बाबूलाल का सियासी वजूद खतरे में

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सूबे की सियासत में बेदाग़ और बेबाक नेता की छवि वाले बाबूलाल मरांडी आज अपना ही वजूद बचाने के लिए संघर्ष करते दिखाई दे रहे हैं।



रांची, 12 अगस्त (हि.स.)। झारखंड में विधानसभा चुनाव की तैयारी जोर पकड़ रही है। सत्ताधारी दल भाजपा एक्शन में है। दिन रात 65 प्लस के टारगेट पर काम हो रहा है। इन सब के बीच विपक्षी खेमे में गुटबाजी और आपसी खींचतान का दौर जारी है। विपक्षी दल झारखंड विकास मोर्चा में भी भगदड़ मची हुई है। दल में दो नंबर की हैसियत के नेता प्रदीप यादव यौन शोषण का आरोप झेल रहे हैं। इसके बावजूद पार्टी अध्यक्ष बाबूलाल मरांडी पार्टी में जान फूंकने की भरसक कोशिश में जुटे हुए हैं।
सूबे की सियासत में बेदाग़ और बेबाक नेता की छवि वाले बाबूलाल मरांडी आज अपना ही वजूद बचाने के लिए संघर्ष करते दिखाई दे रहे हैं। कभी झारखंड की राजनीति को अपने इशारे पर नचाने वाले बाबूलाल आज दूसरे दलों के नेताओं की ओर टकटकी लगाए हुए हैं। 2000 में जब बिहार से अलग होकर झारखंड के रूप में नए राज्य का गठन हुआ तो सूबे के कई सियासी महारथियों को दरकिनार कर बाबूलाल के हाथों में राज्य की कमान दी गयी लेकिन शीर्ष नेतृत्व की उम्मीदों पर ज्यादा दिनों तक नहीं टिक पाए। अपने स्पष्ट विजन के लिए जाने जानेवाले बाबूलाल डोमिसाइल की पेंच को सुलझाने में असफल रहे और हाथों में आई सत्ता गंवा बैठे। इसके बाद तो किस्मत से सत्ता की कुर्सी ऐसी रूठी कि उनके अपने भी एक-एक कर भाग रहे हैं।
जानकारों की मानें तो वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य में अब बाबूलाल का अकेले चलना उनके बूते की बात नहीं रही। कांग्रेस ने तो खुला ऑफर दे दिया है कि झाविमो का विलय कर दें लेकिन बाबूलाल ऑफर को कुबूल न कर एकला चलो की राह पर चल रहे हैं।
आरएसएस के लिए छोड़ी शिक्षक की नौकरी
बाबूलाल मरांडी का राजनीतिक सफर की शुरुआत विश्व हिंदू परिषद् के झारखंड क्षेत्र के सचिव से हुई। 1983 में वह दुमका चले गए और आरएसएस के लिए काम किया। यहीं से उनका रांची और दिल्ली आना-जाना भी शुरू हो गया। बाबूलाल मरांडी को 1991 में भाजपा ने दुमका से टिकट दिया लेकिन वह इस चुनाव में हार गए। 1996 लोकसभा चुनाव में उनके सामने झारखंड के दिग्गज नेता शिबू सोरेन खड़े थे और इस मुकाबले में बाबूलाल मरांडी को हार मिली, लेकिन हार का अंतर केवल 5 हजार वोट था। इस हार के बावजूद बाबूलाल मरांडी का कद पार्टी में बढ़ गया। उन्हें भाजपा ने झारखंड का अध्यक्ष बना दिया। मरांडी के नेतृत्व में ही भाजपा ने 1998 के लोकसभा चुनावों में झारखंड क्षेत्र की 14 में से 12 लोकसभा सीटों पर जीत हासिल की। उन्होंने संताल समुदाय के ही दूसरे बड़े नेता शिबू सोरेन को भी मात दी। यह उनके राजनीतिक करियर का शीर्ष दौर था। इस जीत के बाद उन्हें केंद्रीय मंत्रिमंडल में भी शामिल किया गया।
राज्य नेतृत्व से मनमुटाव बना अलगाव की वजह
बाबूलाल मरांडी को डोमेसाइल के मुद्दे को लेकर मुख्यमंत्री की गद्दी छोड़नी पड़ी। इसके बाद से उन्होंने राज्य की राजनीति से दूरी बनानी शुरू कर दी। हालांकि एनडीए राज्य में सत्तारूढ़ रही। 2004 के लोकसभा चुनाव में बाबूलाल मरांडी कोडरमा सीट से लड़े। बाबूलाल मरांडी इस चुनाव में झारखंड से जीतने वाले अकेले भाजपा उम्मीदवार थे। 2006 में बाबूलाल मरांडी ने लोकसभा और भाजपा की सदस्यता दोनों से इस्तीफा दे दिया। इसके बाद बाबूलाल मरांडी ने झाविमो का गठन कर लिया। उनके साथ भाजपा के पांच विधायक रवीन्द्र राय, प्रदीप यादव, विष्णु भैया, प्रवीण सिंह, दीपक प्रकाश भी पार्टी में शामिल हुए थे। कोडरमा लोकसभा सीट पर हुए उपचुनाव में वह स्वतंत्र उम्मीदवार के तौर पर लड़े और जीत हासिल की। 2009 के लोकसभा चुनाव में बाबूलाल मरांडी झारखंड विकास मोर्चा के टिकट पर लड़े और जीत हासिल की। हालांकि इसके बाद प्रदीप यादव को छोड़ रवीन्द्र राय, विष्णु भैया, दीपक प्रकाश अपने पुराने घर भाजपा में वापसी कर गये। प्रवीण सिंह भी बाबूलाल का साथ छोड़ जदयू में शामिल हो गए। बाबूलाल के साथ कंधे से कंधे मिलाकर अबतक प्रदीप यादव चलते आ रहे हैं।
बहरहाल, 2014 लोकसभा चुनाव की मोदी लहर में झारखंड विकास मोर्चा एक भी सीट जीतने में असफल रही। जबकि उसने लगभग तमाम सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारे। इस चुनाव में भाजपा ने 14 में से 12 सीटें जीतीं। दुमका लोकसभा सीट पर झामुमो के शिबू सोरेन ने 39030 वोटों से बीजेपी के सुनील सोरेन को करारी शिकस्त दी थी। झाविमो प्रमुख बाबूलाल मरांडी यहां पर तीसरे नंबर पर रहे थे। वहीं, 2014 के विधानसभा चुनाव में बाबूलाल गिरिडीह और धनवार दो सीटों से चुनाव लड़े पर उन्हें करारी हार मिली। इतना ही नहीं इस चुनाव में झाविमो के टिकट पर जीतकर आए आठ विधायकों में से छह विधायकों ने भाजपा में विलय कर लिया।
फिलहाल, झाविमो प्रमुख बाबूलाल मरांडी अस्तित्व संकट से गुजर रहा है। हालांकि कई बार सियासी हलकों में ये चर्चा गरम रही कि बाबूलाल अपने पुराने घर भाजपा में वापस लौट सकते हैं, भाजपा संग नजदीकियों की खबरें खूब सामने आईं लेकिन यह मुकाम तक नहीं पहुंच पाया। बदली राजनीतिक परिस्थिति में बाबूलाल मरांडी ने 2019 लोकसभा चुनाव में विपक्षी महागठबंधन से संपर्क साधा। उन्हें तवज्जो भी खूब मिली। कांग्रेस आलाकमान ने उन्हें हाथों हाथ लिया। लोकसभा चुनाव में उनकी मांग पर कांग्रेस ने अपने वरीय नेताओं की नाराजगी मोल लेते हुए उन्हें दो सीटें दीं। बाबूलाल मरांडी ने खुद कोडरमा से किस्मत आजमाई लेकिन वे बुरी तरह परास्त हुए। यही हाल उनके करीबी प्रदीप यादव का भी हुआ। प्रदीप यादव गोड्डा से चुनाव हार गए। इस दौरान प्रदीप यादव झाविमो की एक महिला नेत्री के यौन शोषण के आरोपों की वजह से उनकी खूब किरकिरी हुई। बदले राजनीतिक हालात में झाविमो का राजनीतिक भविष्य बेहतर नहीं दिख रहा है।
बहरहाल, बाबूलाल मरांडी को उम्मीद थी कि लोकसभा चुनाव में वे बेहतर कर पाएंगे लेकिन मोदी लहर में उनकी हसरत अधूरी रह गई है। ऐसे में बाबूलाल मरांडी के लिए एक बेहतर ठिकाना कांग्रेस भी हो सकता है। राजनीतिक हलके में इसे लेकर अटकलें भी हैं कि भाजपा से बाबूलाल मरांडी काफी दूरी बना चुके हैं। ऐसे में कांग्रेस से उनकी नजदीकी हो सकती है। संभव है कि विधानसभा चुनाव से पहले वे किसी निर्णय पर पहुंचें। फिलहाल वे खुद को लोकसभा चुनाव की करारी हार से उबारने में जुटे हैं। झारखंड विधानसभा चुनाव में अब‍ गिनती के दिन बाकी बचे हैं। सत्ताधारी दल भाजपा तो अपनी तैयारियों को परवान चढ़ाने में शिद्दत से जुटी है। विपक्षी दल लोकसभा चुनाव की करारी हार को परे रखकर एकबार फिर से महागठबंधन बनाने की राह पर हैं लेकिन कांग्रेस, झामुमो, राजद और झाविमो में भी अंदरखाने विरोध के सुर बुलंद हो रहे हैं।

 


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