सद्भावना और सहमति से ही संभव है आरक्षण मुद्दे का हल :मोहन भागवत

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डॉ. भागवत ने कहा कि सहमति एवं सद्भावना के अभाव में आरक्षण को लेकर बहस और पक्ष-विपक्ष में आंदोलन चलते रहेंगे, कोई समाधान नहीं निकलेगा। सद्भावना से ही यह प्रश्न सुलझ सकता है। संघ समाज में ऐसी ही सद्भावना कायम करने के लिए प्रयास कर रहा है।



नई दिल्ली, 18 अगस्त (हि.स.) । राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत ने कहा है कि आरक्षण मुद्दे का समाधान सहमति और सद्भावना से ही संभव है। आरक्षण के समर्थक और आरक्षण के विरोधी जब एक-दूसरे के विचारों एवं नजरिये को ध्यान में रखकर इस मुद्दे पर विचार करेंगे तो इस समस्या का हल एक मिनट में निकल आएगा।

डॉ. भागवत ने कहा कि सहमति एवं सद्भावना के अभाव में आरक्षण को लेकर बहस और पक्ष-विपक्ष में आंदोलन चलते रहेंगे, कोई समाधान नहीं निकलेगा। सद्भावना से ही यह प्रश्न सुलझ सकता है। संघ समाज में ऐसी ही सद्भावना कायम करने के लिए प्रयास कर रहा है।

सरसंघचालक डॉ. भागवत रविवार को इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय (इग्नू) में शिक्षा संस्कृति उत्थान न्यास की ओर से आयोजित दो दिवसीय ‘ज्ञानोत्सव- विक्रम संवत् 2076’  के समापन कार्यक्रम को संबोधित कर रहे थे। कार्यक्रम में एक श्रोता ने डॉ. भागवत से आरक्षण की व्यवस्था के बारे में प्रश्न पूछा था। इसके उत्तर में उन्होंने कहा कि मौजूदा समय में यह मामला विषय से भटक गया है। उन्होंने प्रश्नकर्ता के इस विचार से असहमति व्यक्त की कि आरक्षण की व्यवस्था समाप्त कर दी जानी चाहिए। उन्होंने कहा कि यदि आपकी बात मान ली जाए तो इसके खिलाफ जबर्दस्त आंदोलन होगा, फिर आप उस आंदोलन के खिलाफ आंदोलन करेंगे, यह क्रम चलता रहेगा। जहां तक सरकार का सवाल है वह आंदोलन और विरोध को ध्यान में रखकर ही फैसला करेगी।

उन्होंने कहा कि पिछले दिनों जब उन्होंने आरक्षण पर अपने विचार व्यक्त किये थे तो इसे लेकर बहुत हो हल्ला हुआ था। हालांकि हमें इससे कोई नुकसान नहीं हुआ। संघ लोकप्रियता हासिल करने के लिए अपने विचार नहीं रखता। हमें नफा-नुकसान से मतलब नहीं है। जहां तक सत्तारूढ़ पार्टी या सरकार का सवाल है उसे कोई फैसला करने के लिए दस बार सोचना पढ़ता है। किसी मुद्दे पर एक पक्ष की एक राय होती है, लेकिन सरकार एकमत नहीं बल्कि सर्वमत से चलती है।

डॉ. भागवत ने कहा कि यह भावना सही नहीं है कि केंद्र सरकार संघ की सरकार है। सत्तारूढ़ पार्टी भाजपा, सरकार और संघ तीनों अलग-अलग हैं। सत्तारूढ़ पार्टी की अपनी नीतियां और कार्यक्रम हो सकते हैं लेकिन उसकी सरकार को संविधान के अनुसार चलना होता है। सरकार में बैठे लोग संविधान की रक्षा की शपथ लेते हैं और संविधान के दायरे में ही काम करते हैं। इसी दायरे में रहते हुए वे संविधान में संशोधन कर सकते हैं। सरकार पूरे देश और देशवासियों की होती है, किसी राजनीतिक दल की नहीं। जहां तक संघ का प्रश्न है उसका सरकार से कोई लेना-देना नहीं है। सरकार में कुछ स्वयंसेवक हैं और उनके सामने संघ अपने विचार रख सकता है। लेकिन इन्हें मानना या न मानना उनके ऊपर है। इस संबंध में संघ का कोई आग्रह नहीं है। केंद्र सरकार अपने फैसलों के अनुकूल या प्रतिकूल परिणाम के लिए स्वयं जिम्मेदार है। पाप भी उनका है और पुण्य भी। अगर वे कोई गलत फैसला करते हैं तो उसका परिणाम उन्हें ही भुगतना होगा। संघ उन्हें बचाने वाला नहीं है।

सरसंघचालक ने देश की नौकरशाही की अंग्रेज परस्त मानसिकता पर तीखा हमला करते हुए कहा कि प्रशासन में बैठे लोगों को लोकसेवक की तरह काम करना चाहिए। अंग्रेजों के समय नौकरशाही ब्रिटिशराज के हितों के लिए काम करती थी, जनता के हित से उनका कोई सरोकार नहीं था। स्वतंत्रता के बाद नौकरशाही पुराने नजरिये और सोच से नहीं चल सकती। समय के अनुसार और जनकल्याण के लिए नौकरशाही को अपनी भाषा, आचार-व्यवहार और वेशभूषा को बदलना होगा। उन्होंने कहा कि यह काम धीरे-धीरे और बहुत धैर्य से करने की जरूरत है।

संघ प्रमुख ने कहा कि अंग्रेजी भाषा का प्रचलन केवल इंग्लैंड और उसकी पराधीनता में रहने वाले देशों में ही है। अन्य देशों में अपनी भाषा में ही संवाद और प्रशासनिक कामकाज होता है। चीन में चीनी, फ्रांस में फ्रेंच, रूस में रूसी और इजरायल में हिब्रू भाषा का ही उपयोग होता है। इन देशों में उच्च शिक्षा और शोध ही नहीं बल्कि अंतरराष्ट्रीय संपर्क में भी अपनी भाषा का ही उपयोग किया जाता है। जरूरत पढ़ने पर अनुवादक या भाषांतर करने वाले की मदद ली जाती है। उन्होंने कहा कि वह अंग्रेजी भाषा का विरोध नहीं करते और यह भाषा सीखने में कोई ऐतराज भी नहीं है। लेकिन एक संप्रभु तेजस्वी राष्ट्र बनने के लिए हमें अपना कारोबार अपनी ही भाषा में चलाना चाहिए। यही हमारी स्वतंत्रता की मांग है।

 


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