आखिरकार टूट गई 26 साल पुरानी सियासी परम्परा

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न सत्तापक्ष और न ही विपक्ष ने दिया चूड़ा-दही का भोज मकर संक्रांति के मौके पर नए सियासी समीकरण बनाने की पुरानी परंपरा रही है बिहार में  



पटना, 14 जनवरी (हि.स.) । आखिरकार 26 साल बाद बिहार में दही-चूड़ा भोज के जरिए नए सियासी समीकरणों को गढ़ने की परंपरा इस वर्ष टूट गई। कोरोना संक्रमण के दौर में इस बार सियासी गलियारों में मकर संक्रांति पर दही-चूड़ा भोज का आयोजन नहीं हुआ। न ही राजनीतिक दलों के बीच गहमागहमी ही देखी गई। राष्‍ट्रीय जनता दल प्रमुख लालू प्रसाद और उनकी पार्टी तथा जनता दल यूनाइटेड के वरिष्‍ठ नेता बशिष्ठ नारायण सिंह के चूड़ा-दही भोज की कमी लोगों को खली।

बिहार में दही-चूड़ा भोज की शुरुआत लालू प्रसाद ने 1994-95 में की थी। तब वे मुख्यमंत्री हुआ करते थे। लालू प्रसाद ने आम लोगों को अपने साथ जोड़ने के लिए दही-चूड़ा भोज का आयोजन शुरू किया था। इसकी खूब चर्चा हुई। फिर यह राजद की परंपरा बन गई। चारा घोटाला में उनके जेल जाने के बाद भी उनकी पार्टी ने यह परंपरा कायम रखी। हालांकि, इस बार न तो राजद कार्यालय में और न ही राबड़ी देवी के सरकारी आवास पर ही दही-चूड़ा भोज का आयोजन किया गया। हां, लालू प्रसाद ने मकर संक्रांति को लेकर सोशल मीडिया के जरिए पार्टी के लिए संदेश जरूर जारी किया है। उन्होंने अपने विधायकों और पार्टी के अन्य नेताओं को गरीबों को दही-चूड़ा खिलाने का निर्देश दिया है। कोरोना की वजह से जदयू ने भी संक्रांति पर भोज आयोजित नहीं किया है। पार्टी के पूर्व प्रदेश अध्‍यक्ष वशिष्ठ नारायण सिंह ने औपचारिक रूप से संदेश जारी कर इसकी जानकारी दी है।

बिहार में खूब होती रही है दही-चूड़ा पर सियासत

बिहार में दही-चूड़ा भोज के आयोजन में आने वाले दिनों की राजनीति के अक्‍स भी देखे जाते रहे हैं। महागठबंधन की सरकार के दौर में वर्ष 2017 की मकर संक्रांति के अवसर पर राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद ने मुख्‍यमंत्री नीतीश कुमार को दही का टीका लगाकर बड़ा राजनीतिक संदेश दिया था। मतलब राजद व जदयू में सबकुछ ठीक रहने का संदेश देने का था। हालांकि, यह कोशिश नाकाम नही। मकर संक्रांति के ऐसे ही एक दही-चूड़ा भोज के दौरान लालू प्रसाद व नीतीश कुमार के कटे-कटे अंदाज से आने वाले वक्‍त की राजनीति झलकती दिखी थी। बिहार में एक बार फिर राजनीतिक कयासों के बीच मकर संक्रांति के दही-चूड़ा भोज का इंतजार था। हालांकि, इस बार की संक्रांति बिना कोई राजनीतिक संकेत दिए जाती दिखी।


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