धार्मिक स्वतंत्रता पर अमेरिकी रिपोर्ट में मजहबी खोट

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नई दिल्‍ली, 27 जून (हि.स.)। अमेरिकी विदेश मंत्रालय ने हाल ही में भारत के विरुद्ध ‘इंडिया 2018 इंटरनेशनल रिलीजियस फ्रीडम रिपोर्ट’ जारी की है। उसके आधार पर विपक्ष हमारे देश की सरकार को घेरने में जुटा है। इस रिपोर्ट में कहा गया है कि पिछले कुछ वर्षों के दौरान भारत में गोरक्षा के बहाने हिंदू संगठनों द्वारा गैर-हिन्दू समुदाय के लोगों पर हमले किये जाते रहे हैं। सन 2017 में ऐसी 822 घटनाओं में 111 लोगों की जान चली गई और 2384 लोग जख्मी हुए। रिपोर्ट में गृह विभाग के हवाले से अमेरिकी विदेश मंत्री माइक पोम्पियो ने कहा है कि वर्ष 2015 से 2017 के बीच भारत में साम्प्रदायिक घटनाएं 9 प्रतिशत बढ़ गई हैं।
रिपोर्ट में यह भी दर्ज है कि भारत के 24 राज्यों में गो-वध प्रतिबंधित कर दी गई। गोवध पर 6 महीने से लेकर दो साल की सजा और जुर्माने का प्रावधान कर दिया गया है। इससे मुस्लिम समुदाय सबसे ज्यादा प्रभावित हुआ है। इसके अलावा अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लोगों पर भी विपरीत असर पड़ा है। धर्म के नाम पर हत्याओं, हमले, दंगों और भेदभाव से लोगों की धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंची है। इस रिपोर्ट में जम्मू-कश्मीर के कठुआ में 8 साल की मुस्लिम लड़की के साथ हुए दुष्कर्म एवं उसकी हत्या के मामले का जिक्र है। उसके आधार पर यह भी कहा गया है कि अल्पसंख्यकों के खिलाफ अपराधों में पुलिस व सरकारी कर्मचारी भी शामिल थे। उस वारदात का मकसद मुस्लिम समुदाय को इलाके से भगाना था। लेकिन मुस्लिम समुदाय के लोगों द्वारा हिन्दू लड़कियों का बलात्कार किये जाने की चर्चा तक नहीं है। रिपोर्ट में भाजपा के कुछ नेताओं पर अल्पसंख्यक समुदायों के खिलाफ भड़काऊ भाषण देने का आरोप लगाया गया है, जबकि ओवैसी जैसे मुस्लिम नेताओं के जहरीले भाषणों को नजरंदाज कर दिया गया है। रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि कट्टरपंथी हिंदू समूहों की तरफ से अल्पसंख्यक समुदायों, खासतौर पर मुस्लिमों के खिलाफ लगातार हिंसक हमले किए गए और धर्म-परिवर्तन के विरुद्ध हिंसा को अंजाम दिया गया। रिपोर्ट में कतिपय शैक्षणिक संस्थानों के अल्पसंख्यक दर्जे को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दिए जाने के सरकारी फैसले को भी अनुचित बताया गया है और इलाहाबाद शहर का नाम  ‘प्रयागराज’ कर दिए जाने की भी आलोचना की गई है।
मालूम हो कि अमेरिकी शासन का विदेश मंत्रालय वहां के जिस कानून के तहत भारत के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप कर रहा है, उसका एक मजहबी रहस्य है। इसके तहत वह कहने को तो धार्मिक स्वतंत्रता की वकालत करता है, किन्तु सच यह है कि प्रकारान्तर में वह पैगम्बरवाद से मुक्त सनातनधर्मियों के धर्मान्तरण की वकालत करता है और इस हेतु ‘ईसाई-क्रूसेड’ व ‘इस्लामी जेहाद’ को सहयोग प्रदान करता है, क्योंकि दोनों पैगम्बरवादी मजहब हैं, जबकि हिन्दू समाज मजहबी नहीं है। यही कारण है कि पाकिस्तान-बांग्लादेश एवं कश्मीर घाटी में जहां शासनिक सहयोग से मुसलमानों द्वारा हिन्दुओं का धर्मान्तरण-उन्मूलन किया जाता रहा है, वहां इसे धार्मिक स्वतंत्रता का हनन दिखाई देता ही नहीं है। ‘अंतरराष्ट्रीय धार्मिक स्वतंत्रता अधिनियम’ वस्तुतः वेटिकन सिटी (ईसाई मजहब के वैश्विक-प्रधान का सम्प्रभुता-सम्पन्न राज्य) से निर्देशित विभिन्न चर्च मिशनरी धर्मान्तरणकारी संस्थाओं यथा- वर्ल्ड विजन, क्रिश्चियनिटी टुडे इण्टरनेशनल, क्रिश्चियन कम्युनिटी डेवलपमेण्ट एसोसिएशन, वर्ल्ड इवैंजेलिकल एलायन्स, फ्रीडम हाउस, नेशनल बैपटिस्ट कॉन्वेंशन आदि के द्वारा तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन पर दिए गए दबाव से सन 1998 में पारित हुआ एक ऐसा कानून है, जो अघोषित रुप से दुनियाभर के तमाम देशों में धार्मिक स्वतंत्रता की निगरानी के बाबत प्रयुक्त होता है। दुनिया के विभिन्न देशों में धार्मिक स्वतंत्रता की निगरानी के लिए अमेरिकी शासन अपने इस कानून के तहत विदेश मंत्रालय में सर्वोच्च स्तर के राजदूत और मंत्रिमण्डल व ह्वाइट हाउस को सलाह देने हेतु विशेष सलाहकार नियुक्त कर रखा है। इतना ही नहीं, धार्मिक स्वतंत्रता-विषयक मामलों की सुनवाई के लिए उसने ‘यूएस कमिशन फॉर रिलीजियस फ्रीडम’ नामक एक ऐसा आयोग भी स्थापित कर रखा है, जिसका कार्यक्षेत्र सम्पूर्ण विश्व है। पैगम्बरवाद से मुक्त मूर्तिपूजक हिन्दू समाज व सनातनधर्मी भारत राष्ट्र इसके मुख्य निशाने पर है। अमेरिकी शासन के इस कानून की आड़ में चर्च-मिशनरी-संगठन तथा ऑल इण्डिया क्रिश्चियन काउंसिल, फ्रीडम हाउस व दलित फ्रीडम नेटवर्क आदि एनजीओ अपने भारतीय अभिकर्ताओं-कार्यकर्ताओं एवं भाड़े के बुद्धिजीवियों-मीडियाकर्मियों के माध्यम से हिन्दुओं को आक्रामक-हिंसक प्रचारित करते हुए उनकी तथाकथित अक्रामकता व हिंसा के कारण मुसलमानों-ईसाइयों की कथित प्रताड़ना सम्बन्धी मामले रच-गढ़कर उक्त अमेरिकी आयोग में दर्ज कराते रहते हैं, जो विभिन्न गवाहों, साक्ष्यों व सूचनाओं के आधार पर उन मामलों की सुनवाई कर अमेरिकी राष्ट्रपति को हस्तक्षेप करने एवं तदनुसार वैदेशिक नीतियों के निर्धारण-क्रियान्वयन की सिफारिशें पेश करता है।
उल्लेखनीय है कि ‘यूएस कमिशन फॉर आईआरएफ’ द्वारा सन 2000 में ह्वाइट हाउस को  ऐसी ही रिपोर्ट पेश की गई थी, जिसमें  धर्मान्तरित बंगाली हिन्दुओं के प्रत्यावर्तन (धर्मवापसी) को नहीं रोक पाने पर पश्चिम बंगाल की तत्कालीन माकपा सरकार के विरुद्ध शिकायतें दर्ज की गई थीं और उन ईसाइयों की धर्मवापसी को ‘अंधकार में पुनः-प्रवेश’ कहते हुए उस पर चिन्ता जाहिर की गई थी। गौरतलब है कि सन 2004 में धार्मिक स्वतंत्रता विषयक इसी तरह की रिपोर्ट के परिणामस्वरुप अमेरिकी कांग्रेस के चार सदस्यीय प्रतिनिधिमण्डल ने भारत का दौरा किया था। उसके अध्यक्ष जोजेफ पिट्स ने तब धर्मान्तरण रोकने सम्बन्धी भारतीय कानूनों की आलोचना करते हुए कहा था कि इनसे मानवाधिकारों व धार्मिक स्वतंत्रताओं का हनन होता है। इतना ही नहीं, सन 2009 में तो इस अमेरिकी आयोग ने भारत को धार्मिक स्वतंत्रता-सम्बन्धी विशेष चिन्ताजनक देशों की सूची में अफगानिस्तान के साथ शामिल कर रखा था। अल्पसंख्यकों के तुष्टिकरण को लेकर बदनाम रही कांग्रेस के शासनकाल में इस अमेरिकी अधिनियम का जब यह रवैया था, तब अब तथाकथित हिन्दूनिष्ठ भाजपा के शासन में ‘धार्मिक स्वतंत्रता’ पर अमेरिकी विदेश मंत्रालय की उपरोक्त रिपोर्ट का भारत-विरोधी होना स्वाभाविक है।
अमेरिकी शासन का अंतरराष्ट्रीय धार्मिक स्वतंत्रता अधिनियम दरअसल सनातन धर्म से हिन्दुओं के जुड़े रहने को ‘गुलामी’ व धर्मान्तरित होकर ईसाई या मुस्लिम बन जाने को ‘मुक्ति’ मानता है। इसी आधार पर उसका विदेश मंत्रालय हर वर्ष धार्मिक स्वतंत्रता विषयक रिपोर्ट पेश करता है।
जाहिर है, धार्मिक स्वतंत्रता की अमेरिकी परिभाषा में मजहबी खोट ही खोट है। गैर-मजहबियों का धर्मान्तरण ही उसकी नीति व नीयत है। जबकि, धर्मान्तरण में ‘रोक-टोक’ ही धार्मिक स्वतंत्रता का हनन है।

 


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