झारखंड में कांग्रेस को मिली सियासी संजीवनी

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कांग्रेस की सीटें तो 2014 के विधानसभा चुनाव के मुकाबले तो बढ़ी ही हैं, उसका वोट प्रतिशत भी बढ़ा है।



रांची, 14 जनवरी (हि.स.)। झारखंड विधानसभा चुनाव में जनता ने एकबार फिर पूर्ण बहुमत की सरकार बनायी है। हेमंत सोरेन के नेतृत्व में बने गठबंधन को मिले जनादेश से स्पष्ट है कि पिछली बार जिस प्रकार एनडीए को स्पष्ट बहुमत मिला था ठीक उसी प्रकार इसबार जनता ने झामुमो-कांग्रेस-राजद गठबंधन पर भरोसा जताया है। इन सबके बीच कांग्रेस के लिए यह चुनाव सियासी संजीवनी बनकर आया है। विधानसभा चुनाव के नतीजों ने कांग्रेस में जान फूंक दी है। कांग्रेस की सीटें तो 2014 के विधानसभा चुनाव के मुकाबले तो बढ़ी ही हैं, उसका वोट प्रतिशत भी बढ़ा है। यही नहीं मंत्रिमंडल में भी शामिल होने का सुनहरा मौका भी मिला है।

राजस्थान, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र के बाद साल भर के भीतर ये पांचवां राज्य है, जहां विपक्ष ने भाजपा से सत्ता छीनी है। ऐसे में लोकसभा चुनाव में करारी हार के बाद कांग्रेस के लिए झारखंड की जीत संजीवनी मानी जा रही है। महाराष्ट्र के बाद झारखंड में गैर भाजपा सरकार का गठन इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि यहां सत्ता के नए और कामयाब समीकरण बने। भाजपा को सत्ता से दूर करने के लिए महाराष्ट्र की तरह झारखंड में भी कांग्रेस ने क्षेत्रीय दल का जूनियर पार्टनर बनना मंजूर किया। लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को झारखंड से महज एक सीट पर ही संतोष करना पड़ा वह भी जय भारत समानता पार्टी से आयी गीता कोड़ा के रूप में यह सीट कांग्रेस की झोली में गयी।

छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और राजस्थान विधानसभा चुनाव में भाजपा को पराजित करने वाली कांग्रेस जिन राज्यों में अपेक्षाकृत कमजोर है वहां क्षेत्रीय दलों पर अब पूरा दांव खेल रही है और उसे फायदा भी हो रहा है। झारखंड में भाजपा को हराने के लिए कांग्रेस ने छोटे भाई की भूमिका निभायी, जिसका उसे लाभ भी मिला। झारखंड में कांग्रेस ने पहले ही हेमंत सोरेन को गठबंधन का मुख्यमंत्री घोषित करके चुनावी लड़ाई को आदिवासी बनाम गैर-आदिवासी में तब्दील किया। भाजपा ने प्रदेश में गैर-आदिवासी मुख्यमंत्री रघुवर दास को बनाया और महागठबंधन ने इस मुद्दे को जोर-शोर से उठाया। झारखंड बनने के बाद पहली बार कांग्रेस ने 16 सीटों पर जीत हासिल की। कांग्रेस को 13.88 फीसदी मत मिले जबकि पिछले चुनाव में उसे 10.46 प्रतिशत वोट मिले थे। झारखंड मुक्ति मोर्चा (झामुमो ) को 18.72 प्रतिशत जबकि राष्ट्रीय जनता दल (राजद) को 2.75 फीसदी वोट मिले। गठबंधन को करीब 32 फीसदी मत मिले। चुनाव परिणामों में झामुमो को 30 कांग्रेस को 16 व राजद को एक सीट मिली। वहीं भाजपा के हिस्से में 25 सीटें आई। झामुमो के नेता हेमंत सोरेन दूसरी बार पूर्ण बहुमत के साथ मुख्यमंत्री बन गए।

झामुमो, कांग्रेस और राजद ने 2014 में विधानसभा चुनाव अलग-अलग लड़ा था। इसके कारण कांग्रेस महज सात सीटों पर सिमट गयी थी जबकि विपक्ष में झामुमो 19 सीटें लाकर सबसे बड़ी पार्टी बनी। राजद का इस चुनाव में खाता भी नहीं खुला। वहीं भाजपा 37 सीटों पर जीत दर्ज कर सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी, वहीं एनडीए गठबंधन 42 सीटों पर जीत दर्ज कर पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता पर काबिज हुई। झारखंड के इतिहास के लिए यह महत्वपूर्ण था क्योंकि 2000 में स्वतंत्र राज्य का दर्जा पाने वाले झारखंड को पहली बार स्थि‍र सरकार का ताज मिला था।

इसबार गठबंधन की ओर से शुरू में ही हेमंत सोरेन को मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित कर दिया गया। आदिवासी सीटों पर पकड़ मजबूत बनाने के लिए संथाल परगना में 31 सीटें झामुमो और सात सीटों पर राजद ने अपने उम्मीदवार उतारे। कांग्रेस का पूरा फोकस शहरी क्षेत्रों में रहा। साथ ही गठबंधन में शामिल दलों ने समन्वय और एकजुटता बनाए रखा जिससे कामयाबी मिली। झामुमो, कांग्रेस और राजद का शीर्ष नेतृत्व यह बखूबी जानता था कि अलग-अलग लड़ने से वोटों में बंटवारा होगा और भाजपा को फायदा होगा। इसलिए लोकसभा चुनाव के तुरंत बाद ही हर सीट पर चुनाव लड़ने की तैयारी तेज कर दी गई और जिताऊ उम्मीदवारों पर ध्यान देते हुए काम किया गया। हर सीट पर गठबंधन का एक उम्मीदवार रहा और सभी दलों के नेताओं ने प्रचार किया।

हालांकि राजनीतिक जानकारों का कहना है कि क्षेत्रीय दलों की समय-समय पर पिछलग्गू बन कर कांग्रेस पार्टी अपना जनाधार खो रही है। अपने बूते कांग्रेस इन प्रदेशों में खाता तक खोलने की स्थिति में भी नहीं हैं। कांग्रेस पार्टी को अपने संगठन को मजबूत बनाने की दिशा में काम करना चाहिए। पार्टी में जमीन से जुड़े लोगों को आगे लाना चाहिए। साफ छवि के नेताओं को नेतृत्व की अग्रिम पंक्ति में भागीदारी देनी चाहिए, जिससे कांग्रेस जमीनी स्तर पर मजबूत होकर अपना पुराना जनाधार हासिल कर सके। यदि आने वाले समय में भी कांग्रेस पार्टी क्षेत्रीय दलों के सहारे गठबंधन की राजनीति में ही उलझी रहेगी तो उसका रहा सहा जनाधार भी खिसक जायेगा। वहीं क्षेत्रीय दलों की राजनीतिक हैसियत बढ़ती ही जाएगी।


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