जम्मू कश्मीर में आतंक को पूरी तरह से समाप्त करने के लिए केन्द्र सरकार द्वारा सेना भेजने का जिस प्रकार से पूर्व मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती ने विरोध किया है, वह उचित नहीं कहा जा सकता। उनका कहना है कि अगर किसी ने भी धारा 35ए को छुआ तो वह राख हो जाएगा। महबूबा का इस प्रकार का बयान आतंकियों को संबल देने जैसा कृत्य ही माना जा रहा है। वास्तविकता यह भी है कि महबूबा के परिवार ने भी आतंकवाद की त्रासदी को भोगा है। महबूबा के पिता मुफ्ती मोहम्मद सईद 1989 में जब गृहमंत्री थे, तब खूंखार आतंकियों ने महबूबा की छोटी बहन डॉ. रुबिया सईद का अपहरण कर लिया था। इसके बाद भारत सरकार ने पांच आतंकियों को मुक्त किया था, तब रुबिया को छुड़ाया गया। इसके बाद भी महबूबा द्वारा आतंकियों का विरोध न करना क्या प्रदर्शित करता है?
पूर्व मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती ने इस प्रकार का बयान कोई पहली बार नहीं दिया है। इससे पूर्व भी वे इस प्रकार के बयान देती रही हैं। उन्होंने सेना पर पत्थरबाजी करने वाले पाकिस्तान परस्त आतंकियों का समर्थन करने वाली भाषा का प्रयोग किया है। यह समझ में नहीं आता कि जिसकी बहन का आतंकियों ने अपहरण किया, वह क्यों और किसके संकेत पर ऐसी भाषा बोल रही हैं कि देश का माहौल खराब हो जाए। इसके पीछे केवल वोट चाहने की राजनीति हो सकती है। सत्ता की चाह में अपने दर्द को भूल जाने वाली महबूबा मुफ्ती को आज कश्मीर का दर्द दिखाई नहीं देता। यहां तक कि जम्मू कश्मीर में एक बार उनकी सरकार रही और तीन बार उनके पिता मुख्यमंत्री रहे, उस समय भी उनकी सरकार ने ऐसा कोई कार्य नहीं किया, जो आतंक की समाप्ति करने वाला कहा जा सकता है। मुफ्ती मोहम्मद सईद के गृहमंत्री रहते हुए कश्मीर से हिन्दुओं को पलायन करने को मजबूर किया गया। उसके बाद कश्मीर में आतंकियों की बढ़ती सक्रियता के चलते पूरी घाटी हिन्दूविहीन हो गई। हिन्दुओं को अपने देश में ही विस्थापित होना पड़ा। उसके बाद घाटी के हालत और ज्यादा खराब होते चले गए।
माना जाता है कि डॉ. रुबिया सईद के अपहरण पर देश की सरकार आतंकियों के सामने नहीं झुकती तो कश्मीर के हालात इतने खराब नहीं होते। इसे मुफ्ती मोहम्मद सईद के राजनीतिक जीवन का काला अध्याय भी कहा जाता है। हालांकि रुबिया को जिस प्रकार से नाटकीय अंदाज में आतंकियों ने रिहा किया, वह साजिश भी हो सकती है। इस पर देश के बुद्धिजीवियों ने कई प्रकार के सवाल उठाए थे। इन सवालों में कहा गया था कि आतंकियों ने रुबिया को कोई नुकसान नहीं पहुंचाया और उसे बहुत ही अपनेपन से रखा। अगर यह सच है तो यह कहना उपयुक्त होगा कि महबूबा मुफ्ती के परिवार की मिलीभगत से आतंकियों को छुड़ाने के लिए ही अपहरण का पूरा खेल रचा गया था। हालांकि इस बात की कोई प्रामाणिक जानकारी नहीं है। लेकिन महबूबा मुफ्ती द्वारा जो बयान दिए जा रहे हैं, उनसे यह तो लगने लगा है कि उनकी राजनीति कश्मीर में शांति स्थापित करने के प्रयासों में बाधा खड़ी करने वाली ही है।
यहां एक और गंभीर सवाल यह भी है कि अपने पति से अलग जीवन जीने वाली महबूबा मुफ्ती की दो बेटियां हैं। बड़ी बेटी इल्तिजा लंदन में भारतीय उच्चायोग में अधिकारी हैं और छोटी बेटी फिल्मी दुनिया में पैर जमाने के लिए संघर्ष कर रही हैं। भारतीय उच्चायोग में सेवाएं देने वाली उनकी बेटी को देश के बारे में गंभीर जानकारी रहती ही होगी। ऐसे में उन पर निगरानी रखना आवश्यक है। क्योंकि महबूबा मुफ्ती के बयानों से हमेशा ऐसा ही लगता है कि वे आतंकियों के समर्थन में बयान दे रही हैं। ताजा बयान के भी यही निहितार्थ निकाले जा रहे हैं।
राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल के कश्मीर दौरे के बाद केन्द्र की सरकार ने राज्य में शांति स्थापना के लिए दस हजार और सुरक्षा कर्मियों की तैनाती कर दी। राज्य की पूर्व मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती ने इस निर्णय को गैरजरूरी व कश्मीर मसले के हल की दिशा में आप्रसंगिक बताया है। हैरत की बात है कि जम्मू कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री फारुख अब्दुल्ला भी इस मसले पर महबूबा के सुर में सुर मिलाते जा रहे हैं। हालांकि यह सही है कि जब से प्रदेश में राज्यपाल शासन लगा है, तब से आतंकी गतिविधियों में बड़ी कमी आई है। कई बड़े आतंकी मारे जा चुके हैं, कुछ मारे जा रहे हैं। सेना की तैनाती का व्यापक प्रभाव भी पड़ा है। राज्य में फिलहाल अमरनाथ यात्रा चल रही है। खुफिया इनपुट है कि आतंकी अमरनाथ यात्रियों को निशाना बना सकते हैं। इसलिए घाटी में सेना की संख्या बढ़ाना इसी रणनीति का हिस्सा माना जा रहा है। यह बात भी सही है कि शांति स्थापना के लिए जब सभी प्रयास असफल हो जाएं, तो कठोरता ही एक मात्र हल होता है और केन्द्र सरकार ने यही किया है।