नोटा नहीं दबाएंगे,प्रत्याशी धवल जिताएंगे

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लोकसभा चुनाव का बिगुल बज चुका है। राजनीतिक दल और उनके प्रचारक खम ठोंक रहे हैं। मतदाता भी कमर कसे बैठे हैं। जो अन्यमनस्क हो रहे हैं, उनकी तंद्रा तोड़ने में चुनाव आयोग और जिला प्रशासन लगा हुआ है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और कई केंद्रीय मंत्री मतदाताओं से ज्यादा से ज्यादा वोट डालने की अपील कर रहे हैं। इस बाबत स्वयंसेवी और सामाजिक संगठन भी अपने स्तर पर अभियान चला रहे हैं। प्रयागराज में एक सिख नेता ने सिख समाज से कहा कि उनका समाज जरूरतमंदों का पेट भरने के लिए रोज लंगर चलाता है, लेकिन इस बार बहुत बड़ा लंगर आयोजित किया जाना चाहिए जिससे इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन का पेट भर जाए। यह बेहद सार्थक और सकारात्मक अपील है। इसकी प्रशंसा करनी चाहिए। हाल ही में एक बड़े वक्ता ने कहा कि नोटा मतदाता का नकार नहीं है, वह कंफ्यूजन है। किंकर्तव्यविमूढ़ता है। जो लोग नोटा को मतदाता का नकार मानकर खुश हो लेते हैं, उन्हें इसके दूसरे पहलू पर भी विचार करना होगा।
मतदाता अपना श्रम, समय और धन खर्च कर मतदान केंद्र तक जाता है। वहां कतार में खड़ा होता है और जब देश के लिए अच्छा या बुरा प्रत्याशी चुनने का समय आता है तो वह नोटा पर वोट डालकर अपनी असहाय स्थिति की परोक्ष अभिव्यक्ति कर आता है। यह दरअसल मतदाता की लाचारी है। इसके लिए राजनीतिक दल भी बराबर के जिम्मेदार हैं। वे अच्छा उम्मीदवार दे नहीं पाते तो जनता अच्छा जनप्रतिनिधि कैसे चुने? उसे अधिकांश बुरे लोगों के बीच से एक अच्छा आदमी चुनना होता है। यह अच्छा आदमी कितना अच्छा है,इस पर विचार तो दरअसल राजनीतिक दलों को करना चाहिए था। कांटे से तो काटा और कंकड़ से कंकड़ ही चुना जा सकता है। उन कंकड़ों में एकाध हीरा निकल जाए, पन्ना निकल जाए, यह मतदाता का सौभाग्य है। राजनीतिक दल तो एक तरह से उसे अधिकांशत: अपना अभाग्य चुनने को ही अभिशप्त कर रहे हैं। अपराधियों को चुनाव लड़ने से रोकने के देश में वैसे भी कई प्रयोग हो रहे हैं। चुनाव आयोग ने अपराधियों का ब्यौरा अपनी वेबसाइट पर डालने को भी राजनीतिक दलों से कहा है लेकिन इसका अनुपालन होता नहीं दिखता।
सुप्रीम कोर्ट में केंद्र सरकार ने स्वीकार किया था कि देश के 36 प्रतिशत सांसदों और विधायकों के खिलाफ 3045 आपराधिक मुकदमें लंबित हैं। इस पर अदालत ने सरकार और चुनाव आयोग से यह जानना चाहा था कि इस समस्या का निदान क्या है? तब अटार्नी जनरल के वेणुगोपाल ने कहा था कि न्यायपालिका अपने अधिकार क्षेत्र का अतिक्रमण कर रही है। खैर चुनाव आयोग ने सर्वोच्च न्यायालय का मंतव्य समझा और निर्देश दिया है कि इस बार दागी प्रत्याशियों को तीन बार अखबारों में अपने अपराध का ब्यौरा छपवाना होगा। यह निर्णय अपने आप में मील का पत्थर तो है ही लेकिन इसके बाद भी दागियों को राजनीतिक दल टिकट नहीं देंगे, यह दावे के साथ कह पाना किसी के लिए भी मुमकिन नहीं है। 2014 के लोकसभा चुनाव पर एनईडब्ल्यू और एडीआर की रिपोर्ट पर अगर गौर करें तो वर्ष 2014 के लोकसभा में निर्वाचित 542 में से 185 सांसदों पर आपराधिक मामले दर्ज हैं। 112 सांसदों पर अपराध के गंभीर मामले दर्ज हैं। 2014 में चुने गए सांसदों ने अपने शपथपत्र में दावा किया है कि उनके खिलाफ मुकदमे दर्ज हैं। 2009 के लोकसभा चुनाव में 30 प्रतिशत सांसदों ने खुद पर आपराधिक मामले दर्ज होने की बात अपने नामांकन पत्र में स्वीकारी थी। 2019 के चुनाव में भी अगर 2014 की तरह ही दागी जीत जाते हैं तो यह किसकी कमजोरी है। जनता अपनी जिम्मेदारियों से पल्ला नहीं झाड़ सकती। सत्ता पक्ष और विपक्ष भी अपने दायित्वों से मुंह नहीं मोड़ सकता। राजनीति के गलियारे में बाहुबलियों की पैठ का ही नतीजा है कि सदन में मारपीट और गाली-गलौज तक की स्थिति बन जाती है।
अब जरा नोटा के विकल्प पर भी विचार कर लेते हैं। 2014 के लोकसभा चुनाव में पहली बार नोटा यानी ‘नन ऑफ द अबव’ का इस्तेमाल किया गया था। उस समय 83.41 करोड़ में से 55.38 करोड़ (66.4 फीसदी) मतदाताओं ने 543 सीटों पर वोट डाले थे। इनमें से लगभग 60 लाख मतदाताओं ने नोटा का विकल्प चुना था। यह कुल वोटों का 1.1 फीसदी था। 2014 में नोटा को सबसे ज्यादा 46,559 वोट तमिलनाडु की नीलगिरी सीट पर मिले थे, जबकि सबसे कम 123 वोट लक्षद्वीप सीट पर पड़े थे। 2014 के आम चुनावों में जिन 10 सीटों पर नोटा का वोट प्रतिशत सबसे ज्यादा रहा, उनमें से 9 सीटें आदिवासी बहुल रहीं। इनमें से भी 7 सीटें ऐसी थीं, जहां आदिवासियों की संख्या 50 फीसदी से अधिक थी। लेकिन कई ऐसी लोकसभा सीटें भी रहीं जहां हार-जीत के अंतर से भी अधिक वोट नोटा को मिले थे। सवाल उठता है कि अगर नोटा के चलते देश एक अच्छा सांसद चुनने से वंचित रह जाता है तो इसके लिए कौन जिम्मेदार है? ऐसे में जरूरी है कि इस बार राजनीतिक दल बेदाग छवि के लोगों को मैदान में उतारें। चुनाव आयोग भी इस बाबत अपना सख्त रुख बरकरार रखे।
सभी राजनीतिक दलों को, चुनाव आयोग को इस बार विचार करना होगा कि वे किसे लोकतंत्र का पहरुआ बनाने जा रहे हैं। मतदाताओं को भी सोचना होगा कि वे अपना वोट जाति और मजहब के व्यक्ति को देंगे या जनता के हित की आकांक्षा रखने वाले एक नेक दिल इंसान को। चुनाव संसद के लिए सांसद चुनने का है। सांसद का अर्थ होता है जो संसदीय हो। मतलब विनम्र हो, आचरण और शील का धनी हो। उदार हृदय हो। सबके हित में अपने हित का विचार करने वाला हो। इस कसौटी पर कसकर जब तक राजनीतिक दल प्रत्याशियों को मैदान में नहीं उतारेंगे तब तक जनता के लिए सुयोग्य जन प्रतिनिधि चुन पाना दूर की कौड़ी ही होगा। देश को आगे ले जाने का काम सज्जन ही कर सकता है। अनाचार बढ़ता ही इसलिए हैं कि सदाचार में आस्था रखने वाले चुप रहते हैं। मौजूदा समय मतदाताओं की असल परीक्षा का है। वे अपनी परीक्षा में उम्मीदवार को महत्व दें क्योंकि संसद में उनकी बात तो उनका ही प्रतिनिधि रखेगा। एक योग्य व्यक्ति का चयन करके ही हम देश को आगे ले जा सकते हैं। इस चुनाव यज्ञ में आहुति देना अंतत: हम सबकी जिम्मेदारी है। नोटा तो दबाना नहीं है और किसी अपराधी को संसद पहुंचाना नहीं है। मतदाताओं का यह संकल्प ही देश में सुशासन लाएगा।


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