होली विशेषः झारखंड के आदिवासी समाज में पलाश के रंगों के साथ फगुआ

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रांची, 13 मार्च (हि.स.)। झारखंड में होली की तैयारियां शुरू हो गई हैं। रंग-गुलाल की दुकानों से बाजार सजने लगे हैं लेकिन राज्य का आदिवासी समाज अलग अंदाज में यह त्योहार मनाता है। विशुद्ध रूप से प्राकृतिक। आदिवासियों में होली को प्रकृति के पर्व के रूप में मनाने की परम्परा है। वे इसे फगुआ का नाम देते हैं। कृत्रिम रंगों के बजाए पलाश के फूलों से तैयार रंग में होली खेली जाती है। आदिवासी समाज सरहुल पर्व तक यह त्योहार मनाता है।

आदिवासी समाज की होली दस से 15 दिनों तक चलती है। होली के एक दिन पहले आदिवासी समाज लकड़ियों को इकट्ठा कर उसे जलाता है। इस दौरान कई जगह मुर्गे की बलि भी दी जाती है। पहले के समय में गांव में पलाश के फूलों को तोड़कर उसका रंग बनाया जाता था और उसी से लोग होली खेलते थे।

केंद्रीय सरना समिति के अध्यक्ष बबलू मुंडा ने रविवार को बताया कि आदिवासी समाज होली को फगुआ नाम से मनाता है। इस मौके पर पलाश के फूलों से रंग तैयार किया जाता है और आदिवासी लोकगीतों के साथ लोग एक-दूसरे पर यही रंग लगाते हैं। पूड़ी, धुस्का, पुआ, ठेकुआ, दुधौरी सहित तरह-तरह के पकवान बनाए जाते हैं। पकवानों को सबसे पहले पूर्वजों को चढ़ाया जाता है। इसके बाद उसका सेवन होता है। उन्होंने बताया कि इस बार सरहुल पर्व चार अप्रैल को है। चार अप्रैल तक आदिवासी समाज यह पर्व मनाता रहेगा।

मुंडा ने कहा कि आदिवासी संस्कृति में होली की बात करें तो पलाश का सीधा संबंध इससे जुड़ता है। क्योंकि, होली के कुछ दिनों बाद ही आदिवासी समाज का सबसे बड़ा त्योहार सरहुल शुरू होता है, जो पूरी तरह से प्रकृति का पर्व है। ऐसे में होली पर राजधानी रांची के सुदूरवर्ती जंगली ग्रामीण इलाकों में लोग पलाश के फूलों से ही रंग बनाकर होली खेलते हैं। नामकुम प्रखंड के लालखटंगा पंचायत में पलाश के फूलों की ऐसी ही होली खेली जाती है। यहां के ज्यादातर ग्रामीण रंग-अबीर और गुलाल की जगह पलाश के बनाए रंगों की तरजीह देते हैं।

लालखटंगा पंचायत के ग्रामीण छज्जू मुंडा कहते हैं कि उन्होंने बचपन से ही पलाश के फूलों की होली खेली है। पलाश के फूलों को केले के पत्ते के साथ मिलाकर पीसा जाता है और उसमें गर्म पानी मिलाकर रंग बनाया जाता है। ये रंग पूरी तरह हर्बल होता है और चेहरे व त्वचा के साथ फ्रेंडली होता है। गांव के बच्चे भी पलाश के फूलों की होली खेलते हैं। वे सिर्फ इन फूलों को हथेली पर पीसकर ही उसके रस को रंग के रूप में इस्तेमाल करते हैं। उन्होंने बताया कि पूरे गांव के जंगली इलाकों में इन दिनों सखुआ के सरई फूलों की खुशबू फैली है, जिसका इस्तेमाल होली के बाद सरहुल में किया जाएगा। ऐसे में एक तरफ जहां पलाश होली का गवाह बन रहा है, वहीं सरई फूलों को सरहुल का इंतजार है।


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