दुनिया भर में जिनकी विधा का बज रहा डंका, उपेक्षित है जन्मस्थली, भूले ‘बाबा रामदेव’ .
गोण्डा, 10 जून (हि.स.)। योग एक ऐसी विधा है जिसका अभी तक धार्मिक आधार पर कोई बटवारा नहीं है। यह लगभग सभी पंथ, सम्प्रदाय व जाति के लोगों का जीवन का हिस्सा बन चुका है। इस कोरोना महामारी से बचने व शरीर की प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने के लिए योग का सहारा ले रहे हैं। ऐसे तपस्वी व योग के जन्मदाता ऋषि पंतजलि की जन्मस्थली उपेक्षा के शिकार है।
गौरतलब है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के आवाह्न के बाद लोगों में इसका तेजी से असर हुआ है। फिर भी प्रशासनिक उपेक्षाओं के चलते ऐसी विधा के जनक महर्षि पतंजलि की जन्मस्थली आज भी उपेक्षित है। इतना ही नहीं बल्कि उनके नाम पर बना एक बड़ा सा चबूतरा खंडहर में तब्दील होता जा रहा है। बगल में एक छोटा सा मंदिर भी विद्यमान है।
पुजारी रमेश दास बताते हैं कि सवा दो बीघा जमीन मंदिर के नाम पर है। इस पर भी कई जगहों पर अतिक्रमण है। मैं मंदिर की देख रेख व पूजा पाठ करते हैं। इस स्थल की शासन प्रशासन से लेकर किसी भी जनप्रतिनिधियों ने आजतक कोई आवाज नहीं उठाई है।
बताया कि कुछ वर्षों पूर्व योगगुरु कहे जाने वाले बाबा रामदेव गोण्डा पहुंचे थे, उन्हें कुछ विद्वानों ने पतंजलि जन्मस्थली की विषय में बताया था। पतंजलि योगपीठ आज उन्हीं के नाम पर विश्वविख्यात है और स्वदेशी के नाम पर अरबोंं रुपये का व्यापार भी कर रहे हैं, लेकिन उन्हें न तो जन्मस्थली से नाता है और न ही कोई लेना देना है।
प्रतिमा लगाना भूल गए ‘बाबा रामदेव’
पतंजलि जन्मभूमि न्यास के संस्थापक डॉ स्वामी भागवताचार्य ने बताया उस समय बाबा रामदेव ने 70 × 40 का एक बड़ा सा हॉल बनाकर उसमें महर्षि पतंजलि की प्रतिमा स्थापित करने की बात कही थी। लेकिन योगगुरु यह बात भूल गए।
उप्र सरकार ‘पर्यटन स्थल’ भी घोषित न कर सकी
सबसे चौकाने वाली बात तो यह है कि जिस योग के नाम पर व पतंजलि ऋषि दुनिया भर में विख्यात हैं। उन महात्मा की पुण्य भूमि को उत्तर प्रदेश सरकार पर्यटन स्थल भी घोषित न कर सकी।
अंतरराष्ट्रीय योग विश्वविद्यालय की सपना अधूरी
उन्होंने कहा कि वह देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी संयुक्त राष्ट्र संघ के अध्यक्ष सहित प्रदेश के मुख्यमंत्री को पत्र भेजकर महर्षि पतंजलि के जन्मस्थली का पर्यटन विकास व अंतरराष्ट्रीय योग विश्वविद्यालय खोलने की मांग उठाई थी। उनके पत्र पर प्रधानमंत्री कार्यालय द्वारा गंभीरता से लेते हुए आयुष मंत्रालय को अंतरराष्ट्रीय योग विश्वविद्यालय का मसौदा तैयार करने के लिए कहा गया था। बाद में मंत्रालय ने उन्हें पत्र भेजकर यह कहकर मामले को टाल दिया कि उनके यहां विश्वविद्यालय खोलने का कोई प्रावधान नहीं है।
जानें, कैसे जन्म हुआ महर्षि पतंजलि की
ऋषि पतंजलि की माता का नाम गोणिका था। इनके पिता के विषय में कोई जानकारी उपलब्ध नहीं है। पतंजलि के जन्म के विषय में ऐसा कहा जाता है कि यह स्वयं अपनी माता के अंजुली के जल के सहारे धरती पर नाग से बालक के रूप में प्रकट हुए थे। माता गोणिका के अंजुली से पतन होने के कारण उन्होंने इनका नाम पतंजलि रखा। ऋषि को ‘नाग से बालक’ होने के कारण शेषनाग का अवतार भी माने जाता है।
गोण्डा के कोडर गांव में जन्मे थे योगजनक
बताते चलें कि महर्षि पतंजलि सिर्फ सनातन धर्म ही नहीं आज हर धर्मो के लिए पूज्य हैं। जिनके बताए योग के सूत्र से आज कितने लोगों ने असाध्य रोगों से मुक्ति पा ली और जिस अमृत को देवताओं ने अपने पास सम्भाल के रखा, उस अमृत स्वरूपी योग को पूरी दुनिया में बांटने वाले महर्षि पतंजलि की जन्मस्थली जनपद के वजीरगंज विकासखंड के कोडर गांव में स्थित है।
महर्षि पतंजलि की जन्मस्थली का साक्ष्य धर्मग्रंथों में भी मौजूद
इस बात का प्रमाण पाणिनि की अष्टाध्यायी महाभाष्य में मिलता है। जिसमें पतंजलि को गोनर्दीय कहा गया है। जिसका अर्थ है गोनर्द का रहने वाला। और गोण्डा जिला गोनर्द का ही अपभ्रंश है। महर्षि पतंजलि का जन्मकाल शुंगवंश के शासनकाल का माना जाता है। जो ईसा से 200 वर्ष पूर्व था।
जब शिष्यों ने पतंजलि का मुख देखना चाहा तो बने ‘सर्पाकार’
महर्षि पतंजलि पाणीनी के शिष्य थे। एक जनश्रुति के अनुसार महर्षि पतंजलि अपने आश्रम पर अपने शिष्यों को पर्दे के पीछे से शिक्षा दे रहे थे। किसी ने ऋषि का मुख नहीं देखा था। लेकिन एक शिष्य ने पर्दा हटा कर उन्हें देखना चाहा तो वह सर्पाकार रूप में गायब हो गये।
लोगों का मत है की वह कोडर झील होते हुए विलुप्त हुए। यही कारण है कि आज भी झील का आकार सर्पाकार है। योग विद्या जिसको आज अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति मिल चुकी है फिर भी योग के प्रेरणा स्त्रोत पतंजलि की जन्मस्थली गुमनाम है।
महर्षि पतंजलि ने महाभाष्य, पाणिनि, अष्टाध्यायी व योगशास्त्र की रचना
महर्षि पतंजलि ने अपने तीन प्रमुख कार्यो के लिए आज भी विख्यात हैं। व्याकरण की पुस्तक महाभाष्य, पाणिनि अष्टाध्यायी व योगशास्त्र कहा जाता है कि महर्षि पतंजलि ने महाभाष्य की रचना की। काशी में नागकुआं नामक स्थान पर इस ग्रंथ की रचना की थी। आज भी नागपंचमी के दिन इस कुंए के पास अनेक विद्वान व विद्यार्थी एकत्र होकर संस्कृत व्याकरण के संबंध में शास्त्रार्थ करते हैं। महाभाष्य व्याकरण का ग्रंथ है परंतु इसमें साहित्य, धर्म, भूगोल, समाज रहन-सहन से संबंधित तथ्य मिलते हैं।