चुनाव हारने-जीतने से किसी के गलत-सही होने का फैसला नहीं होता

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खराब खाना दिये जाने की शिकायत की वजह से सीमा सुरक्षा बल से बर्खास्त किये गये जवान तेज बहादुर के द्वारा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ वाराणसी में चुनावी ताल ठोके जाने की वजह से सियासी हालातों ने सनसनीखेज मोड़ ले लिया था। समाजवादी पार्टी ने अपनी पूर्व घोषित प्रत्याशी शालिनी यादव को चुनाव मैदान से हटाकर तेज बहादुर यादव को अपना प्रत्याशी अधिकृत कर दिया। उधर उत्तर प्रदेश के योगी मंत्रिमंडल में शामिल और सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी के अध्यक्ष ओमप्रकाश राजभर ने भी तेज बहादुर यादव को समर्थन की घोषणा करते हुए उनसे मिलकर उन्हें गुलदस्ता भेंट कर डाला। इन लोगों को भी यह विश्वास नहीं था कि तेज बहादुर यादव प्रधानमंत्री को कोई कड़ी टक्कर दे पाएंगे, लेकिन उनकी उम्मीदवारी प्रधानमंत्री और उनकी पूरी पार्टी को ऐसी नैतिक चोट दे रही थी कि समूची भाजपा की विद्रूप तिलमिलाहट इसके चलते सोशल मीडिया पर छा गई। इस बीच तेज बहादुर का पर्चा खारिज होने के साथ यह प्रसंग एंटी क्लाइमेक्स की भेंट चढ़ चुका है। बहरहाल, अब समाजवादी पार्टी ने वाराणसी से अपने पूर्व घोषित उम्मीदवार शालिनी यादव पर ही दांव खेलने का फैसला कर लिया है। नतीजा चाहे कुछ भी हो, इतना तय है कि वाराणसी के चुनावी रण में अब शालिनी प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को टक्कर देंगी।
वैसे चुनाव हारने-जीतने से किसी के गलत-सही होने का फैसला नहीं होता। नेताजी सुभाष चंद्र बोस के नेतृत्व वाली आजाद हिंद फौज के तीन सबसे बड़े पदाधिकारियों में एक रहे कर्नल जीएस ढिल्लन को 1977 में जनता पार्टी ने कांग्रेस समर्थित माधवराव सिंधिया के खिलाफ उम्मीदवार बनाया था। तब जनता पार्टी की लहर इतनी तेज थी कि उत्तर प्रदेश की पूरी 85 सीटें उसने जीत ली थी। मध्य प्रदेश में भी 40 सीटों में से 39 सीटें जनता पार्टी के खाते में आई थी। लेकिन केवल एक सीट जहां महान देशभक्त कर्नल जीएस ढिल्लन उम्मीदवार थे, जनता पार्टी हार गई थी। वह भी उन माधवराव सिंधिया से जिनके पूर्वजों पर प्रथम स्वाधीनता संग्राम में अंग्रेजों का साथ देकर रानी लक्ष्मीबाई को मरवा देने का आरोप था।
एक और नजीर महात्मा गांधी के पौत्र और जाने-माने पत्रकार राजमोहन गांधी की है। राजमोहन गांधी को 1980 में जनता पार्टी के उम्मीदवार के रूप में मध्य प्रदेश की जबलपुर सीट से कांग्रेस के स्थानीय स्तर के नेता मुंदर शर्मा के मुकाबले जनता ने हरा दिया था। इसी के चलते मुंदर शर्मा को इंदिरा गांधी ने मध्य प्रदेश कांग्रेस का अध्यक्ष बना दिया था। विडंबना यह है कि 2 साल में ही मुंदर शर्मा का आकस्मिक निधन हो गया और जब जबलपुर में उपचुनाव हुआ तो कांग्रेस पराजित हो गई और भाजपा के बाबूराव परांजपे को लोगों ने जिता दिया। इसके बाद राजमोहन गांधी ने एक और कोशिश एक बार अमेठी में राजीव गांधी के मुकाबले की लेकिन यहां भी उन्हें हार का मुंह देखना पड़ा।
अपने जमाने की चर्चित और मशहूर पत्रिका सरिता के खिलाफ मध्य प्रदेश के कांग्रेस से टोपी वाला सरनेम वाले एक सांसद ने मानहानि का मुकदमा दायर किया था। सांसद महोदय ने इसमें दलील दी थी कि वे इतने बड़े बहुमत से जीते हैं। इसलिए समाज में उनका भारी सम्मान स्वयं सिद्ध है। जबलपुर हाईकोर्ट ने उनकी इस दलील को खारिज करते हुए कहा था कि चुनाव जीतना समाज में अति सम्मानित होने का प्रमाणपत्र नहीं माना जा सकता। चुनावी हार-जीत के पीछे कई कारक होते हैं। इस प्रसंग का उल्लेख इसलिए ताकि सनद रहे

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