अरंडी : पेट से लेकर चर्म तक हर रोग की दवा के साथ ही खेती से होगा दोगुना लाभ
लखनऊ, 18 अगस्त (हि.स.)। गठिया रोग हो या स्तन की गांठ, चेहरे का तिल हो या साटिका अथवा पेचिस अधिकांश रोगों में काम आने वाला अरंडी सिर्फ गड्ढों के किनारे उगने वाला पौधा नहीं, इसकी खेती से आप मालामाल हो सकते हैं। अनुपयुक्त खेत में भी इसकी खेती से डेढ़ लाख रुपये प्रति हेक्टेयर से ज्यादा लाभ कमा सकते हैं। इसकी खेती द्विफसली के रूप में भी किया जाता है और जिस खेत में यह होता है, वहां कीड़ों का प्रकोप खुद ही कम हो जाता है, क्योंकि इसमें पाया जाने वाला रिसिन नामक विषैला पदार्थ हर भाग में उपस्थित रहता है। यूपी में इसकी खेती पहले बहुतायत में बुंदेलखंड, लखनऊ और पूर्वी यूपी में होती थी लेकिन अब कुछ रकबा इसका कम हो गया है।
इस संबंध में आयुर्वेदाचार्य डाक्टर एसके राय ने बताया कि अरंडी में चालिस से 60 प्रतिशत तक तेल उपस्थित होता है। यह शुद्ध ऍल्कालोइड़स के लिये एक उत्कृष्ट सॉल्वैंट के रूप में नेत्र शल्य चिकित्सा में प्रयुक्त होता है। इससे साबून भी बनाये जाते हैं। यह अस्थायी कब्ज, पेट के दर्द और तीव्र दस्त मे धीमी पाचन के कारण प्रयोग किया जाता है। इसका तेल दाद, खुजली, आदि विभिन्न रोगों में रामबाण है।
कानपुर कृषि विश्वविद्यालय के डाक्टर मुनीष कुमार ने बताया कि अरंडी का हर भाग दवा व व्यवसाय के रूप में उपयोगी है।अरंडी के तेल का उपयोग साबुन, रंग, वार्निश, कपड़ा रंगाई उद्योग, हाइड्रोलिक ब्रेक तेल, प्लास्टिक, चमड़ा उद्योग में होता है| अरण्डी की पत्तियां रेशम के कीटों को पालने व हरी खाद बनाने में काम आती हैं। खली खाद के रूप में काम आती है। अरंडी की खेती सिंचित और असिंचित दोनो ही स्थितियों में की जाती है| इसकी जड़ें गहरी जाती हैं, जिससे फसल में सूखा सहन करने की क्षमता बढ़ जाती है|
खेती
डाक्टर मुनीष ने बताया कि अरंडी की खेती विभिन्न प्रकार के जलवायु में की जा सकती है। इसकी बुवाई खरीफ व कटाई रबी मौसम में होती है। इसके लिए अगस्त माह उपयुक्त समय है। यह किसी भी खेती के साथ मेड़ों पर उगाया जा सकता है। यह सूखा सहन कर सकती है, परन्तु जल भराव के प्रति संवेदनशील है। अरंडी अच्छे जल निकास वाली लगभग सभी भूमियों में उगायी जा सकती है। अच्छे फसल उत्पादन के लिये भूमि का पी एच मान 5 से 6 के बीच होना चाहिये।
मिश्रित फसल पद्धति
अरंडी की खेती खरीफ की फसल सोयाबीन, मूँग, लोबिया, उड़द, गुआरफली और अरहर के साथ किया जा सकता है। मिश्रित फसल के लिए अरंडी का छह किलोग्राम प्रति हेक्टेयर बीज उपयुक्त रहता है। इसकी कई किस्में हैं, जिसमें अरूणा, ज्योति, क्रान्ति आदि प्रमुख रूप से बोयी जाती हैं।
खाद और उर्वरक
डाक्टर मुनीष कुमार ने बताया कि असिंचित फसल में 50 किलोग्राम नत्रजन और 25 किलोग्राम फास्फोरस प्रति हैक्टेयर प्रयोग किया जाना चाहिए। आधा नत्रजन और पूरा फास्फोरस बुवाई के समय गहरा ऊर कर दें एवं शेष बची आधी नत्रजन को खड़ी फसल में 30 दिन की अवस्था पर वर्षा होने पर दें। वहीं अरंडी की सिंचित फसल के लिये 100 किलोग्राम नत्रजन और 45 किलोग्राम फास्फोरस प्रति हैक्टेयर प्रयोग करना उपयुक्त होता है। अरंडी का प्रति हेक्टेयर 12 से 15 किलोग्राम बीज की बोआई की आवश्यकता होती है। यदि बीज को हाथ से एक-एक कर बाेया जाता है तो छह से आठ किलोग्राम बीज प्रति हेक्टेयर चाहिए।
बुवाई का समय व विधि
अरंडी की बुवाई अगस्त माह में हल, सीड्रिल या हाथ से की जाती है। सिंचित फसल के लिए लाइन से लाइन की दूरी 95 से 118 सेंटीमीटर और पौधे से पौधे के बीच की दूरी 65 सेंटीमीटर, वहीं असिंचित के लिए 60 गुणे 46 सेमी रखना उपयुक्त होता है। डाक्टर मुनीष कुमार ने हिन्दुस्थान समाचार से बताया कि इसमें झुलसा रोग के उपचार के लिए दो किग्रा मैन्कोजेब पानी में मिलाकर छिड़काव करना चाहिए, जबकि उखटा रोग के लिए ट्राइकोडर्मा व गोबर की खाद उपयुक्त होती है। इसकी पैदावार असिंचित खेती में 20 से 25 क्वींटल तथा सिंचित खेती में 35 से 40 क्वींटल प्रति हेक्टेयर हो जाती है।