नई दिल्ली, 10 जुलाई (हि.स.)। कर्नाटक में उभरे राजनीतिक संकट ने लोकतांत्रिक व्यवस्था की बखिया उधेड़ कर रख दिया है। संवैधानिक संस्थाओं के साथ भद्दा मजाक किया जा रहा है। जनादेश को अपमानित करने का कुचक्र रचा गया है। लोकतंत्र को अस्थिर करने की शरारत अच्छी पहल नहीं कही जा सकती है। वह चाहे सत्ता पक्ष की हो या प्रतिपक्ष की। यह राज्य की जनता के साथ खिलवाड़ है। जनविश्वास का जनाजा निकाला जा रहा है। सत्ता बचाने के लिए सवा साल पुरानी कांग्रेस और जेडीएस की सरकार दांव पर लग गयी है। मुख्यमंत्री एसडी कुमारस्वामी अपनी अमेरिका की यात्रा बीच में छोड़ कर वापस गृह राज्य पहुंच गए हैं। जोड़तोड़ के आधार पर सरकारों को अस्थिर करने की राजनीति लोकतंत्र के लिए शुभ संकेत नहीं है। लोकतंत्र में लोकलाज की अनदेखी संक्रमण की स्थिति पैदा करती है। बदलते राजनीतिक परिवेश को देखते हुए संविधान में संख्या बल नियम की नए सिरे से व्याख्या होनी चाहिए। संख्या बल की बजाय सबसे बड़े राजनीतिक दल को यह जिम्मेदारी सौंपी जानी चाहिए, नहीं तो सरकारें अस्थिर होती रहेंगी और देश के साथ राज्य का विकास प्रभावित होता रहेगा। सत्ता, सिंहासन के गठजोड़ में बेचारा जनतंत्र पिसता रहेगा।
कर्नाटक विधानसभा में कुल 224 सीटें हैं, लेकिन चुनाव 222 सीटों के लिए हुए थे। विधानसभा में सबसे बड़ा दल भाजपा है जिसकी सदस्य संख्या 105 है। जबकि बहुमत के लिए 113 विधायक होने चाहिए। कांग्रेस-जेडीएस की गठबंधन वाली सरकार के पास कुल 118 विधायक थे। इसमें कांग्रेस के 78, जेडीएस के 37, बसपा के एक और दो निर्दलीय विधायक गठबंधन की सरकार में शामिल थे। लेकिन 14 बागी विधायकों की वजह से सरकार अल्पमत में आ गयी है। अगर विधायकों के त्यागपत्र मंजूर हुए तो विधानसभा में विधायकों की संख्या 105 हो जाएगी। हालांकि विधानसभा अध्यक्ष ने नियमों को पढ़ने-समझने के नाम पर बागी विधायकों के इस्तीफे पर फिलहाल अड़ंगा लगा दिया है। उधर, विपक्ष में बैठी भाजपा ने राज्यपाल से हस्तक्षेप की गुहार लगाई है। बागी विधायकों में कांग्रेस के दस, जेडीएस के तीन और दो निर्दलीय हैं। सरकार बचाने के लिए जेडीएस के सभी और कांग्रेस के 21 मंत्रियों ने त्यागपत्र दे दिया है। भाजपा सत्ता में न आए इसके लिए कांग्रेस-जेडीएस गठबंधन पूरा जोर लगा रहा है। बागी विधायकों को बेंगलुरु से मुंबई ले जाया गया है। राज्य की कुमारस्वामी सरकार के लिए यह बड़ी चुनौती है। सवाल उठता है कि अभी गठबंधन सरकार को लंबा सफर तय करना है। सरकार के पास पांच साल के कार्यकाल में सिर्फ सवा साल का वक्त गुजरा है। जब अभी से ऐसे हालात हैं तो फिर सरकार पूरा कार्यकाल कैसे पूरा करेगी? बागी विधायकों को कब तक सत्ता और पैसे का लालच देकर बांधा रखा जा सकता है? जिन मंत्रियों से त्यागपत्र लिया गया है क्या वह अपनी महत्वाकांक्षा का त्याग करेंगे? जब लोकतंत्र और राजनीति बाजारवाद में तब्दील हो गई हो। संविधन गौण हो गया हो। संख्या बल की आड़ में संवैधानिक व्यवस्था का टेटुवा दबाया जा रहा हो। उस स्थिति में सरकार का भविष्य क्या होगा सभी जानते हैं।
कांग्रेस वैसे भी सबसे बुरे दौरा से गुजर रही है। अब उस दल में विधान और संविधान नहीं रह गया है। गांधी परिवार जिस राहुल गांधी के कंधे पर अपनी विरासत संभालने का सपना देखता था वह भगोड़े साबित हुए हैं। कांग्रेस नेतृत्वविहीन हो चुकी है। पार्टी के युवा राजनेता त्यागपत्र की कतार में हैं। जब कांग्रेस राष्ट्रीय स्तर पर अपने अस्तित्व को बचाने में नाकाम रही है तो फिर गठबंधन कहां से बचा पाएगी? यह अपने आप में बड़ा सवाल है। राज्य में पार्टी की कमान ढीली है। इसकी मूल वजह पर कभी ध्यान नहीं दिया गया। गांधी परिवार के वफादारों को राज्यों में पार्टी की कमान सौंपे जाने से संगठन के लिए काम करने वाले कार्यकर्ता उपेक्षित होने लगे। इसकी वजह से ही कर्नाटक जैसे संकट पैदा हुए हैं। हालांकि इस पूरे घटनाक्रम से भाजपा अपने को अलग नहीं रख सकती है। उसकी पूरी रणनीति सत्ता और सिंहासन के इर्द-गिर्द घूमती है। कांग्रेस का अरोप है कि भाजपा प्रदेश अध्यक्ष येदियुरप्पा इस पूरी साजिश में शामिल हैं। यहां तक कहा गया कि कांग्रेस के बागी विधायकों को मुंबई लाने के लिए जिस विमान का उपयोग किया गया उसे एक भाजपा नेता ने उपलब्ध कराया था। इस पूरे घटनाक्रम से भाजपा को दूरी बनाए रखनी चाहिए थी। जब जनादेश उसके खिलाफ था तो उसे पांच साल तक मोदी सरकार की उपलब्धियों को जनता के बीच ले जाना चाहिए था। कांग्रेस और जेडीएस सरकार की नीतियों और उसकी खामियों को आम लोगों तक पहुंचाना चाहिए था। लोकतांत्रिक तरीके से राज्य विधानसभा से लेकर सड़क तक गठबंधन सरकार को घेरना चाहिए था। भाजपा को जनादेश का सम्मान करना चाहिए था। लेकिन देश की सबसे बड़ी पार्टी भी जोड़तोड़ की राजनीति में जुटी है। यह राजनीति की सबसे खतरनाक विडंबना है। अब कोई विपक्ष में रहना नहीं चाहता है। सत्ता का स्वाद इतना मधुर है कि सियासी दल और राजनेता उस डुबकी से निकलना नहीं चाहते हैं। इसकी वजह से कर्नाटक जैसे हालात पैदा होते हैं।
कर्नाटक का घटनाक्रम देश की राजनीति का बेहद बेशर्म और बदसूरत चेहरा है। राज्य की जनता ने विधायकों को जो जनादेश दिया था, क्या उस पर वह खरे उतरे हैं? चुनाव में उन्होंने विकास के लिए वोट मांगा था। जनता को विकास का सब्जबाग दिखाया गया था। लेकिन बगावत के नाम पर आलीशान पंचतारा होटलों में जनविश्वास की धज्जियां उड़ायी जा रही हैं। सत्ता और मंत्रीपद के लिए बगावत की जा रही है। दूसरी ओर, सरकार बचाने के लिए कर्नाटक की जनता का करोड़ों रुपये पानी में बहाया जा रहा है। राज्य में कपास के किसान बेमौत मर रहे हैं। कई स्थानों पर सूखे के हालात हैं। पानी का संकट हैं। किसान बदहाल हैं। लेकिन वहां तो सरकार बचाने के लिए चोर-सिपाही का खेल खेला जा रहा है। अब वक्त आ गया है जब संविधान में संशोधन कर संख्या बल का नियम खत्म करना चाहिए। जब राजनीतिक समीकरण बदल रहे हैं तो फिर नियम भी बदलने चाहिए। जनादेश किसी की व्यक्तिगत छवि से नहीं मिलता है। उसमें संबंधित दल, उसकी नीतियां और विकास शामिल होते हैं। दलबदल नीति में भी बदलाव होना चाहिए। सरकार बनने के बाद उस दल से चयनित कोई भी विधायक-सांसद पांच साल तक पार्टी नहीं छोड़ सकता है। संबंधित दल की सत्ता रहते हुए वह विधायक दल से त्यागपत्र भी नहीं दे सकता है। मंत्रिमंडल से वह हटना चाहता है तो हट सकता है, लेकिन दल से तब तक त्यागपत्र नहीं दे सकता जब तक कि उसका दल राज्य या फिर केंद्र की सत्ता बाहर न हो जाय। अगर कोई भी व्यक्ति सरकार को अस्थिर करने की साजिश रचता है तो उसकी राजनीति पर आजीवन प्रतिबंध लगा देना चाहिए। अभिव्यक्ति की आजादी की आड़ में लोकतंत्र का गला घोटने की स्वच्छंदता नहीं मिलनी चाहिए। इसके अलावा प्रतिपक्ष के लिए भी कड़े कानून बनाने चाहिए। सत्ता के लिए चोर-सिपाही का यह खेल खत्म होना चाहिए। सरकार बनाने का काम जनता करती है तो उसे गिराने का भी अधिकार मिलना चाहिए। हमारे संविधान में यह व्यवस्था पहले से कायम है जिसकी वजह से पांच साल बाद आम चुनाव होते हैं। सत्ता और प्रतिपक्ष को इस गंदे खेल पर विचार करना चाहिए, वरना लोकतंत्र से जनविश्वास उठ जाएगा।