कहा जाता है कि इस धरती पर बच्चों के लिए देवता उनके माता-पिता होते हैं। इसलिए कि वे अपने बच्चों को सभी प्रकार के सुख देते हैं। दुखों से मुक्त रखने की कोशिश करते हैं। जैसे ही बच्चा जन्म लेता है, वह अपनी मां के आंचल को सबसे ज्यादा सुरक्षित महसूस करता है। दुनिया-जहान की सारी खुशियां वह अपने मां की गोद में ही प्राप्त करता है। पिता से वह सारे संस्कार प्राप्त करता है जो उसके जीवन को संवारने का कार्य करते हैं। माता- पिता अपने बच्चों के लिए अपनी सारी सुख-साधन, खुशियां, भावनाएं और आकांक्षाएं सहर्ष बलिदान कर देते हैं। लेकिन वही बच्चा जब बड़ा हो जाता है। पढ़-लिखकर अपने पैरों खड़ा हो जाता है। शादीशुदा हो जाता है तो मां-बाप को भूल जाता है, जिन्होंने उसे चलना सिखाया था। यह ठीक नहीं है। भौतिक सुख-साधन की चाह में आखिर हम कैसा समाज बनाना चाहते हैं? यह सही है कि मां की ममता एहसान नहीं करती क्योंकि एहसान तो चुकाया जा सकता है लेकिन मां की ममता अनमोल होती है। नौजवानों को इस बात का ध्यान देना चाहिए कि जब बूढ़े माता-पिता अपनी उम्र के ऊंचे पड़ाव पर होते हैं और जब वे ज्यादा चल-फिर नहीं सकते तब उनको सहायता की जरूरत होती है। कुछ मामलों में देखा गया कि कमाऊ पूत अपनी पत्नी, बच्चों के कमरे में तो एसी, कुलर, पंखा आदि लगवा लेते हैं और माता पिता को घर के किसी कोने में सिमटा देते हैं। उन्हें समय-समय पर नौकर अथवा बहू के हाथों नाश्ता-भोजन तो भेजवा देते हैं, लेकिन उनका हाल-चाल तक नहीं पूछते। ठीक है, जीवन में तरक्की और भौतिक सुख-साधनों के लिए हर व्यक्ति को भागा-दौड़ी करनी पड़ती है। लेकिन यह कैसी व्यस्तता है जो बेटे को मां-बाप से दूर कर देती है? आखिर बेटा अपनी बीबी-बच्चों को तो भरपूर समय देता है। फिर मां-बाप की उपेक्षा क्यों करता है?
सवाल यह कि क्या मानव आज पत्थर दिल और निर्मम होता जा रहा है? जिस मां ने अपने बेटे को कभी गर्मी नहीं लगने दी, रात-रातभर जग कर पंखा झलती रही। स्वयं ठंड सहती रही लेकिन बच्चे को कभी ठंड नहीं लगने दी। आज जब वह असहाय अवस्था में है तो बेटा अपने कर्तव्यों से विमुख हो गया है। क्या मां ने अपने बच्चे से कभी भेदभाव किया? क्या मां ने कभी बच्चे के लालन-पालन में कोई कमी छोड़ी? कदापि नहीं। लेकिन मनुष्य आज कितना गिरता चला जा रहा है कि अपने घर में बड़े बूढ़ों को इज्जत मान-सम्मान तक सही से नहीं दे पा रहा है।
बुजुर्गों की हालात देश में चिंताजनक है। जहां निरंतर संवेदनाहीन समाज बुजुर्गों का वहिष्कार कर रहा है। दूसरी ओर सरकार की चलाई गई अनेक योजनाएं भी कारगर सिद्ध नहीं हो पा रही है। प्रश्न यह उठता है कि क्या संस्कृतियों वाले इस देश में सभ्यता और मानवता की कमी हो गई है? क्या विरासत स्वरूप वरिष्ठजन की सामाजिक सुरक्षा तिरोहित हो गई है? बुजुर्गों के लिए चलाई गई वय वंदन योजना,अनुदान सहायता योजना, इंदिरा गांधी राष्ट्रीय वृद्धा पेंशन योजना, राष्ट्रीय वयोश्री योजना, स्वावलम्बन योजना, अटल पेंशन योजना समेत कई प्रकार की योजनाओं के माध्यम से सरकार बुजुर्गों को सहायता प्रदान करने का प्रयास कर रही लेकिन सभी योजनाएं एकमुश्त प्रीमियम राशि निवेश करने की मांग करती हैं। लेकिन बुजुर्गों की आर्थिक हालत इतनी सही नहीं होती कि उनको इन तमाम योजनाओं में निवेश कर लाभ दिलाया जा सके। यही कारण है कि बुजुर्गों की दशा को सुधारने के लिए सरकार के प्रयास कारगर सिद्ध नहीं हो रहे हैं। उनकी सामाजिक सुरक्षा खतरे में नजर आ रही है। इसका एक कारण योजनाओं का जमीनी स्तर पर सही से प्रचालन न हो पाना है क्योंकि सरकार के द्वारा प्रदान की जाने वाली स्वास्थ्य सेवाएं मात्र दिखावटी साबित हो रही हैं।
प्रजातांत्रिक परिवर्तनों के साथ हो रहा आधुनिकीकरण, व्यक्तिवादी संस्कृति और भौतिक साधनों की होड़ आदि कुछ ऐसे कारण हैं जिन्होंने समाज को इस गर्त में धकेला है, जिसमें मानवीय संबंधों का दोहन भी भरपूर हुआ है। आवश्यकता है लोगों को अपने अंदर अपने मां -बाप बड़े- बूढ़ों के प्रति एक सम्मान का भाव जगाने की। बच्चों को अपने बुजुर्ग माता-पिता की उन समस्त बातों का ध्यान रखना चाहिए जो वह उनसे कह नहीं पाते। शायद वे अपने बच्चों को कष्ट नहीं देना चाहते होंगे। लेकिन बच्चों को उन सभी समस्याओं पर ध्यान रखना चाहिए जो वृद्धावस्था में होती हैं। वृद्धावस्था में व्यक्ति को अनेक प्रकार के रोगों का सामना करना पड़ता है। अतः बच्चों को चाहिए कि उनकी जांच नियमित रूप से डॉक्टरों से कराते रहें और समय-समय पर उनकी सलाह भी लेते रहें। अधिकतर माता-पिता अपनी समस्याएं बच्चों से नहीं कहते। वे बीमार तो होते हैं लेकिन बच्चों को जाहिर नहीं होने देते। लेकिन बच्चों को चाहिए कि बुजुर्ग माता-पिता की समस्त जरूरतों का हर पल ध्यान रखें। तभी बुजुर्गों को एक स्वाभिमान और सम्मान भरा जीवन मिल सकता है।