बे-मेल होते हुए भी सपा-कांग्रेस के लिए फायदेमंद रहा गठबंधन, दोनों को है विकल्प की तलाश

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लखनऊ : ‘जब-जब फूल खिले’ फिल्म का गाना है, “न-न करते, प्यार तुम्ही से हो गया।” कुछ इसी तर्ज पर सपा और कांग्रेस का गठबंधन हुआ। दरअसल कांग्रेस बसपा से गठबंधन में अपना ज्यादा हित देख रही थी। साल के शुरू में कांग्रेस नेेतृत्व से मायावती की मुलाकात भी हो चुकी थी। इसी बीच सपा के साथ गठबंधन भी हो गया था लेकिन सीट का बंटवारा नहीं हुआ था। अंतत: बसपा ने साफ इंकार कर दिया। सपा भी सीट के जल्द बंटवारे का दबाव बना रही थी।

 

अंत में सीट बंटवारा हुआ और 21 फरवरी को सीट बंटवारा की घोषणा कर दी गयी। कांग्रेस के खाते में 17 सीटें आयीं। इसके बाद दोनों ही दल आपसी मेल-जोल का भाव दिखाने का प्रयास करते रहे। हालांकि समय-समय पर दोनों के विपरित धुरी भी दिखायी दे जाता रहा। कभी भी दिल से दोनों दल एक नहीं हो पाये। वह रूप उप्र में कभी नहीं दिखा, जो बिहार में लालू प्रसाद यादव के साथ कांग्रेस का तालमेल दिख रहा था।

 

यह जरूर रहा कि लोकसभा चुनाव में सपा-कांग्रेस को अपेक्षा से अधिक सीटें मिलीं। दोनों ही दलों के लिए 2024 खुशी लेकर आ गया। दोनों पार्टियों के लिए उप्र में करो या मरो का सवाल था। दोनों की सांसें पुन: आ गयीं। प्रदेश में सपा जहां प्रमुख पार्टी बनकर आ गयी, वहीं दूसरी तरफ कांग्रेस को प्रदेश में जीवनदान मिल गया।

 

इसके बाद विधानसभा के उपचुनाव में कांग्रेस चार सीटें मांग रही थी। कांग्रेस की मांग के बावजूद एक-एक कर सपा अपने उम्मीदवार घोषित करती चली गयी। कांग्रेस की मांग को नजरअंदाज करती रही। अंत में दो सीटें छोड़कर कांग्रेस को कहा कि अपने उम्मीदवार उतार सकते हैं। उसे कांग्रेस ने लेने से मना कर दिया और अपना पूर्ण समर्थन सपा को दे दिया। इसके बाद संभल की घटना पर जब राहुल गांधी ने संभल जाने का प्रयास किया तब भी कांग्रेस-सपा के बीच दरारें देखने को मिलीं। उप्र में सपा और कांग्रेस ने कभी संयुक्त रूप से आंदोलन नहीं किया। अब भी दोनों ही पार्टियों के बीच मजबूरी का ही गठबंधन है। इसका कारण है, दोनों को एक-दूसरे का अभी तक विकल्प नहीं दिख रहा है।

 

कांग्रेस पार्टी के ही एक नेता कहते हैं कि ज्यादातर कार्यकर्ता सपा के साथ गठबंधन को आगे बढ़ाने के पक्ष में नहीं हैं। फिर भी पार्टी नेतृत्व जो निर्णय लेता है, उसके साथ जाना सबकी मजबूरी होती है।


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