असम : कोई मायने नहीं विश्वशर्मा को लेकर उठ रहे सवालों के
गुवाहाटी, 09 मई (हि.स.)। असम के नए मुख्यमंत्री के रूप में डॉ. हिमंत विश्वशर्मा के नाम की घोषणा को लेकर कई राजनीतिक सवाल उठ खड़े हुए। पहला यह कि क्या प्रदेश भाजपा मुख्यमंत्री के रूप में डॉ. विश्वशर्मा को स्वीकार करेगी? दूसरा यह कि क्या डॉ. विश्वशर्मा मुख्यमंत्री की कुर्सी को संभालने में सक्षम होंगे? तीसरा यह कि क्या निवर्तमान मुख्यमंत्री सर्वानंद सोनोवाल इसे पचा सकेंगे? एक के बाद एक इस प्रकार के कई सवाल खड़े हो रहे हैं लेकिन सही अर्थों में देखा जाए तो इन सवालों के कोई मायने नहीं हैं।
प्रदेश भाजपा में आज की तारीख में सबसे बड़े नेता के रूप में डॉ. विश्वशर्मा की गिनती होती है। डॉ विश्वशर्मा ने न सिर्फ प्रदेश भाजपा के लिए बीते पांच वर्षों में निष्ठापूर्वक कार्य किया, बल्कि पार्टी के सामने आये हर संकट का उन्होंने सीधे-सीधे मुकाबला किया। इस दरम्यान जितने भी चुनाव आए सभी चुनाव के लिए आर्थिक से लेकर तमाम प्रबंधन का कार्य डॉ. विश्वशर्मा ने ही किया। यही वजह है कि आज वे प्रदेश भाजपा में एक सर्वमान्य नेता के रूप में स्थापित हो चुके हैं। चाहे वह प्रदेश अध्यक्ष रंजीत कुमार दास हों या फिर राष्ट्रीय महासचिव दिलीप सैकिया; डॉ विश्वशर्मा के लिए सभी के मन में आदर है।
जहां तक मुख्यमंत्री के रूप में राज्य को संभालने की बात है तो यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि बीते 20 वर्षों से डॉ. विश्वशर्मा असम के सुपर सीएम के रूप में काम करते रहे हैं। चाहे वह मुख्यमंत्री तरुण गोगोई के 15 वर्ष का कार्यकाल हो या फिर सर्वानंद सोनोवाल के पांच वर्ष का- हर कार्यकाल में मुख्यमंत्री से ऊपर उठकर डॉ. विश्वशर्मा कार्य करते रहे हैं। हर कठिन मौके पर उन्होंने मुख्यमंत्री से भी अधिक बढ़ चढ़कर सरकार के लिए संजीवनी का कार्य किया। इसे न सिर्फ असम और पूर्वोत्तर, बल्कि पूरे देश की जनता ने खुली आंखों से देखा है। आज पूरे देश में यदि पूर्वोत्तर के किसी एक भाजपा नेता का नाम लेने की बात आती है तो वहां डॉ. विश्वशर्मा का नाम प्रमुखता से लिया जाता है। डॉ. विश्वशर्मा की छवि इन 20 वर्षों में काफी प्रखर होती रही। यही वजह है कि चाहे वह हिमंत के समर्थक हों या विरोधी- उनकी कर्मठता और क्षमताओं को लेकर उंगली उठाने का सामर्थ्य किसी में नहीं है। आज भले ही उनको भाजपा विधायक दल का नेता चुना गया है लेकिन वे हमेशा ही पूर्वोत्तर के बेताज बादशाह 20 वर्षों से बने रहे हैं।
तीसरा सवाल यह कि क्या सर्वानंद सोनोवाल हिमंत को मुख्यमंत्री के रूप में बर्दाश्त कर सकेंगे? सही मामले में देखा जाए तो इस सवाल का कोई अर्थ अब नहीं रह गया है। खासकर जिस प्रकार चुनाव के मौके पर सोनोवाल को मुख्यमंत्री के उम्मीदवार के रूप में घोषित नहीं किया गया, वहीं हिमंत के नए मुख्यमंत्री बनने की संभावना प्रबल हो गई थी। दूसरा यह कि चाहे वह पार्टी के लिए नीति निर्धारण का मुद्दा हो या फिर चुनाव में भाजपा का टिकट देने का- हर मुद्दे पर हिमंत को सोनोवाल के मुकाबले तरजीह दी गई। तीसरी बात यह कि सोनोवाल का व्यक्तित्व सौम्य और गंभीर है। उनसे किसी भी प्रकार की ओछी हरकत किए जाने की आशा नहीं की जाती है।
किसी भी मौके पर पहले भी सोनोवाल ने हिमंत के सामने अपना मुख्यमंत्री का तेवर दिखाने की कोशिश नहीं की। हर मौके पर उन्होंने हिमंत को काम करने की छूट दी। वहीं, भाजपा में सोनोवाल जैसे नेताओं के लिए पद की कोई कमी नहीं है। वह पहले भी खेल और युवा मामलों के केंद्रीय मंत्री थे। फिर से उन्हें केंद्र में मंत्री बनाया सकता है। भाजपा किसी भी तरह से सर्वानंद की ओर से विद्रोह को लेकर निश्चिंत है।
विश्वशर्मा के मुख्यमंत्री बनाए जाने का फैसला एक प्रकार से भाजपा का सर्वसम्मति फैसला है। इतना अवश्य है कि यह फैसला शनिवार को ही दिल्ली में ले लिया गया था, लेकिन पार्टी हाईकमान अपना निर्णय प्रदेश भाजपा तथा अपने विधायकों पर नहीं थोपना चाहता था। यही वजह है कि औपचारिक रूप से न सिर्फ विधायक दल, बल्कि गंठबंधन के घटक दल के विधायकों की भी बैठक बुलाई गई।
बैठक में निवर्तमान मुख्यमंत्री सोनोवाल के द्वारा ही डॉ. विश्वशर्मा के नाम का प्रस्ताव विधायक दल के नेता के रूप में रखा गया। जिसपर ध्वनिमत से विधायकों ने मुहर लगा दी। डॉ. विश्वशर्मा को मुख्यमंत्री बनाए जाने की घोषणा के बाद जिस प्रकार प्रदेश भाजपा और इसके विधायकों के बीच जश्न का माहौल है, उससे साफ होता है कि कहीं से भी विरोध के कोई स्वर नहीं उठने जा रहे हैं। फिर भी भाजपा को सतर्क रहने की जरूरत है, क्योंकि विपक्ष मजबूत और एकजुट है। ऐसे में भाजपा की सरकार को चित करने का कोई भी मौका विपक्ष छोड़ने वाला नहीं है।