पीएम मोदी की लोकप्रियता ने नीतीश को फिर पहुंचाया सत्ता तक

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बिहार में मतदाताओं की पहली पसंद बनी भाजपा कांग्रेस के कारण सत्ता की दौड़ में पिछड़ा राजद एमआईएम का विस्तार राजद के लिए खतरे की घंटी



पटना, 11 नवम्बर (हि.स.)।बिहार विधानसभा चुनाव परिणाम एक ओर जहां जदयू के लिए खतरे की घंटी है तो दूसरी ओर भाजपा और तेजस्वी यादव के लिए उत्साहवर्धक। चुनाव परिणाम ने नीतीश कुमार के नेतृत्व पर गंभीर सवाल खड़े कर दिए हैं। सरकार के 9 मंत्रियों का चुनाव हारना इसी ओर संकेत हैं। प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी की लोकप्रियता एक बार फिर बिहार एनडीए के लिए मददगार साबित हुई। उनकी 12 सभाओं का ही असर माना जाएगा की एनडीए की फिर से सत्ता में वापसी हो रही है।
सत्ता की दौड़ में कुछेक सीटों से पिछड़े तेजस्वी यादव एक मजबूत युवा नेता के रूप में उभरे हैं। वामदलों को राजद के वोट का फायदा मिला है लेकिन कांग्रेस के लिए चुनाव परिणाम उत्साहवर्धक नहीं है। मुस्लिम इलाकों में एआईएमआईएम की सीटें बढ़ना राजद के लिए खतरे की घंटी है।

चुनाव परिणाम के आंकड़ों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि चुनाव में राजद को भरी नुकसान हुआ है। पिछली विधानसभा में राजद सबसे बड़ी पार्टी थी। उसके 80 विधायक थे। तब नीतीश कुमार भी महागठबंधन में थे। इस बार उसे 5 सीटें कम आई हैं। जदयू की 71 सीटें थीं, इस बार मात्र 43 सीटें ही मिली हैं। उसके 7 मंत्री चुनाव हार गये। कांग्रेस 27 से घटकर 19 पर आ गई। सबसे अधिक फायदे में भाजपा रही। उसके पास 53 सीटें थीं, जो इस बार बढ़कर 74 हो गई है।

हालांकि, उसके भी दो मंत्री हारे हैं। इस चुनाव में सबसे ज्यादा स्ट्राइक रेट प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का रहा। उन्होंने कुल 12 सभाएं कीं। सभा वाली सीटों पर सफलता दर 75 प्रतिशत रही, जबकि कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने 8 सभाएं कीं और उनका स्ट्राइक रेट मात्र 37 प्रतिशत रहा। तेजस्वी यादव ने सर्वाधिक 247 सभाएं कीं। उनका स्ट्राइक रेट 44 प्रतिशत रहा।

वामदलों की सीटें भी बढ़ी हैं लेकिन यह जीत राजद के वोटों के सहारे हुई है। राजनीतिक रूप से बिहार में वे हाशिये पर हैं। भाकपा माले को 12 सीटें मिली हैं। ज्यादा लाभ में वही रही है। कांग्रेस 27 से घटकर 19 पर आ गई। उसने 70 सीटों पर महागठबंधन के साथ मिलकर चुनाव लड़ा था। हालत यह थी कि उसे 70 उम्मीदवार भी नहीं मिल रहे थे। कई जगह से पार्टी कार्यकर्ताओं ने पैसे लेकर टिकट दिए जाने की शिकायत की है। कांग्रेस को कम सीटें देकर बची सीटों पर राजद ने अपने उम्मीदवार दिए होते तो शायद वह आज सत्ता की दौड़ में नहीं पिछड़ती। किन परिस्थितियों में राजद को 70 सीटें छोड़नी पड़ी, यह अलग विश्लेषण का विषय है।

इस चुनाव में सर्वाधिक फायदा भाजपा को हुआ है। उसके पास 53 सीटें थीं। उसने 74 सीटों पर जीत दर्ज की है। यानी 21 सीटों का सीधा फायदा हुआ है। यह भाजपा के बढ़ते जनाधार का संकेत है। इस विस्तार से पार्टी के अंदर उत्साह है। नीतीश की जगह पर अपनी पार्टी का मुख्यमंत्री बनाने की आवाज उठने लगी है। हालांकि नेतृत्व की ओर से नीतीश के नाम पर मुहर लग चुकी है।
इस चुनाव में तेजस्वी, चिराग पासवान और पुष्पम प्रिया चौधरी जैसे युवा नेता चर्चा में आये लेकिन नई विधानसभा में 40 वर्ष तक के विधायकों की संख्या 37 से घटकर 35 रह गई है। महिला विधायकों की संख्या भी 28 से घटकर 25 रह गई है , जबकि वोट देनेवालों में पुरुषों से ज्यादा संख्या महिलाओं की थी। दागी विधायकों की संख्या 142 से बढ़कर 162 हो गई है। यह लोकतंत्र के लिए चिंता का सबब है।

ओबैसी के प्रति सीमांचल के मुसलमानों का आकर्षण बढ़ा है। इसी का नतीजा एमआईएम को 5 सीटें मिलना है। पार्टी ने 20 उम्मीदवार खड़े किये थे। ओबैसी की आक्रामक शैली ने राजद के लिए संकट पैदा कर दिया है। राजद इससे कैसे निपटती है, यह देखना दिलचस्प होगा। उपेंद्र कुशवाहा और पप्पू यादव की पार्टी का खाता भी नहीं खुला। जनता ने उन्हें पूरी तरह ख़ारिज कर दिया है। पप्पू यादव ने चंद्रशेखर रावण के साथ गठबंधन किया था, जबकि कुशवाहा का ओबैसी और बसपा के साथ गठबंधन था। लोजपा ने 130 उम्मीदवार दिये थे, मगर जीता सिर्फ एक। चिराग को इसी से संतोष है कि उन्होंने नीतीश कुमार को भाजपा से बड़ी पार्टी नहीं बनने दिया।

 


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