गरीबों को आवास मुहैया कराना सरकार का संवैधानिक दायित्व : इलाहाबाद हाईकोर्ट

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कोर्ट ने कहा है कि आवास का अधिकार केवल जीवन का संरक्षण ही नहीं है अपितु घर शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक एवं धार्मिक विकास के लिए जरूरी है। आवास सभी मूलभूत सुविधाओं के साथ होना चाहिए।



प्रयागराज, 04 जुलाई (हि.स.)। इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने गुरुवार को अपने महत्वपूर्ण फैसले में कहा है कि संविधान के अनुच्छेद 19 (1) (इ) के तहत आश्रय का अधिकार मूल अधिकार है जिसमें अनुच्छेद 21 के जीवन के अधिकार के तहत आवास का अधिकार भी शामिल है। इसलिए सरकार का संवैधानिक दायित्व है कि वह गरीबों को आवास मुहैया कराए।
कोर्ट ने कहा है कि आवास का अधिकार केवल जीवन का संरक्षण ही नहीं है अपितु घर शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक एवं धार्मिक विकास के लिए जरूरी है। आवास सभी मूलभूत सुविधाओं के साथ होना चाहिए। कोर्ट ने कहा कि दलित व आदिवासियों को देश की मुख्य धारा में शामिल करने के लिए आवश्यक है कि राज्य उन्हें आवासीय सुविधाएं उपलब्ध कराए। सामाजिक व आर्थिक न्याय के लिए सरकार कमजोर लोगों को सुविधाएं दे। कोर्ट ने 1995 से पट्टे पर आवंटित भूमि से पिछड़े वर्ग के श्रमिकों की बेदखली का आदेश देने से इंकार करते हुए कहा कि यदि शासन उन्हें हटाना ही चाहता है तो वैकल्पिक आवास देने के बाद हटाये। कोर्ट ने बलिया की रसड़ा तहसील के पखनपुरा गांव के श्रमिकों की बेदखली की मांग में दाखिल याचिका को जनहित याचिका के बजाय व्यक्तिगत हित की याचिका माना और इसे न्यायिक प्रक्रिया का दुरूपयोग करार देते हुए 10 हजार रुपये का हर्जाना लगाने के साथ याचिका खारिज कर दी है।
न्यायमूर्ति एस.पी केशरवानी ने राजेश यादव की जनहित याचिका को खारिज करते हुए कहा कि पारम्परिक रूप से रोटी, कपड़ा और मकान व्यक्ति की मूलभूत आवश्यकता मानी गई है। इसलिए राज्य शासन का दायित्व है कि वह उचित कीमत पर गरीबों को आवास दे। कोर्ट ने स्पष्ट किया है कि किसी भी व्यक्ति को सार्वजनिक उपयोग की भूमि का अतिक्रमण करने का अधिकार नहीं है।
दरअसल बलिया की रसड़ा तहसील के पखनपुरा गांव में एसडीएम ने खलिहान, खाद का गड्ढा व खेल के मैदान की भूमि को दूसरे स्थान पर शिफ्ट करके सार्वजनिक उपयोग की खाली जमीन को बंजर दर्ज कर दिया। इसके बाद ग्राम प्रधान के प्रस्ताव पर पिछड़े वर्ग के 5 भूमिहीन कृषि मजदूरों को 1995 में आवासीय पट्टा दिया गया जिस पर वे मकान बनाकर रह रहे हैं। आबादी से पहले सार्वजनिक भूमि होने के आधार पर पट्टे की वैधता पर आपत्ति की गयी तो 12 साल बाद एसडीएम ने पट्टा रद्द कर दिया। जमीन खाली न होने पर यह याचिका दाखिल की गयी और निवासियों की बेदखली के लिए समादेश जारी करने की मांग की गयी थी।

 


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