कश्मीर-समस्या पूर्व प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु की शेख अब्दुल्ला से दोस्ती और महाराजा कश्मीर से खुन्नस की देन है। यह सत्य अब सारी दुनिया जान चुकी है। लेकिन यह तथ्य कम ही लोग जानते हैं कि जिस शेख अब्दुल्ला को नेहरुजी ने कश्मीर की सत्ता का सर्वेसर्वा बना रखा था, वो जम्मू-कश्मीर को भारत से अलग कर देने के राष्ट्रघाती षड्यंत्र-मामले में जेल जाने के साथ-साथ जांचोपरांत आरोपित भी हो चुके थे। उन्हें तब की कांग्रेसी केन्द्र सरकार ने अदालती सजा मुकर्रर होने से पहले ही रिहा कराकर प्रधानमंत्री आवास में मेहमान बना रखा था। सरकारी दस्तावेजों में यह मामला ‘कश्मीर षड्यंत्र केस’ के नाम से दर्ज है, जिसे शेख अब्दुल्ला ने ‘मादरे-मेहरबान’ के छद्म नाम से अंजाम दिया था। आज कश्मीर समस्या सम्बन्धी केन्द्र सरकार की कार्रवाइयों पर कांग्रेसी नेताओं-सांसदों और अब्दुल्ला खानदान के रहनुमाओं द्वारा जब तरह-तरह के सवाल खड़े किये जाने लगे हैं, तब उस ‘मादरे मेहरबान’ प्रकरण से देशवासियों को अवगत करा देना आवश्यक प्रतीत हो रहा है।
मालूम हो कि नेहरुजी की कृपा से जम्मू-कश्मीर की सत्ता का सर्वेसर्वा बन वहां के जनमत को अपने पक्ष में करने की बाबत अनुच्छेद 370 नामक हथियार पाकर शेख अब्दुल्ला कश्मीर को इस्लामी रंग में रंगने लगे थे।वह भारत के प्रति निष्ठावान जनता पर कहर ढाते हुए अमेरिका-ब्रिटेन के साथ-साथ अल्जीरिया-मोरक्को आदि इस्लामिक देशों के हुक्मरानों से गुप्त सम्बन्ध कायम कर उसे भारत से अलग राज्य बना डालने एवं स्वयं उसका स्वतंत्र सुल्तान बन जाने का षड्यंत्र रचने लगे थे। किन्तु, उन्हीं की पार्टी के एक मंत्री बख्शी गुलाम मोहम्मद और भारतीय खुफिया एजेन्सियों के माध्यम से उसकी तमाम सूचनाएं तत्कालीन केन्द्रीय गृहमंत्री कैलाशनाथ काटजू एवं भारतीय गुप्तचर सेवा के निदेशक जी.के. हाण्डु को मिलती रही थीं। उन तमाम पत्राचारों-दस्तावेजों के आधार पर केन्द्रीय मंत्रिमण्डल द्वारा नेहरुजी पर इतना दबाव पड़ा था कि वे अब्दुल्ला को गिरफ्तार होने से तत्काल बचा नहीं सके। फलतः 09 अगस्त 1953 को केन्द्र सरकार द्वारा जम्मू-कश्मीर के ‘वजीर-ए-आजम’ (प्रधानमंत्री) कहे जाने वाले शेख अब्दुल्ला की हुकूमत को बर्खास्त कर बख्शी गुलाम मोहम्मद को सत्ता सौंप दी गई थी। बख्शी मोहम्मद भारत के प्रति वफादार थे। उन्होंने जम्मू-कश्मीर में आम भारतीयों के प्रवेश विषयक ‘परमिट’ की अनिवार्यता समाप्त करने सहित वजीर-ए-आजम व सदर-ए-रियासत के पद भी हटा कर उनके बदले क्रमशः मुख्यमंत्री व राज्यपाल के पद का विधान कायम करते हुए समूचे जम्मू कश्मीर को भारतीय रंग में रंगने का काम किया था।
उधर, उधमपुर जेल में बंद शेख अब्दुल्ला ने अपनी बेगम के माध्यम से विभिन्न मुल्लाओं-मौलवियों, नेशनल कांफ्रेन्स के नेताओं-कार्यकर्ताओं तथा कतिपय कश्मीरी सरकारी मुलाजिमों और पाकिस्तानी सेना-पुलिस -गुप्तचर अधिकारियों के बीच गुप्त सम्बन्ध-समन्वय स्थापित कर ‘वार काउंसिल’ नामक एक भूमिगत संगठन कायम कर लिया था। इतना ही नहीं, अपनी बेगम को जेल में अपने साथ रख उक्त षड्यंत्र के क्रियान्वयन का प्रशिक्षण देकर उसे ‘मादरे मेहरबान’ नाम प्रदान कर उक्त ‘वार काउंसिल’ का संयोजक बना रखा था। फिर तो ‘मादरे मेहरबान’ को जम्मू-कश्मीर में साम्प्रदायिक दुष्प्रचार, हिंसा, आतंक, तोड़फोड़, बम विस्फोट आदि मजहबी उन्माद फैलाने व भारत-विरोधी विघटनकारी वातावरण बनाने के लिए पाकिस्तानी सेना से बाकायदा धन मिलने लगा था। तीन-चार वर्षों के अन्दर षड्यंत्र के सारे तंत्र तैयार हो जाने के बाद 13 जून 1957 से उक्त ‘वार काउंसिल’ का छद्म-युद्ध शुरू हो गया था। जम्मू-कश्मीर में मन्दिरों-गुरुद्वारों, मस्जिदों, सिनेमाघरों, बस अड्डों, पुल-पुलियाओं आदि को बम-विस्फोटों से उड़ाने शुरु हो गए थे। शेख अब्दुल्ला को जब यह यकीन हो गया कि सूबे के हालात बिगड़ते ही सत्ता उन्हें सौंप दी जाएगी, जैसे सन 1947 में सौंप दी गई थी, तो वे जेल से बाहर निकलने की जुगत भिड़ाने लगे। इधर, नेहरुजी को भी कदाचित यह स्वीकार नहीं था कि उनका दोस्त अब्दुल्ला जेल में रहे। सो, उन्होंने मुख्यमंत्री मोहम्मद पर दबाव डालकर अब्दुल्ला को रिहा करवा दिया। मगर बख्शी साहब की भारत-भक्ति बेमिसाल थी। उन्होंने जेल से बाहर हुए शेख अब्दुल्ला के इर्द-गिर्द खुफिया जाल बिछा दिया। छद्मवेशी खुफिया अधिकारी अपनी-अपनी जेबों में ‘टेप रिकॉर्डर’ लिए रहते थे और अब्दुल्ला की हर गतिविधियों, बैठकों, सभाओं में हिस्सा लिया करते थे। मात्र चार महीने के भीतर ही शेख अब्दुल्ला की तमाम सियासी हरकतों एवं भारत विरोधी षड्यंत्रकारी गतिविधियों के सैकड़ों ठोस प्रमाण जब पुनः एकत्रित हो गए, तब मोहम्मद साहब नेहरुजी से पूछे बिना अब्दुल्ला को गिरफ्तार कराकर पुनः जेल में डलवा देने के बाद उनकी समस्त कारगुजारियों के सारे प्रमाण भारत सरकार को भेज दिए। उन प्रमाणों को देखने के बाद जवाहरलाल नेहरु ऐसे विवश हो गए कि उन्हें अब्दुल्ला पर दोबारा मुकदमा चलाने की अनुमति झख मारकर देनी ही पड़ी। फलतः 21 मई 1958 को शेख अब्दुल्ला और मिर्जा अफजल बेग सहित 22 अन्य लोगों के खिलाफ आईसीपीसी की धारा 32-33 के तहत देशद्रोह के साथ-साथ हिंसा आतंक विद्रोह आदि अनेक संगीन मामलों का एक मुकदमा दर्ज किया गया, जिसे ‘कश्मीर षड्यंत्र केस’ कहा जाता है। वह केस दरअसल यही था कि स्वतंत्र कश्मीर का सुल्तान बनने की फिराक में विदेशी शक्तियों से मिलकर साजिश रचने के कारण सत्ता गंवा कर जेल की सलाखों के भीतर जा चुके अब्दुल्ला को उनके प्रतिद्वंदी बख्शी मोहम्मद की हुकूमत रास नहीं आ रही थी। इसलिए वे जेल के भीतर से ही मोहम्मद-सरकार को उखाड़ फेंकने और जम्मू-कश्मीर को पाकिस्तान में मिला देने अथवा भारत के नियंत्रण से बाहर स्वतंत्र राज्य बना देने का षड्यंत्र रचे हुए थे, जिसका संचालन उनकी बेगम ‘मादरे मेहरबान’ के छद्म नाम से किया करती थीं।
जम्मू-कश्मीर के ही एक जाने-माने पत्रकार व लेखक नरेन्द्र सहगल की पुस्तक ‘घाटी के स्वर’ में उक्त ‘कश्मीर षड्यंत्र केस’ का विस्तार से वर्णन है। पुस्तक के अनुसार ‘शेख अब्दुल्ला और उनके साथियों के विरुद्ध एक सौ से भी अधिक गवाहों की गवाहियां दर्ज हुई थीं। सभी के खिलाफ देशद्रोह के आरोप सिद्ध हो जाने के बाद ‘लोवर कोर्ट’ ने अग्रेतर कार्रवाई की बाबत ‘सेसन कोर्ट’ को वह मामला सुपुर्द कर दिया था। लगभग छह साल चले उस मुकदमे का फैसला आने ही वाला था, तभी एक दिन प्रधानमंत्री नेहरु के आदेश पर सरकार ने अब्दुल्ला सहित उसके सभी साथियों के विरुद्ध सिद्ध हो चुके उस पूरे मुकदमे को ही वापस ले लिया। फलतः 08 अप्रैल 1964 को शेख अब्दुल्ला जेल से रिहा कर दिए गए।’ वह कई दिनों तक प्रधानमंत्री आवास के मेहमान बने रहे। कांग्रेस के नेतागण इस प्रश्न का उतर देने में आज भी बेजुबान सिद्ध होंगे कि देशद्रोह के उस ‘मादरे मेहरबान’ मामले के मुख्य अभियुक्त अब्दुल्ला पर कांग्रेसी सरकार के प्रधानमंत्री आखिर क्यों इतने मेहरबान थे?