आदि गुरु ‘लाहिड़ी महाशय’ क्रिया-योग के
नई दिल्ली, 15 जून (हि.स)। श्यामाचरण लाहिड़ी एक उच्च कोटि के साधक थे। कहते हैं- ‘होनहार विरवान के होत चीकने पात’ यह कहावत उन पर ठीक बैठती है। वे बचपन से ही अपनी प्रतिभा का परिचय देने लगे थे।
रेलवे की नौकरी के दौरान वे दानापुर से बदली होकर रानीखेत पहुंचे थे। वहीं एक शाम श्यामाचरण लाहिड़ी भ्रमण के लिए निकले तो द्रोणगिरि नामक पर्वत गुरु से भेंट हुई। गुरु ने श्यामाचरण का स्वयं से परिचय कराया। उन्हें दीक्षित किया। फिर गृहस्थ आश्रम में रहते हुए जन-कल्याण कार्य के लिए प्रेरित किया।
गुरु ने उनसे कहा- “आगे चलकर अनेक लोग तुमसे दीक्षा ग्रहण करेंगे। तुम्हें देखकर लोग यह जान सकेंगे कि उच्चस्तर की साधना से गृहस्थ भी लाभ उठा सकते हैं। तुम्हें गृहस्थी से अलग होने की आवश्यकता नहीं है।”
रानीखेत की उस घटना के बाद श्यामाचरण लाहिड़ी में अभूतपूर्व परिवर्तन आया। वे कर्मक्षेत्र की ओर लौटे। वहां वे लाहिड़ी महाशय के नाम से प्रसिद्ध हुए। गुरु के आदेश पर अपने शिष्यों को क्रिया-योग की शिक्षा देते। हालांकि, तब इस बात का पूरा ध्यान रखते थे कि कौन कितनी पात्रता रखता है। इसकी शिक्षा वे कई चरणों में देते थे।
कहते हैं क्रिया-योग एक सरल मन:कायिक प्रणाली है, जिसके द्वारा मानव-रक्त कार्बन से रहित तथा ऑक्सीजन से प्रपूरित हो जाता है। इस अतिरिक्त ऑक्सीजन से अणु जीवन-प्रवाह में रूपांतरित होकर मस्तिष्क और मेरुदंड के चक्रों को नवशक्ति से पुन: पूरित कर देते हैं। कुल मिलाकर क्रिया-योग एक सुप्राचीन विज्ञान है।
क्रिया-योग के संबंध में लाहिड़ी महाशय के गुरु ने कहा था कि 19वीं शताब्दी में जिस क्रिया-योग को मैं तुम्हारे जरिए विश्व को दे रहा हूं, वह उसी विज्ञान का पुनरुज्जीवन है, जिसे सहस्त्राब्दियों पहले भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को प्रदान किया था। बाद में जिसका ज्ञान पतंजलि समेत कुछ शिष्यों को प्राप्त हुआ था।
लाहिड़ी महाशय एक ओर आयोग्य पात्रों से परहेज किया। वहीं दूसरी ओर योग्य पात्रों को अपने यहां क्रिया-योग के माध्यम से आकर्षित कर बुला लेते थे। क्रिया-योग से उनका परिचय कराते थे। इस तरह अपने गुरु के आदेश का पालन किया। लाहिड़ी महाशय केवल पुस्तकीय ज्ञान नहीं रखते थे, बल्कि वे चिंतन और तत्वज्ञान के झरने थे।
उनका कहना था कि ईश्वर की उपस्थिति का विश्वास ध्यान में रखते हुए अपने आनंददायक संपर्क से उन्हें जीतो। अगर तुम्हारी कोई समस्या हो तो क्रियायोग से हल करो। क्रिया-योग द्वारा तुम मुक्ति-पथ पर अनवरत रूप से आगे बढ़ते जाओ, क्योंकि इसकी शक्ति इसके अभ्यास पर निर्भर है। अग्नि के द्वारा जिस प्रकार धातु शुद्ध होता है, ठीक उसी प्रकार प्राणायाम से इंद्रियों की शुद्धि होती है।
लाहिड़ी महाशय का जन्म बंगाल के नदिया जिले में स्थित धरणी नामक गांव में 30 सितंबर, 1828 को हुआ था। उनकी प्रारंभिक शिक्षा काशी में हुई। बंगला, संस्कृत के अतिरिक्त उन्होंने अंग्रेजी का भी ज्ञान प्राप्त किया। जीविकोपार्जन के लिए छोटी उम्र में ही सरकारी नौकरी में लग गए। लेकिन गुरु से भेंट ने उनके जीवन को बदल दिया।
उन्होंने वेदांत, सांख्य, वैशेषिक, योगदर्शन और अनेक संहिताओं की व्याख्या की। इनकी योग प्रणाली की सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि गृहस्थ मनुष्य भी योगाभ्यास द्वारा चिर शांति प्राप्त कर योग के उच्चतम शिखर पर आरूढ़ हो सकता है। 26 सितंबर 1895 को लाहिड़ी महाशय ने अपना शरीर त्याग दिया।