आर.के. सिन्हा…. देवकांत बरूआ जैसी चाटुकारिता करते शशि थरूर
चाटुकारिता और चमचागिरी की भी हद होती है। कांग्रेस के वरिष्ठ नेता शशि थरूर ने तो शब्दकोश में लिखीं सारी हदें तक पार कर दी हैं।पुराने ज़माने में राजाओं के यहॉं “भॉट” रहा करते थे। वे होते तो थे वैसे आशुकवि क़िस्म के बुद्धिमान इन्सान , पर उनका काम होता था रोज़ सुबह राजा जब सिंहासन पर विराजमान हों, राजा की स्तुति गान मे नई- नई रचनाओं का पाठ या गान करना। उसे चारण पाठ भी कहते थे। शशि थरूर भी उच्च कोटि के विद्वान और समझदार पढ़े लिखे इन्सान हैं। पर वे कब से भॉटगिरी करने लगे, चारणपाठ करने की क्या मजबूरी आ गई उनके लिए, मैं समझ नहीं पा रहा।
मैं शशि के पूरे परिवार को पॉंच दशक से ज़्यादा समय से जानता हूँ । सत्तर के दशक में जब शशि के पिता चन्द्रन थरूर दैनिक स्टेट्समैन में ऊंचे पद पर थे, तब से मैं उन्हें जानता था। जब बांग्लादेश युद्ध के जोखिम भरे असाइनमेंट के बाद मैं कोलकाता लौटा था, तब चन्द्रन ने मेरे लिए बंगाल क्लब में एक डिनर पार्टी दी थी, जिसमें अनेकों वरिष्ठ पत्रकार भी शामिल हुए थे। ऐसे लोगों में बाद के राज्यपाल विष्णुकॉंत शास्त्री, स्टेट्समैन के मानस घोष, यू. एन. आई. के ब्यूरो चीफ़ राजेन्द्र सिंघल, आनन्द बाज़ार पत्रिका के रथीन्द्र बन्धोपाध्याय समेत दर्जनों लोग शामिल थे। चन्द्रन जब भी पटना आते थे वे मेरे पास ही आते थे और जब कभी भी मैं कलकत्ता जाता, उनके घर जरूर जाता था। शशि की माताजी तरह- तरह के व्यंजन बनातीं और मैं और चन्द्रन बालकनी में बैठे सामने के ख़ूबसूरत बाग़ों को निहारते रहते।
बाद में अस्सी के दशक में जब चन्द्रन के बड़े भाई और शशि के ताऊ जी पी. परमेश्वरन “ रीडर्स डाइजेस्ट” से रिटटयर हुए, तब चन्द्रन थरूर “ रीडर्स डाइजेस्ट “ के मैनेजिंग एडिटर होकर मुंबई आ गये थे। तब मैं जे. पी. आन्दोलन में सक्रियता की वजह से हिन्दुस्तान टाइम्स ग्रुप के दैनिक “सर्चलाइट” और “ प्रदीप” ( अब हिन्दुस्तान टाइम्स” और “ दैनिक हिन्दुस्तान” पटना संस्करण) से निकाल दिया गया। तब मैं “ धर्मयुग” मुंबई के लिये नियमित लिखने लगा। तब मेरे भी मुंबई के हर महीने चक्कर लगने लगे। गेटवे ऑफ़ इंडिया के पास बल्लार्ड एस्टेट्स में “रीडर्स डाइजेस्ट” में चन्द्रन साहब का वह आलीशान दफ़्तर ऑंखों के सामने अब भी नाचने लगता है। मुझे ऐसी आशा तो नहीं थी कि इतने सुसंस्कृत और खुद्दार मॉ- बाप के बेटे से कि वे कॉंग्रेस के डी. एन. ए. में गॉंधी परिवार का डी. एन. ए. ढूँढ लेंगे।
आश्चर्य है कि शशि जी को कॉंग्रेस में गोखले, तिलक, गॉंधी, सुभाष, मदनमोहन मालवीय, डॉ. राजेन्द्र प्रसाद, सरदार पटेल, विधान चन्द्र राय, बीजू पटनायक, अतुल्य घोष, पाटिल, चह्लाण, कामराज , निजलिंगप्पा किसी का डी. एन. ए. कॉंग्रेस में नहीं दिखा। दिखा तो साठ के दशक में अवतरित हुए कथित गॉंधी परिवार का, जिसका महात्मा गॉंधी से दूर-दूर का कोई सम्बन्ध है ही नहीं।
कहानी शुरू होती है जवाहरलाल नेहरू की पत्नी कमला नेहरू से। कमला नेहरू और एक पारसी नवयुवक फ़िरोज़ गंधी (गॉंधी नहीं) की दोस्ती से। फ़िरोज़ ने कभी कमला नेहरू को भरी सभा में बेहोश होकर गिरते हुए बचाया था और गोद में उठाकर अस्पताल ले गया था। उस ख़ूबसूरत नवजवान के नेक काम पर कमला नेहरू फ़िदा हो गईं थीं। आनन्द भवन उठाकर ले आयीं और हाल-चाल पूछने पर उस नौजवान फ़िरोज़ ने अपनी फटेहाली का बयान किया था। उसका “गंधी” परिवार ख़ानदानी तौर पर इतरफरोशी का काम करता था। नवाब तो रहे नहीं, तो धंधा भी मँदा पड गया। अब परिवार दर्ज़ी का काम कर रहा था । लेकिन, उसमें भी गुज़ारा मुश्किल था। कमला नेहरू की कृपा हुई और वह “आनन्द भवन” के कपड़े सिलने लगा। धीरे- धीरे उसकी दोस्ती इंदिरा से हुई और रातोंरात फ़िरोज़ गंधी को योजनापूर्वक फ़िरोज़ गॉधी बना दिया गया। लेकिन, इस होनहार और ख़ूबसूरत युवक की कभी जवाहरलाल नेहरू से न पटी। कहानी लम्बी है। लेकिन, डी. एन. ए. की बात चल ही गई है तो “गांधी” ( इतरफरोश) और “गॉंधी” (गुजरात का वह वैश्य समाज जिसमें मोहनदास करम चन्द गॉंधी पैदा हुए) के बीच का भेद स्पष्ट करने की ज़रूरत आन पड़ी।
मुझे आज याद आ रहे हैं कभी बिहार के राज्यपाल रहे और बाद में कॉंग्रेस के अध्यक्ष बने देवकान्त बरुआ जी, जो जब यह कहने लगे कि “इंडिया इज इंदिरा एण्ड इंदिरा इज इंडिया” यानी कि भारत का मतलब ही इंदिरा है और इंदिरा जी ही भारत हैं, तो लोगों ने उनको देवकांत भड़ुवा नाम दे दिया। शशि जी भी कुछ वैसी ही बात कर रहे हैं। मैं नहीं जानता कि इन्हें लोग क्या नाम देंगे।