प्रभावित हो गया है। मधुपुर अनुमंडल के पथलजोर और चेचाली की आदिवासी महिलाएं बताती हैं कि उनके बनाये महुआ का लड्डू और अचार की मांग बंगाल में सर्वाधिक होती है इसलिए वे इसे बनाकर सुदूरवर्ती क्षेत्रों से बनाती है मधुपुर आती है। जब सवारी ट्रेनें चलती थी तो महिलाएं पत्तल लेकर मधुपुर से आसनसोल, दुर्गापुर, सीतारामपुर जाकर बेच आती थीं किन्तु वर्तमान समय में यह बिल्कुल खत्म हो गया है। इस कारण उनकी दशा दयनीय हो गयी है।
दिनभर जंगल-जंगल घूमकर हाड़तोड़ मेहनत करने वाली इन महिलाओं के दुःखों का यहीं पर अंत नहीं हो जाता बल्कि पत्तल बनाने के बाद व्यापारी महज 20 रुपये सैकड़ा की दर से इनका पत्तल ले लेते हैं। एक हजार पत्तल बेचने पर इनको महज 200 रुपये ही मिलता है, जबकि एक हजार पत्तल बनाने में इन्हें दो से तीन दिन का समय लग जाता है।
दूसरी ओर चेचाली, जीतपुर की आदिवासी महिलाएं तसर उत्पादन से स्वयं को जोड़कर अर्जुन के पेड़ से तसर के कीड़े तैयार करके कोकून तैयार करती हैं। मधवाडीह, शामपुर, लफरीटांड़, मोहनाडीह, सलगाडीह, ककली, कर्णपुरा, जाभागुड़ी, चेचाली, जीतपुर जंगलों में रहने वाले आदिवासी तसर उत्पादन से जुड़े हैं। करीब 2 हजार परिवार वनोपज से भरण-पोषण करते हैं। इतना ही नहीं, जिले के विभिन्न प्रखंडों के अतिरिक्त मधुपुर में जड़ी-बूटियों का भी अच्छा-खासा व्यापार होता है।
ये जंगल-जंगल घूमकर जड़ी-बूटियों की पहचान कर उन्हें व्यापारियों के पास बेचते हैं जो व्यापारियों द्वारा देश के विभिन्न भागों में भेजा जाता है।  जाहिर तौर पर व्यापारियों द्वारा इनसे औने-पौने दामों में खरीदा जाता है, जबकि वे इसका भरपूर लाभ कमाते हैं और व्यापारियों तक जड़ी-बूटियां पहुंचाने वाले आदिवासियों को उनके मेहनत का उचित मूल्य भी नहीं मिल पाता है। हद तो तब हो गयी जब वनोत्पाद पर लाभ पहुंचाए जाने के उद्देश्य से पंचायती राज अधिनियम में अनेकों प्रावधान किया गया है लेकिन सरकार इस मामले में उदासीन है‌। सरकार के रवैये से इसका रत्तीभर लाभ शायद ही इन्हें मिल पाता है। कानून प्रावधानों के तहत वनोत्पाद का मूल्य निर्धारण करना है किंतु यह प्रावधान कोई मायने नहीं रखता और इस इलाके श्रमवीर आदिवासी महिलाएं दोहरी मार झेलते हुए जैसे-तैसे जीवन बसर कर रही हैं।

 


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