कोरोना से बेहाल दुनिया को चीन का सहारा

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आर.के. सिन्हा

कोरोना के कहर को कमोबेश शिकस्त देने के बाद अब चीन में जिंदगी तेजी से पटरी पर लौट रही है। हालांकि, इसे पूरी तरह से सामान्य होने में अभी लंबा वक्त लग सकता है। कोरोना के कारण सर्वाधिक प्रभावित वुहान शहर में बाजार-दफ्तर और फैक्ट्रियां अब धीरे-धीरे खुल रही हैं। आपको याद होगा कि चीन सरकार ने एक करोड़ से अधिक आबादी वाले औद्योगिक शहर वुहान में जनवरी के अंत में लॉकडाउन लगा दिया था, ताकि कोरोना वायरस को फैलने से रोका जाए। लगभग साढ़े तीन महीने लॉकडाउन के कदम के नतीजे बेहतर आए। अब स्थिति यह है कि चीन की ग्रेट वॉल में भी पर्यटक आने लगे हैं। हालांकि, उनकी संख्या काफी कम है। चीन में ये स्थितियां तब की हैं, जब सारी दुनिया में कोरोना से बचने के लिए कहीं लॉकडाउन लगा है तो कहीं बिना लॉकडाउन के हाहाकार मचा हुआ है। अभी किसी को कोई आइडिया नहीं है कि हम कोरोना पर कब पूरी तरह काबू पा लेंगे। दुनिया भर के लोग अपने-अपने घरों में कैद हैं।

यानी चीन एक तरह से अब आर्थिक लाभ की स्थिति में आ गया है। जब सारी दुनिया में विभिन्न वस्तुओं की मांग बढ़ने लगेगी तो वे चीन की तरफ ही तो देखेंगे। चीन से ही उन्हें आपूर्ति होगी। क्योंकि, उनके अपने देशों में तो उत्पादन ठप पड़ा हुआ है। इसमें कमोबेश भारत भी शामिल है। भारत के मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर को तो चीन ने घुटनों के बल पर लगाकर खड़ा कर दिया है। वैसे, इसमें हमारी अपनी काहिली भी कम नहीं है कि हमने अपने को आत्मनिर्भर बनाने की पर्याप्त चेष्टा नहीं की। चीन से भारत बनी-बनाई चीजें, खासकर तरह-तरह की मशीनरी, टेलिकॉम उपकरण, बिजली के सामान, खिलौने, इलेक्ट्रिकल मशीनरी व उपकरण, मैकेनिकल मशीनरी व उपकरण, बने-बनाये फर्नीचर प्रोजेक्ट गुड्स, जेनेरिक दवाएं बनाने के लिए जरूरी कच्चा माल, आर्गेनिक केमिकल, लौह व इस्पात आदि प्रमुख चीजें मंगाता है। वैसे भारत में यह सामर्थ्य और शक्ति दोनों ही विद्यमान है कि हम इनमें से ज्यादातर चीजें देश के भीतर खुद ही और ज्यादा बढ़िया बना सकते हैं। पिछले कुछ सालों से बिजली व दूरसंचार उपकरणों के आयात में काफी तेजी आई है।

हालांकि चीन की अर्थव्यवस्था भी फिलवक्त कोरोना के असर के कारण लगभग निचुड़-सी चुकी है। पर उसमें अपने को खड़ा करने की क्षमता, शक्ति और अनुशासन तो है ही। चीन में भी फैक्ट्रियों में उत्पादन तेजी से घटा है। विदेशों से होने वाली मांग भी कम होती जा रही है। चीन का पिछले साल (जनवरी-फरवरी) की तुलना में इस साल इन दो महीनों में आयात 17.2 फीसद घटा है। चीन से मिल रही पुख्ता जानकारियों के अनुसार, वहां फैक्ट्री उत्पादन इस माह के अंत तक काफी हद तक गति पकड़ने लगेगा। तो यह समझ लें कि कोरोना की मार से उबरता चीन अब दुनिया को तमाम जरूरी वस्तुओं की सप्लाई करके अरबों डॉलर कमाएगा। वह अब इस आर्थिक आन्दोलन की तैयारी में जुट गया है।

जब चीन में कोरोना का प्रभाव अपने चरम पर था, तब वहां से अन्य देशों के उद्योगों को जरूरी माल की सप्लाई थम-सी गई थी। इसके चलते अन्य देशों को 50 अरब डॉलर का नुकसान हुआ। संयुक्त राष्ट्र ने यह आंकड़ा जारी किया है। पिछले जनवरी महीने में कोरोना और चीनी नववर्ष के कारण हुए अवकाश में लाखों मजदूर अपने घरों को भी चले गए थे। इस कारण वहां पर फैक्ट्री उत्पादन बुरी तरह से प्रभावित हुआ था। पर जैसा कि पहले उल्लेख किया जा चुका है, वहां हालात सुधरने के बाद अब 70 फीसद कंपनियां सक्रिय हो गई हैं, जो मुख्य रूप से अपने माल का विश्व भर में एक्सपोर्ट ही करती हैं। इस तरह का दावा चीन के वाणिज्य मंत्रालय का है।

न्यूयार्क टाइम्स और दि गार्जियन जैसे अखबारों का दावा है कि चीन के अति महत्वपूर्ण आधुनिक शहर शिंघाई में नाइट क्लब चालू हो गए हैं। वहां पर लोग अब निश्चिन्त होकर पहले की तरह मदिरापान कर रहे हैं। मैं 1990 में शिंघाई गया था। उस समय भी वह मुम्बई से ज्यादा आधुनिकता से ओत-प्रोत लग रहा था। मेरी अनुवादक एक सरकारी डॉक्टर नवयुवती थी जो अतिरिक्त कमाई के लिये अनुवादक का काम कर रही थी ।मैंने उससे पूछा कि तुम्हारे पिता प्रोफेसर, माता नर्स और तुम डॉक्टर हो। यह ठीक है कि सरकारी नौकरी में पैसे ज्यादा नहीं मिलते, पर बांड समाप्त होने पर प्राइवेट अस्पताल में काम तो मिल सकता है? उसने बहुत ही बेबाकी से कहा कि मुझे इंतजार नहीं करना। जल्दी-जल्दी ढेर सारे पैसे कमाकर अमेरिका भागना है। वहां डॉक्टर की जॉब पानी है और किसी बड़े पैसे वाले अमेरिकी लड़के से शादी करके मौज की जिन्दगी बितानी है। मैंने पूछा कि अपने माँ-बाप को अकेले छोड़कर चली जाओगी? उसने शरारत भरी नजरों से मुस्कराते हुये कहा, “जब अमरीकी पति हो जायेगा तब मुझे भी अमेरिका की नागरिकता मिल जायेगी और तब मेरे मम्मी-पापा को भी तो वहां का ग्रीन कार्ड मिल ही जायेगा न? यह तो 1990 में चीन की नवयुवतियों की मानसिकता थी, तब आज के दिन क्या होगी यह तो कोई भी कल्पना कर ही सकता है?

और तो और, उनमें आने वाले लोग मास्क भी नहीं पहन रहे। इससे साफ है कि चीन में जीवन अब सामान्य होने लगा है। उधर, बीजिंग की मुख्य सड़कों पर यातायात भी रफ्तार पकड़ रही है। यानी लोगबाग घरों से कामकाज के लिए निकल रहे हैं। आम जनता को पार्कों में घूमते हुए भी देखा जा सकता है।

यानी चीन ने भले ही सख्त अनुशासन के बल पर सही, मोटा-मोटी कोरोना पर विजय पा ली है। यह खबर शेष दुनिया के लिए सुकून देने वाली तो है ही। पर अभी तो ऐसा ही लगता है कि सारी दुनिया को चीन के आयात पर निर्भर रहना होगा। अगर बात दुनियाभर की प्रमुख फार्मा सेक्टर की कंपनियों की करें तो वे अपनी जेनेरिक दवाएं बनाने और उनके निर्यात करने में काफी हद तक चीन पर ही निर्भर रहती हैं। इन्हें दवाओं के उत्पादन लिए चीन से एक्टिव फ़ार्मास्यूटिकल इनग्रेडिएंट्स (एपीआई) आयात करना पड़ता है। इसे आप दवाइयां बनाने का कच्चा माल कह सकते हैं। अगर बात भारत की करें तो इन दवाओं को बनाने के लिए लगभग 75 प्रतिशत कच्चा माल तो चीन से लेना पड़ता है। जमीनी हकीकत तो यही है, आज के दिन। तो आप समझ ही सकते है कि भारत की फार्मा कंपनियों के सामने इस वक्त कितना बड़ा संकट पैदा हो चुका है। अभी से ही बाजारों से आंखों में प्रेशर खत्म करने के लिए डाली जानी वाली दवा लुमिगिन गायब है। इसकी वजह यही है कि इसे भारतीय कंपनियां बना ही नहीं पा रही है क्योंकि उनके पास कच्चा माल ही नहीं है।

महत्वपूर्ण यह है कि आवश्यक दवाओं की सूची में शामिल करीब दस दवाएं ऐसी हैं जिनका उत्पादन चीन के कच्चे माल से ही संभव है। यह सच में एक दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है कि हमारा फार्मा सेक्टर बहुत हद तक चीन पर आश्रित है। भारत ने साल 2018-19 में दुनिया के 150 से भी अधिक देशों में 9 करोड़ डॉलर से अधिक मूल्य की दवाएं निर्यात कीं थीं। पर यह हुआ इसलिए क्योंकि हमें चीन से लगातार कच्चा माल मिल रहा था। एक संकेत अब साफ नजर आ रहा है कि कोरोना से खस्ताहाल भारत की अर्थव्यवस्था को चीनी मदद की जरूरत पड़ती रहेगी। अच्छी बात ये है कि डोकलाम विवाद के बाद दोनों देशों के शिखर नेताओं भारतीय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और चीन के राष्ट्रपति शी चिन की समझदारी से दोनों देशों के संबंध मधुर हो रहे हैं। चीनी राष्ट्रपति पिछले साल भारतके दौरे पर आए भी थे। तब उनका भारत में अभूतपूर्व स्वागत भी हुआ था। हालांकि इसमें कोई शक ही नहीं है कि 1962 के युद्ध की कड़वी यादें अब भी भारतीय जनमानस के जेहन ताजा हैं। फिर जो कुछ भी कहिए, भारत और चीन ने एक सार्वभौम पड़ोसी राष्ट्रों के रूप में द्विपक्षीय रिश्ते में एक लम्बी दूरी तय कर ली है। चीनी कंपनियां भारत में भारी निवेश को लेकर खासा सकारात्मक रुख अपना रही हैं। दिल्ली से सटे गुरुग्राम में हजारों चीनी नागरिक रह रहे हैं। ये भारत में कार्यरत विभिन्न चीनी कंपनियों के पेशेवर हैं।

मतलब चीन का प्राइवेट सेक्टर अब भारत से संबंध सुधारना चाहता है। उसे भारत के विशाल बाजार की जानकारी है और मजे की बात यह है कि चीन की सभी देशी- विदेशी कंपनियों में चीन की कम्युनिस्ट पार्टी यानि चीन की सरकार का 50 प्रतिशत शेयर होता है। कोरोना की मार से उबरते चीन की तरफ सारी दुनिया आज आशा भरी निगाहों से देख रही है। भारत भी इससे अछूता नहीं है। अब चीन का दायित्व है कि वह कोरोना से बेहाल दुनिया के जख्मों पर मरहम लगाए। हां, इस क्रम में उसकी अर्थव्यवस्था तो विकास की बुलंदियों की तरफ बढ़ती ही रहेगी।

(लेखक वरिष्ठ संपादक एवं स्तंभकार हैं।)

 


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