आंकड़ों के भ्रमजाल में उलझी गरीबी
कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने बेहद सदाशयता भरी घोषणा की है। उन्होंने कहा है कि वे भारत को अमीरों और गरीबों के बीच बंटने नहीं देंगे। अमीर और गरीब की खाई पाट देंगे। बहुत उम्दा विचार हैं। इस विचार का स्वागत किया जाना चाहिए। देश में अमीरी-गरीबी का अंतर बहुत बड़ा है। समानता का विचार कहने में तो अच्छा लगता है। लेकिन उसे व्यावहारिक रूप देना लोहे के चने चबाने जैसा है। गरीबी मिटाने का विचार कांग्रेस में नया नहीं आया है। हर चुनाव में कांग्रेस गरीबी मिटाने का राग अलापती रही है। भले ही नतीजा शून्य रहा है। लेकिन जनता को बरगलाने का यह अच्छा ख्याल है। गरीबी तब मिटती है, जब हर हाथ में काम हो। किसानों को उसकी फसलों का उचित दाम मिले। गरीबी मिटती है सतत प्रयास और पुरुषार्थ से। एक व्यक्ति के पुरुषार्थ से एक अरब 35 करोड़ लोगों की गरीबी नहीं मिट सकती। सबको कार्य के लिए प्रेरित करना भी बड़ा पुरुषार्थ है। लेकिन राजनीतिक दल चुनाव जीतने के लिए प्रलोभनों के अंबार लगाते रहते हैं। बताना जरूरी है कि भारत में आज भी करीब 42 करोड़ गरीब हैं। यह संख्या 26 अफ्रीकी देशों से एक करोड़ ज्यादा है।
कांग्रेस ने गरीब तो हटाए नहीं, गरीबी रेखा की सीमा कागजों में जरूर हटा दी। गरीबी धरातल पर मिटनी चाहिए। कागज पर नहीं। योजना आयोग की एक रिपोर्ट आई थी जिसमें कहा गया था कि 2004-05 से लेकर 2009-10 के दौरान देश में गरीबी 7 प्रतिशत घटी है और गरीबी रेखा अब 32 रुपये प्रतिदिन से घटकर 28 रुपये 65 पैसे प्रतिदिन हो गई है। वर्ष 200-2010 के गरीबी के आंकड़े कहते हैं कि इन पांच सालों में देश में गरीबी 37.2 प्रतिशत से घटकर 29.8 प्रतिशत हो गई। मतलब शहर में 28 रुपये 65 पैसे प्रतिदिन और गांवों में 22 रुपये 42 पैसे खर्च करने वाले को गरीब नहीं कहा जा सकता। यह चमत्कार कांग्रेस का था। अगर इसी तरह का चमत्कार करना है तो वह पलक झपकते किया जा सकता है। यह कुछ ऐसा चमत्कार है जिसमें करना कुछ नहीं, बदलना कुछ नहीं, पापुलरिटी ही मिलनी है। तत्कालीन कांग्रेस सरकार के मनमोहनी फार्मूले के अनुसार शहरों में महीने में 859 रुपये 60 पैसे और ग्रामीण क्षेत्रों में 672 रुपये 80 पैसे से अधिक खर्च करने वाला व्यक्ति गरीब नहीं रह गया। क्या मौजूदा महंगाई के दौर में इतने कम में किसी भी व्यक्ति का खर्च चल सकता है? क्या कांग्रेस के सांसद, विधायक, मंत्री इतना वेतन-भत्ता लेकर जनसेवा करना पसंद करेंगे? उच्चतम न्यायालय में योजना आयोग ने 2004-05 में गरीबी रेखा 32 रुपये प्रतिदिन तय किए जाने संबंधी हलफनामा दायर किया था। कुछ सामाजिक कार्यकर्ताओं ने योजना आयोग के तत्कालीन प्रमुख मोंटेक सिंह अहलूवालिया को इस बाबत चुनौती दी थी कि वे स्वयं 32 रुपये में एक दिन का खर्च चलाकर दिखाएं।
विश्व बैंक ने एक रिपोर्ट दी थी कि वर्ष 2013 में देश की 30 फीसद आबादी अंतरराष्ट्रीय गरीबी रेखा के नीचे जीवन-यापन कर रही थी। अंतरराष्ट्रीय गरीबी रेखा से नीचे जीवन-यापन करने वाले लोगों की सर्वाधिक संख्या भारत में है। एक व्यक्ति या व्यक्ति समूह अगर अपनी दैनिक जीवन निर्वाह की आवश्यकताओं जैसे – भोजन, वस्त्र की पूर्ति नहीं कर पाता तो वह गरीब है। गरीबी वास्तव में न्यूनतम आवश्यक पोषक स्तर नहीं मिलने के रूप में देखा जाता है। अगर ग्रामीण क्षेत्र में 2400 कैलोरी और शहरी क्षेत्र में 2100 कैलोरी प्रतिदिन प्रतिव्यक्ति आपूर्ति नहीं हो रही है तो वह गरीब है।
राहुल गांधी की न्याय योजना केवल देश के गरीबी रेखा के नीचे के लोगों को 72 हजार रुपये की न्यूनतम आय गारंटी देती है। समानता का सिद्धांत तो यह कहता है कि आर्थिक दृष्टि से देश में कोई भी बड़ा और छोटा न हो। कोई राजा न हो, कोई प्रजा न हो। इस तरह की स्थिति या तो बेहद आदर्श होती है या फिर अत्यंत अराजक क्योंकि उस स्थिति में सभी संपन्न होंगे। पैसा इफरात होने पर व्यक्ति वैसे ही काम नहीं करता और जिसे बिना मेहनत के पैसा मिल जाएगा, वह तो काम करने से रहा। परिश्रम से अर्जित धन को अनावश्यक रूप से खर्च करने में संकोच होता है। आदमी सौ बार सोचता है। लेकिन अगर पैसा अनुदान स्वरूप मिले तो उसका उपयोग कम, दुरुपयोग ज्यादा होता है। ऐसे में बहुत कुछ संभव है कि राहुल गांधी की न्यूनतम आय गारंटी योजना व्यक्ति को परिश्रम से दूर ले जाएगी। मुफ्त खाने और पाने की लगन व्यक्ति को कामचोर बना देती है। दुर्भाग्य यह है कि राजनीतिक फायदे के लिए कांग्रेस देश के धन को मुफ्त बांटना चाहती है।
सच है कि भारत में अधिकांश लोगों के पास दो जून की रोटी का इंतजाम है। कुछ लोगों की सौ पीढ़ियों के ऐशो आराम का इंतजाम है। इस विसंगति के लिए इस देश की आर्थिक नीतियां जिम्मेदार हैं। मोदी सरकार दावा कर रही है कि भारत 2020 में विकसित देश बन जाएगा। आंकड़ों की रोशनी में यह बताने-जताने का प्रयास हो रहा है कि हम जल्द ही 10 प्रतिशत विकास दर हासिल कर लेंगे। इस मामले में जल्द ही चीन को पीछे छोड़ देने के दावे भी हो रहे हैं। यूएनडीपी की मानव विकास रिपोर्ट बताती है कि बिहार, उत्तरप्रदेश, पश्चिम बंगाल, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखंड, उड़ीसा और राजस्थान में गरीबी निरंतर बढ़ती जा रही है। यूएनडीपी की नजर में गरीब का मतलब है कि वह परिवार जिसे हर रोज एक डॉलर से कम आमदनी पर गुजारा करना पड़ता है। आज के हिसाब से जिस परिवार की आमदनी 45 रुपये या उससे कम है। भारत के आठ राज्यों में रहने वाले गरीबों की हालत सबसे ज्यादा गरीब अफ्रीकी देश इथोपिया और तंजानिया में रहने वाले गरीबों जैसी है।
वित्त वर्ष 2005-06 से 2015-16 के बीच के एक दशक में भारत में 27 करोड़ लोग गरीबी रेखा से बाहर निकल गए हैं। इस समय देश की आबादी लगभग 135 करोड़ है। इस रिपोर्ट में बताया गया है कि भारत की कुल आबादी 104 देशों की कुल आबादी की एक-चौथाई है। रिपोर्ट में कहा गया कि भारत में दस वर्षों की अवधि में गरीब लोगों की संख्या घटकर आधी रह गई है। 55 फीसदी से घटकर 28 फीसदी हो गई है। भारत की गरीबी आज भी आंकड़ों के भ्रमजाल में उलझी हुई है। आजादी के 71 सालों में गरीब और गरीबी पर लगातार अध्ययन और खुलासे हुए हैं। लेकिन उनमें कभी भी एकरूपता नहीं रही। यहां दो रुपये किलो चावल-गेहूं तो बेचा गया लेकिन गरीबों की आय बढ़ाने, उनके लिए जरूरी संसाधन विकसित करने पर जोर नहीं दिया गया। मनरेगा के तहत साल में सौ दिन तो हमने काम दिया लेकिन 265 अन्य दिनों की बेरोजगारी पर विचार नहीं किया। विश्व बैंक की रिपोर्ट है कि दुनिया में करीब 76 करोड़ गरीब हैं। इनमें भारत में करीब 22.4 करोड़ लोग गरीबी रेखा से नीचे जिदगी गुजार रहे हैं। जितने अध्ययन हुए, उतनी ही रिपोर्ट आई और किसी में भी एकरूपता नहीं रही। मतलब जब अध्ययन ही सटीक नहीं है तो गरीबी कैसे दूर होगी। गरीबी मिटाना है तो अधिकारियों, कर्मचारियों की कार्यशैली पर नजर रखनी होगी। बिना इसके बात बनने वाली नहीं है।
कांग्रेस ने गरीब तो हटाए नहीं, गरीबी रेखा की सीमा कागजों में जरूर हटा दी। गरीबी धरातल पर मिटनी चाहिए। कागज पर नहीं। योजना आयोग की एक रिपोर्ट आई थी जिसमें कहा गया था कि 2004-05 से लेकर 2009-10 के दौरान देश में गरीबी 7 प्रतिशत घटी है और गरीबी रेखा अब 32 रुपये प्रतिदिन से घटकर 28 रुपये 65 पैसे प्रतिदिन हो गई है। वर्ष 200-2010 के गरीबी के आंकड़े कहते हैं कि इन पांच सालों में देश में गरीबी 37.2 प्रतिशत से घटकर 29.8 प्रतिशत हो गई। मतलब शहर में 28 रुपये 65 पैसे प्रतिदिन और गांवों में 22 रुपये 42 पैसे खर्च करने वाले को गरीब नहीं कहा जा सकता। यह चमत्कार कांग्रेस का था। अगर इसी तरह का चमत्कार करना है तो वह पलक झपकते किया जा सकता है। यह कुछ ऐसा चमत्कार है जिसमें करना कुछ नहीं, बदलना कुछ नहीं, पापुलरिटी ही मिलनी है। तत्कालीन कांग्रेस सरकार के मनमोहनी फार्मूले के अनुसार शहरों में महीने में 859 रुपये 60 पैसे और ग्रामीण क्षेत्रों में 672 रुपये 80 पैसे से अधिक खर्च करने वाला व्यक्ति गरीब नहीं रह गया। क्या मौजूदा महंगाई के दौर में इतने कम में किसी भी व्यक्ति का खर्च चल सकता है? क्या कांग्रेस के सांसद, विधायक, मंत्री इतना वेतन-भत्ता लेकर जनसेवा करना पसंद करेंगे? उच्चतम न्यायालय में योजना आयोग ने 2004-05 में गरीबी रेखा 32 रुपये प्रतिदिन तय किए जाने संबंधी हलफनामा दायर किया था। कुछ सामाजिक कार्यकर्ताओं ने योजना आयोग के तत्कालीन प्रमुख मोंटेक सिंह अहलूवालिया को इस बाबत चुनौती दी थी कि वे स्वयं 32 रुपये में एक दिन का खर्च चलाकर दिखाएं।
विश्व बैंक ने एक रिपोर्ट दी थी कि वर्ष 2013 में देश की 30 फीसद आबादी अंतरराष्ट्रीय गरीबी रेखा के नीचे जीवन-यापन कर रही थी। अंतरराष्ट्रीय गरीबी रेखा से नीचे जीवन-यापन करने वाले लोगों की सर्वाधिक संख्या भारत में है। एक व्यक्ति या व्यक्ति समूह अगर अपनी दैनिक जीवन निर्वाह की आवश्यकताओं जैसे – भोजन, वस्त्र की पूर्ति नहीं कर पाता तो वह गरीब है। गरीबी वास्तव में न्यूनतम आवश्यक पोषक स्तर नहीं मिलने के रूप में देखा जाता है। अगर ग्रामीण क्षेत्र में 2400 कैलोरी और शहरी क्षेत्र में 2100 कैलोरी प्रतिदिन प्रतिव्यक्ति आपूर्ति नहीं हो रही है तो वह गरीब है।
राहुल गांधी की न्याय योजना केवल देश के गरीबी रेखा के नीचे के लोगों को 72 हजार रुपये की न्यूनतम आय गारंटी देती है। समानता का सिद्धांत तो यह कहता है कि आर्थिक दृष्टि से देश में कोई भी बड़ा और छोटा न हो। कोई राजा न हो, कोई प्रजा न हो। इस तरह की स्थिति या तो बेहद आदर्श होती है या फिर अत्यंत अराजक क्योंकि उस स्थिति में सभी संपन्न होंगे। पैसा इफरात होने पर व्यक्ति वैसे ही काम नहीं करता और जिसे बिना मेहनत के पैसा मिल जाएगा, वह तो काम करने से रहा। परिश्रम से अर्जित धन को अनावश्यक रूप से खर्च करने में संकोच होता है। आदमी सौ बार सोचता है। लेकिन अगर पैसा अनुदान स्वरूप मिले तो उसका उपयोग कम, दुरुपयोग ज्यादा होता है। ऐसे में बहुत कुछ संभव है कि राहुल गांधी की न्यूनतम आय गारंटी योजना व्यक्ति को परिश्रम से दूर ले जाएगी। मुफ्त खाने और पाने की लगन व्यक्ति को कामचोर बना देती है। दुर्भाग्य यह है कि राजनीतिक फायदे के लिए कांग्रेस देश के धन को मुफ्त बांटना चाहती है।
सच है कि भारत में अधिकांश लोगों के पास दो जून की रोटी का इंतजाम है। कुछ लोगों की सौ पीढ़ियों के ऐशो आराम का इंतजाम है। इस विसंगति के लिए इस देश की आर्थिक नीतियां जिम्मेदार हैं। मोदी सरकार दावा कर रही है कि भारत 2020 में विकसित देश बन जाएगा। आंकड़ों की रोशनी में यह बताने-जताने का प्रयास हो रहा है कि हम जल्द ही 10 प्रतिशत विकास दर हासिल कर लेंगे। इस मामले में जल्द ही चीन को पीछे छोड़ देने के दावे भी हो रहे हैं। यूएनडीपी की मानव विकास रिपोर्ट बताती है कि बिहार, उत्तरप्रदेश, पश्चिम बंगाल, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखंड, उड़ीसा और राजस्थान में गरीबी निरंतर बढ़ती जा रही है। यूएनडीपी की नजर में गरीब का मतलब है कि वह परिवार जिसे हर रोज एक डॉलर से कम आमदनी पर गुजारा करना पड़ता है। आज के हिसाब से जिस परिवार की आमदनी 45 रुपये या उससे कम है। भारत के आठ राज्यों में रहने वाले गरीबों की हालत सबसे ज्यादा गरीब अफ्रीकी देश इथोपिया और तंजानिया में रहने वाले गरीबों जैसी है।
वित्त वर्ष 2005-06 से 2015-16 के बीच के एक दशक में भारत में 27 करोड़ लोग गरीबी रेखा से बाहर निकल गए हैं। इस समय देश की आबादी लगभग 135 करोड़ है। इस रिपोर्ट में बताया गया है कि भारत की कुल आबादी 104 देशों की कुल आबादी की एक-चौथाई है। रिपोर्ट में कहा गया कि भारत में दस वर्षों की अवधि में गरीब लोगों की संख्या घटकर आधी रह गई है। 55 फीसदी से घटकर 28 फीसदी हो गई है। भारत की गरीबी आज भी आंकड़ों के भ्रमजाल में उलझी हुई है। आजादी के 71 सालों में गरीब और गरीबी पर लगातार अध्ययन और खुलासे हुए हैं। लेकिन उनमें कभी भी एकरूपता नहीं रही। यहां दो रुपये किलो चावल-गेहूं तो बेचा गया लेकिन गरीबों की आय बढ़ाने, उनके लिए जरूरी संसाधन विकसित करने पर जोर नहीं दिया गया। मनरेगा के तहत साल में सौ दिन तो हमने काम दिया लेकिन 265 अन्य दिनों की बेरोजगारी पर विचार नहीं किया। विश्व बैंक की रिपोर्ट है कि दुनिया में करीब 76 करोड़ गरीब हैं। इनमें भारत में करीब 22.4 करोड़ लोग गरीबी रेखा से नीचे जिदगी गुजार रहे हैं। जितने अध्ययन हुए, उतनी ही रिपोर्ट आई और किसी में भी एकरूपता नहीं रही। मतलब जब अध्ययन ही सटीक नहीं है तो गरीबी कैसे दूर होगी। गरीबी मिटाना है तो अधिकारियों, कर्मचारियों की कार्यशैली पर नजर रखनी होगी। बिना इसके बात बनने वाली नहीं है।