हिन्दी साहित्य में आंचलिक विधा के सृजनकर्ता:फणीश्वरनाथ रेणु
रेणु जन्म शताब्दी वर्ष पर विशेष
मुरली मनोहर श्रीवास्तव
ग्रामीण परिवेश और देसज भाषा की बात करें तो हिंदी साहित्य में मुंशी प्रेमचंद के बाद फणीश्वरनाथ रेणु का नाम ही जेहन में आता है। रेणु जी की रचनाएं शब्दचित्र सरीखी होती थीं, इसीलिए भारतीय साहित्य जगत उनका खास स्थान है।
बिहार के अररिया जिले के फारबिसगंज के निकट औराही हिंगना ग्राम में 4 मार्च, 1921 को फणीश्वरनाथ रेणु का जन्म हुआ था। उस समय फारबिसगंज भी पूर्णिया जिले का ही हिस्सा हुआ करता था। रेणु जी की प्रारंभिक शिक्षा फॉरबिसगंज तथा अररिया में हुई। आगे की पढ़ाई के लिए नेपाल के विराटनगर आदर्श विद्यालय में दाखिला लिया और वहीं से मैट्रिक की परीक्षा पास की। इंटरमीडिएट की परीक्षा उत्तर प्रदेश के वाराणसी स्थित काशी हिंदू विश्वविद्यालय पास की।
1942 में गांधीजी के आह्वान पर स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़े। भारत-छोड़ो आंदोलन में रेणु की शिरकत ने उनमें सियासत की समझ जगाई। 1950 में उन्होंने नेपाली क्रांतिकारी आन्दोलन में भी हिस्सा लिया जिसके परिणामस्वरूप नेपाल में जनतंत्र की स्थापना हुई। रेणु के जीवन में साहित्य व सियासत दोनों साथ-साथ चलते रहे। रेणु जी ने आजीवन शोषण और दमन के विरुद्ध संघर्ष किया।
वर्ष 1936 के आसपास फणीश्वरनाथ रेणु ने कहानी लेखन की शुरुआत की। उस समय कुछ कहानियां प्रकाशित भी हुई थीं, किंतु वे किशोर रेणु की अपरिपक्व कहानियां थी। 1942 के आंदोलन में गिरफ़्तार होने के बाद जब वे 1944 में जेल से मुक्त हुए, तब घर लौटने पर उन्होंने ‘बटबाबा’ नामक गंभीर कहानी का लेखन किया। ‘बटबाबा’ कहानी ‘साप्ताहिक विश्वमित्र’ के 27 अगस्त 1944 के अंक में प्रकाशित हुई। रेणु की दूसरी कहानी ‘पहलवान की ढोलक’ 11 दिसम्बर 1944 को ‘साप्ताहिक विश्वमित्र’ में छ्पी। 1972 में रेणु ने अपनी अंतिम कहानी ‘भित्तिचित्र की मयूरी’ लिखी। उनकी अबतक उपलब्ध कहानियों की संख्या 63 है। तब किसे पता था कि साधारण लेखनी करने वाले रेणु की कृतियां ही एक दिन गंभीर लेखनी का रूप लेंगी और उस लेखनी पर फिल्म बनायी जाएगी।
‘मारे गए गुलफ़ाम’ पर फ़िल्म ‘तीसरी क़सम’ बनी
रेणु की लेखनी पर शुरुआती दौर में किसी को भरोसा नहीं हो रहा था कि इनकी लेखनी भी एक दिन मिल का पत्थर साबित होगी। मगर जैसे-जैसे लेखन के प्रति रुझान बढ़ता गया, इनकी लेखनी जमीनी स्तर से जुड़कर उभरने लगी। उसी का नतीजा रहा कि उनकी लिखी कहानी ‘मारे गए गुलफ़ाम’ पर फ़िल्म ‘तीसरी क़सम’ बनी, जिससे रेणु को काफी प्रसिद्धि मिली। इस फ़िल्म में राजकपूर और वहीदा रहमान ने मुख्य भूमिका निभाई। ‘तीसरी क़सम’ को बासु भट्टाचार्य ने निर्देशित किया था और निर्माता सुप्रसिद्ध गीतकार शैलेन्द्र थे।
उपन्यास मैला आंचल से मिली प्रसिद्धि
हालांकि रेणु को जितनी ख्याति हिंदी साहित्य में 1954 के उनके उपन्यास मैला आंचल से मिली, उसकी मिसाल दुर्लभ है। इस उपन्यास के प्रकाशन ने उन्हें रातों-रात हिंदी के एक बड़े कथाकार के रूप में प्रसिद्ध कर दिया। कुछ आलोचकों ने इसे गोदान के बाद हिंदी का दूसरा सर्वश्रेष्ठ उपन्यास घोषित करने में भी देर नहीं की। हालांकि विवाद भी कम नहीं खड़े किये उनकी प्रसिद्धि से जलनेवालों ने, इसे सतीनाथ भादुरी के बंगला उपन्यास ‘धोधाई चरित मानस’ की नकल तक कह डाला। पर वक्त के साथ रेणु की लेखनी ने अपनी विद्वता और संवेदनशीलता को साबित कर दिया।
हिंदी में आंचलिक कथा का विस्तार
रेणु के रचनाकर्म की खास बात उनकी लेखन-शैली की वर्णनात्मक थी। इसीलिए इनके कथानकों के पात्र और पृष्ठभूमि दोनों सिनेमा देखने जैसा एहसास कराते थे। आंचलिकता को प्राथमिकता ने उन्हें ऊंचा मुकाम दिया। उनकी लगभग हर कहानी में पात्रों की सोच घटना प्रधान होती थी। कोसी की बालूचर भूमि की पगडंडी वाले इलाके में बोली जाने वाली ठेठ गांव-जवार वाली भाषा को शब्दों में पिरोकर हिन्दी साहित्य में आंचलिक विधा के सृजनकर्ता रेणु का नाम हिन्दी साहित्य के पुरोधा मुंशी प्रेमचन्द के साथ लिया जाता है। रेणु को अंग्रेजी साहित्य के कथाकार विलियम वर्ड्सवर्थ की लेखनी के समतुल्य माना जाता है।
रेणुजी ने हिंदी में आंचलिक कथा का विस्तार किया, जिसकी नींव मुंशी प्रेमचंद ने रखी थी। रेणु जी ने जयप्रकाश आंदोलन में सक्रिय भागीदारी की और सत्ता द्वारा दमन के विरोध में पद्मश्री का त्याग कर दिया था। हिंदी साहित्य में आंचलिकता के इस अनूठे चितेरे ने 11 अप्रैल, 1977 को अनंत यात्रा पर निकल गए। मगर उनकी लेखनी आज भी उनके होने का एहसास कराती है।