पटना, 02 अक्टूबर (हि.स.)। बिहार में बाढ़ का आना कोई नई बात नहीं है। बिहार का शोक कहीं जाने वाली कोसी नदी अपनी मचलती धारा के कारण बदनाम है। यह कब किस तरफ करवट बदल ले कोई नहीं जानता? इसी तरह बागमती और बूढ़ी गंडक भी जब अपने रौद्र रूप में आती है तो फिर काल का विकराल रूप धारण कर लेती है। बाढ़ का दर्द क्या होता है अगर जानना हो तो बिहारवासियों से पूछिये। साल दर साल आने वाला जल प्रलय उनकी नियति बन चुकी है और भाग्य को उजड़ते देखना मजबूरी। हालांकि इस बार बाढ़ और बारिश ने आम लोगों के साथ खास लोगों को भी अपनी चपेट में लिया। नतीजा, कोहराम मच गया है। दरअसल, यहां बात पटना में भारी बारिश और उससे हुई तबाही की जा रही है।
तीन नदियों सोन, पुनपुन और गंगा से घिरे पटना की स्थिति कटोरे जैसी है। स्मार्ट सिटी बनने का ख्वाब पाले पटना का ड्रेनेज सिस्टम पूरी तरह से फेल हो चुका है। शहर का कोई ऐसा इलाका नहीं जहां घुटने से लेकर गर्दन तक पानी न भरा हो। आम लोगों के आशियानों से लेकर नेताओं और अफसरों के घरों तक पानी ने एक समान कब्जा किया हुआ है। राज्य के उप मुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी व उनका परिवार खुद इस जल कर्फ्यू का शिकार होकर अपने बंगले में कैद रहा। तीन दिनों बाद एनडीआरएफ की टीम ने उनका रेस्क्यू किया। हालांकि सुशील मोदी जितना भाग्यशाली हर पटनावासी नहीं है। बिना बिजली व पानी तथा खाने के दाने-दाने को मोहताज अधिकतर बाशिंदे अपनी बदकिस्मती पर आंसू बहाने को मजबूर हैं। उधर, अपनी अक्षमता स्वीकार करने के बजाय कोई हथिया नक्षत्र का ज्ञान दे रहा है तो कोई भारी बारिश को कसूरवार ठहरा रहा है।
अपनी पीठ बचाने के लिए सत्ताधीश चाहे जो दलील दें लेकिन सच तो यह है कि भ्रष्ट नेताओं और निकम्मे विभागों के कामचोर कर्मियों तथा अधिकारियों की लूट-खसोट इस जल प्रलय का सबसे बड़ा कारण है। सालों से गटर और नालियों के रखरखाव या साफ सफाई पर कभी भी ईमानदारी से काम नहीं हुआ। अगर हुआ होता तो केवल तीन दिन की बारिश में ही सुशासन पूरी तरह बह नहीं गया होता। पटना इतना अव्यवस्थित और घनत्व वाला क्षेत्र है कि मुंबई की धारावी भी इससे बेहतर लगेगी। हालांकि यह शहर हमेशा से ऐसा नहीं था। आज से 2300 साल पहले इस शहर की गणना दुनिया के सबसे अच्छे शहरों में होती थी। कह सकते हैं तब वाकई में यह स्मार्ट सिटी था।
इसकी तस्दीक ग्रीस के महान इतिहासकार और राजनयिक मेगस्थनीज ने अपने यात्रा वृतांत में की है। वह करीब 2300 वर्ष पहले भारत के जिस शहर में आए थे वह शहर तब मौर्य साम्राज्य की राजधानी हुआ करता था। शहर के विकास और व्यवस्था को देखकर अभिभूत मेगस्थनीज ने इसे दुनिया के सबसे शानदार और व्यवस्थित शहरों में से एक माना था। वह शहर था तब का पाटलिपुत्र और आज का पटना। यानी ईसा पूर्व चार सौ साल पहले भी दुनिया पाटलिपुत्र को एक स्मार्ट सिटी के तौर पर देखा करती थी। लेकिन आज का पटना तीन दिनों की बारिश को भी झेल पाने में असक्षम साबित हो गया। इसी के साथ स्मार्ट सिटी बनने का सपना भी पानी में डूब चुका है। फिलहाल बारिश बंद हो चुकी है लेकिन पानी अब भी अपने विकराल रूप में सुशासन को मुंह चिढ़ा रहा है। इसी के साथ ‘बिहार में बहार’ और ‘ठीके तो है…’ का जुमला नीतीश कुमार के सामने सवालिया निशान बनकर खड़ा हो गया है।
बहरहाल, देश के कुल 100 शहरों के साथ ही पटना को भी वर्ष 2017 में स्मार्ट सिटी की लिस्ट में शामिल किया गया था। इन शहरों को 98 हज़ार करोड़ रुपये खर्च करके स्मार्ट सिटी में बदलने का ख्वाब दिखाया गया था लेकिन फिलहाल यह जनता को लुभाने के लिए एक स्मार्ट आइडिया से ज्यादा कुछ नहीं साबित हुआ। पटना में बेतरतीब ढंग से कंक्रीट के जंगल तैयार करते हुए बड़ी-बड़ी इमारतें बनीं। बिल्डरों ने भ्रष्ट नेताओं व प्रशासन की मिलीभगत से तालाबों आदि को पाटकर उन पर अट्टालिकाएं खड़ी कर दी लेकिन जल निकासी पर ध्यान नहीं दिया गया। पटना शहर के ड्रैनेज सिस्टम का ज्यादातर हिस्सा वर्ष 1968 में तैयार किया गया था।
हाल ही में बिहार सरकार द्वारा किए गए एक सर्वे के मुताबिक पटना की 13 प्रतिशत सड़कें ऐसी हैं, जहां पानी निकासी की कोई सुविधा नहीं है। जो ड्रैनेज सिस्टम हैं भी उसकी क्षमता शहर में प्रतिदिन जमा होने वाले पानी की निकासी भर की है। जाहिर है इसके पास इतनी क्षमता नहीं है कि ये बाढ़ और बारिश के पानी को बाहर निकाल सकें। पटना नगर निगम के मुताबिक शहर में अगर 100 मिली मीटर बारिश हो तो इस पानी को 24 से 48 घंटों में निकाला जा सकता है लेकिन तीन दिनों में पटना में 340 मिली मीटर बारिश हो गई। यही वजह है अब बारिश बंद हो जाने के बावजूद पटना की ज्यादातर सड़कें और कॉलोनियां पानी में डूबी हुईं हैं। हो सकता है कि बारिश न होने की सूरत में दो चार दिनों के भीतर शहर से पानी निकल जाए लेकिन इस पानी ने सत्ता और प्रशासन का जो पानी उतारा है, वह लोगों की जेहन में बना रहेगा। ऐसे में जरूरत है कि काहिल व निकम्मे कर्मचारियों की मुश्कें कसते हुए इस सड़ी गली व्यवस्था को बदलने की पहल हो।