प्रवासियों के दर्द कर रहे बड़े सवाल, क्या लोकल को वोकल बना पाएगा बिहार?
बेगूसराय, 25 मई (हि.स.)। वैश्विक महामारी कोरोना के इस दौर में सरकार से सहारा नहीं मिलने के कारण सड़क पर अपनी अनंत यात्रा के लिए बदहवाश चलती बेबश व लाचार जिंदगियां किसी भी मानवीय संवेदनाओं को झकझोर देने के लिए काफी हैं। इनके लिए सिर्फ आह भरने के अलावा और कोई विकल्प नहीं बचा है। भूख से बिलबिलाते अपने गांव पहुंचने की आस लिए हजारों किलोमीटर पैदल यात्रा पर निकले मजदूरों की रास्ते में ही कुचलकर-कटकर मौत के आगोश में चले जाने के बाद भी क्या सिस्टम जगा है। वैसे तो आपदा बताकर नहीं आती लेकिन भविष्य में त्रासदी की ऐसी घड़ी आती है तो देश में में ऐसा मंजर फिर कभी ना दिखे इसके लिए मंथन शुरू हो गई है क्या? भविष्य में ऐसी ही विषम परिस्थितियों में प्रवासियों को सड़कों पर इस तरह की दशा भुगतनी ना पड़े, इसके लिए विकल्पों को तलाशने का काम शुरू हो गया है क्या? कोरोना से सबक लेते हुए ऐसे कुछ ज्वलंत सवाल ऊपज रहे हैं जिनके उत्तर अविलम्व ढूंढ लेने जरूरी हैं।
सामाजिक कार्यकर्ता मुकेश विक्रम कहते हैं यह साबित हो गया कि देश के बड़े-बड़े शहर ऐसी आपदा की घड़ी में प्रवासी मेहनतकश मजदूरों को संरक्षण देने में अपने हाथ खड़े कर देंगे। बड़ा सवाल यह है कि अगर वापस आए मजदूर भविष्य में उन शहरों का हमेशा के लिए परित्याग कर दें, जिसने उन्हें बुरी परिस्थिति में धोखा दिया है, तो क्या इन्हें अपने ही राज्यों में उनके हुनर के अनुसार काम मिल सकेगा? क्या सरकारें संक्रमण के इस दौर में सभी के लिए काम की ठोस योजना पर काम कर रही है या फिर उन्हें कुछ दिनों तक एकांतवास में रखने तक ही अपनी जिम्मेदारी निभाएगी? क्या बिहार जैसे उद्योगविहीन राज्य विभिन्न प्रदेशों से पलायन कर हर रोज आ रहे लाखों प्रवासियों को (अधिकतर हमेशा के लिए आ रहे हैं) अपने लिए चुनौती या अवसर समझेगी। यह महामारी सभी के लिए अभिशाप है लेकिन इसके बावजूद यह भी निश्चित सत्य है कि इस बार कोरोना वायरस ने बिहार जैसे पिछड़े राज्य को खड़ा होने एवं विकास की प्रक्रिया में तेजी से आगे बढ़ने का अनजाने ही एक अवसर उपलब्ध कराया है कि उसके हुनरमंद संतानों की घर वापसी हो रही है।
इन हालातों के बीच सरकार अगर बिहार में ही काम देने के प्रति गंभीर होती है तो यह बिहार का सौभाग्य होगा। दो पैसे कम मजदूरी में भी लाखों कामगार अपने घर-परिवार के साथ खुशी-खुशी प्रदेश की प्रगति में सहभागी भी बन सकेंगे। ऐसे में सवाल उठता है कि क्या बिहार जैसा प्रदेश भी कभी आत्मर्निभर बनेगा? क्या बिहार भी दूसरे राज्यों से आ रहे अपने लाखों लोकल्स को वोकल बना पाएगा? या यूं ही सब चलता रहेगा और हुनरमंद लोगों को दर-दर की ठोकरें खाने के लिए उन्हीं के हाल पर छोड़ने वाले हैं, जो देश के विभिन्न राज्यों को समृद्ध बनाकर लौटे है या लौट रहे हैं? मुम्बई से वापस गांव लौटकर एकांतवास कर रहे एक प्रवासी ने अपना नाम बताए बगैर कहा कि भारत की करीब तमाम फैक्टरी हम बिहारी ही चलाते हैं। मानव संसाधन से भरपूर है हमारा राज्य, जमीन भी है हमारे पास। बाजार बनाया जाता है, तो फिर उद्योग क्यों नहीं, कमी कहाँ है। आर्थिक सहयोग क्या सिर्फ बड़े उद्योगपति के लिए है, हमारे लिए क्यों नहीं। सरकार सिर्फ थोड़ा ध्यान दे तो सभी उद्योग हमारे यहां भी लगाये जा सकते हैं।