अतीत को जानना जरूरी आत्मनिर्भर भारत के लिए : भागवत

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राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक ने  विमोचन समारोह में लोगों का आह्वान किया  डॉ. भागवत ने किया ‘ऐतिहासिक कालगणना : एक भारतीय विवेचन’ पुस्तक का विमोचन  



नई दिल्ली, 21 फरवरी (हि.स.)। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत ने रविवार को कहा कि भारत का अतीत गौरवशाली रहा है। यदि देश को आत्मनिर्भर बनाना है तो पहले हमें अपने अतीत को जानना होगा। अपने अतीत को जाने बिना हम देश को आत्मनिर्भर नहीं बना सकते। उन्होंने यह आह्वान सभ्यता अध्ययन केंद्र के निदेशक रविशंकर की पुस्तक ‘ऐतिहासिक कालगणना : एक भारतीय विवेचन’ के विमोचन समारोह में किया।
समारोह का आयोजन यहां कांस्टीट्यूशन क्लब के स्पीकर हाल में किया गया। डॉ. भागवत ने कहा कि अंग्रेजों ने भारत पर राज करने के लिए पहले हमको जड़ों से अलग किया। हमारे मूल को हमसे छीन लिया और अपनी अधूरी बातों को थोप दिया। उन्होंने कहा कि ज्ञान के अनुसंधान का मूल आधार ही विदेशियों ने हमसे काट दिया। इसमें काल प्रमुख है। सभी तरह के ज्ञान का प्रारंभ भी काल से ही होता है। इसलिए हमारी एक वृत्ति बन गई कि हमारे पास कुछ है ही नहीं। जो कुछ किया वो अंग्रेजों ने किया। हमारे पूर्वजों ने कुछ नहीं किया।
उन्होंने कहा कि विदेशी प्रभाव का यह परदा हटाकर ही हमें सोचना पड़ेगा। भारत को भारत की नजर से देखना पड़ेगा। तभी वास्तविकता दिखेगी। उसका दर्शन होगा। उन्होंने कहा कि हमें अपने मूल से जुड़ना होगा। बिना इसके हम अपने गौरवशाली अतीत को नहीं जान सकते। सरसंघचालक ने कहा कि समाज के फैले इस भ्रम और असत्य को दूर करने के लिए भारत का पक्ष लेकर लड़ने वाले ‘बौद्धिक क्षत्रिय’ चाहिए। यह अध्ययन केंद्र ऐसे बौद्धिक क्षत्रिय का निर्माण कर रहा है। यह आनंद का विषय है।
कार्यक्रम में पूर्व केंद्रीय राज्यमंत्री एवं बागपत के भाजपा सांसद डॉ. सत्यपाल सिंह, अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष प्रो. राजकुमार भाटिया और लातूर (महाराष्ट्र) के सांसद सुधाकर तुकाराम श्रृंगारे समेत कई प्रमुख लोग उपस्थित थे।
डॉ. सत्यपाल सिंह ने विमोचन समारोह को ज्ञानयज्ञ की संज्ञा दी। उन्होंने कहा कि हमारा अतीत गौरवशाली रहा है। हमें अपनी महान सभ्यता एवं संस्कृति पर गर्व होना चाहिए लेकिन यह सत्य इतिहास की पुस्तकों में भी होनी चाहिए। इसलिए भारतीय इतिहास के पुनर्लेखन की आवश्यकता है। उन्होंने महाभारत के एक प्रसंग की चर्चा करते हुए कहा कि दुनिया में मीठा सत्य बोलने वाले बहुत लोग मिलेंगे लेकिन कड़वा सत्य बोलने वाले कम ही लोग हैं। डॉ. सिंह ने कहा कि रविशंकर की यह पुस्तक कड़वा सत्य बयां करती है। पुस्तक में कही गई बातों से वह पूर्णरूपेण सहमत हैं।
कार्यक्रम की शुरुआत में पुस्तक के लेखक रविशंकर ने बताया कि राष्ट्रीय स्वाभिमान आंदोलन के संयोजक केएन गोविंदाचार्य की प्रेरणा से यह पुस्तक लिखी। रविशंकर ने कहा कि सभ्यता और संस्कृति में अंतर होता है लेकिन यह अंतर हम परिभाषा में गड़बड़ी के कारण नहीं जान पाए। उन्होंने कहा कि परिभाषा के स्तर पर गड़बड़ियां हुई हैं, क्योंकि जब मौलिक परिभाषा में गड़बड़ी होती है तो उसके आगे की सारी प्रक्रियाएं गड़बड़ ही होती हैं। हम चीजों को जब भारतीय परिप्रेक्ष्य में देखेंगे तो  जान पाएंगे कि सत्य क्या है। कहने का अर्थ है कि भारत को भारतीय परिप्रेक्ष्य में जाने बिना भारत को नहीं जाना जा सकता।
लेखक ने कहा कि भारत का इतिहास आज जो पढ़ाया जाता है, उसमें ढेरों समस्याएं हैं। सबसे पहली समस्या इसकी प्राचनीता की है। भारत का इतिहास कितना प्राचीन है? कितना प्राचीन हो सकता है? यह प्रश्न हमारे सामने इसलिए भी उपस्थित होता है, क्योंकि आज विश्व पर जिन लोगों का प्रभुत्व है, उनकी अपनी इतिहास दृष्टि बहुत छोटी और संकुचित है। यूरोप और अमेरिका आदि नवयूरोपीय लोगों पर ईसाई कालगणना का ही प्रभाव है, जोकि मात्र छह हजार पहले सृष्टि की रचना मानते थे। वहां के विज्ञानी भी इस भ्रामक अवधारणा से मुक्त नहीं हैं और इसीलिए वे एक मिथकीय चरित्र ईसा को ही कालगणना के आधार के रूप में स्वीकार करते हैं।
रविशंकर ने कहा कि यूरोप के इस अज्ञान के प्रभाव में भारतीय विद्वान भी फंसे। जिन भारतीय विद्वानों ने इसका विरोध किया वह भी कहीं न कहीं इसकी चपेट में आ गए और इसलिए पुराणों जैसे भारतीय स्रोतों से इतिहास लिखने का दावा करने वाले विद्वानों ने भी मानव सभ्यता का इतिहास कुछेक हजार अथवा कुछेक लाख वर्षों में समेट दिया। किसी भी विद्वान ने शास्त्रसम्मत युगगणना को सही मानने का साहस नहीं दिखाया बल्कि सभी ने इसके उपाय ढूंढे ताकि यूरोपीय खांचे में भारत के इतिहास को डाला जा सके। इस भ्रमजाल को काटने और इस भ्रमजाल को मजबूती प्रदान करने वाले आधुनिक विज्ञान के सिद्धांतों की विवेचना किए बिना कालगणना में सुधार करना संभव नहीं है। इस बात को ध्यान में रखकर ही इस पुस्तक का प्रवर्तन किया गया है।

 


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