राजनेताओं की बदजुबानी पर आयोग का ताला कब तक

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राजनीति की दशा और दिशा बिगड़ चुकी है। सत्ता के लिए जिस तरह राजनेताओं की जुबान चुनावी पिच पर फिसल रही है वह बेहद चिंतनीय है। राजनेताओं की बदजुबानी से यह अंदाजा लगाया जा सकता है कि हमारी राजनीति का चरित्र और चेहरा कितना गिर चुका है। देशभर से बदजुबानी की खबरें मीडिया की सुर्खियां बनती दिखती हैं। जमीनी मसले गायब हैं। गालियों पर चुनाव लड़ा जा रहा है। राजनीतिक दलों में एक-दूसरे पर कीचड़ उछालने की होड़ मची है। उम्मीदवारों पर व्यक्तिगत हमले किए जा रहे हैं। देवताओं को भी इस जंग में उतार दिया गया है। संविधान और चुनाव आयोग को खुली चुनौती दी जा रही है। चुनावी आचार संहिता की धज्जियां उड़ायी जा रही हैं। आयोग बदजुबान नेताओं पर कुछ घंटों का प्रतिबंध लगा कर अपने दायित्वों की इतिश्री कर रहा है, जबकि इस पर कठोर कार्रवाई की जानी चाहिए। देश की दो पार्टियों कांग्रेस और भाजपा का शीर्ष नेतृत्व भी इस जुबानी जंग में पीछे नहीं दिखता है। राजनीति के चरित्र में आयी यह गिरावट कितनी नीचे जाएगी, कहना मुश्किल है। हम गालियां देकर लोकतंत्र में कैसी विजय हासिल करना चाहते हैं? हालात इतने बिगड़ चुके हैं कि देश की सर्वोच्च अदालत को हस्तक्षेप करना पड़ रहा है।
यूपी में रामपुर संसदीय सीट से चुनाव मैदान में भाजपा उम्मीदवार फिल्म स्टार जयाप्रदा पर समाजवादी पार्टी के वरिष्ठ नेता आजम खान ने जिस तरह अभद्र टिप्पणी की, वह लोकतंत्र में गिरते सियासी चरित्र का सबसे घृणित उदाहरण है। उन्हें महिलाओं के आंतरिक वस्त्रों में खाकी झलकती है। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने हिंदू वोटों के ध्रुवीकरण के लिए बजरंगबली को चुनाव मैदान में उतार दिया। अली से उठी बात बजरंग बली तक पहुंच गयी। फिर आजम खान ने अली और बजरंग बली को एक साथ जोड़कर योगी का प्रतिवाद किया और नली तोड़ने का आग्रह किया। राज्य के पूर्व मंत्री और भाजपा नेता नरेश अग्रवाल भी क्यों पीछे रहते। उन्होंने बजरंग बली से दुश्मनों की नली तोड़ने तक का बचकाना बयान दे डाला। राज्य की पूर्व मुख्यमंत्री मायावती ने देवबंद की एक जनसभा में आचार संहिता की धज्जियां उड़ाते हुए मुस्लिम मतों के ध्रुवीकरण की अपील तक कर डाली। शिवसेना सांसद संजय राउत ने यहां तक कह दिया कि हम कोई आचार संहिता नहीं मानते। हमारी मर्जी में जो आएगा वह बोलेंगे। एक राजनेता ने तो राहुल गांधी के खिलाफ बेहद अपमानजनक टिप्पणी कर डाली। केन्द्रीय मंत्री उमा भारती ने कांग्रेस की महासचिव प्रियंका गांधी वाड्रा को चोर की पत्नी तक कह डाला। इस तरह के सैकड़ों उदाहरण हैं। गंदे सियासी जुमलों की शुरुआत 2014 के आम चुनावों में हुई थी। इस बार के चुनाव में यह बुलंदियां छू रहा है। चुनाव आयोग इस तरह के प्रवचनों पर रोक नहीं लगा पा रहा है। इस पर सख्त संज्ञान लेने की आवश्यकता है।
सवाल उठता है कि राजनेता इस तरह की बयानबाजी क्यों करते हैं। इसकी वजह क्या होती है। क्या बदजुबानी से उन्हें वोट मिल जाएगा या फिर वह मीडिया की सुर्खियां बनने के लिए इस तरह का बयान देते हैं। टीवी पत्रकारिता की भी स्थिति बेहद गिर चुकी है। कई चैनल टीआरपी बढ़ाने के लिए राजनेताओं की गालियों पर डिबेट आयोजित करते हैं। डिबेट में शामिल लोग अपनी बात रखने के लिए कितने नीचे गिर जाते हैं यह देखने को मिलता है। राजनेताओं के नामांकन के दौरान उनके जुलूस और भीड़ का कवरेज घंटों चलाया जाता है। जबकि आम लोगों के साथ विकास की जमीनी तस्वीर क्या है, उसे बेहद कम दिखाया जाता है। 70 सालों में शहरी और ग्रामीण इलाकों में गर्मी के मौसम में लोग साफ-सुथरे पानी, यातायात, सड़क, रोजगार, बिजली जैसी बुनियादी सुविधाओं से वंचित हैं। इस पर मीडिया डिबेट आयोजित नहीं करती है। एंकर इस तरह गला फाड़ते हैं कि जैसे वही न्यायाधीश हैं। खुलेआम बोलते हैं कि चैनल हमारा है। डिबेट में शामिल लोग जब इसका प्रतिरोध करते हैं तो उन्हें बोलने से बंद कर दिया जाता है। सवाल का जवाब लेने की बजाय कैमरे का रुख दूसरी तरह मोड़ दिया जाता है। अहम बात है कि राजनीतिक दल जमीनी सच्चाई से सामना नहीं करना चाहते हैं। वह सिर्फ ख्याली पुलाव और जुबानी जमा खर्च से चुनाव जीतना चाहते हैं। लोकतंत्र में स्वस्थ बहस के जरिये वह अपनी बात नहीं रखना चाहते। घोषणा पत्रों पर चर्चा करने और अपने सरकार की उपलब्धियां बताने से कतराते हैं। जुमलों का सहारा लेकर वोटरों की भावनाओं को जाति, धर्म के नाम पर भड़काते हैं। इस तरह के नेताओं की तादात बेहद कम है जो चुनाव जीतने के बाद अपने संसदीय क्षेत्र में जनता की समस्याओं से रुबरु होते हों। चुनाव जीतने के बाद राजनेता मुंह तक नहीं दिखाते। पांच साल बाद जब चुनाव आते हैं तो चरणबंदन पर उतर आते हैं।
लोकतंत्र में प्रतिपक्ष की भूमिका निभाने वाले राजनीतिक दलों की भूमिका भी नगण्य होती जा रही है। वह स्वस्थ बहस में शामिल नहीं होना चाहते हैं। वह राष्ट्रीय विकास में रचनात्मक भूमिका निभाने से भागते हैं। संसद सत्र का पूरा समय सिर्फ राजनीतिक अड़ंगेबाजी में खत्म हो जाती है। सरकार अगर कोई अच्छा कार्य करना भी चाहती है तो विपक्ष उसे कबूल तक नहीं करता। दूसरी तरफ प्रतिपक्ष अगर कोई सकारात्मक बात करता है तो सत्तापक्ष उसे संजीदगी से नहीं लेता। उसमें सत्ता का दंभ होता है। इसकी वजह से संसद से लेकर सड़क तक सकारात्मक माहौल नहीं बन पाता और जनता राजनेताओं की साजिश का शिकार होती है। वोट बैंक के लिए उसे धर्म, जाति, संप्रदाय, भाषा, नस्ल के आधार पर बांट दिया जाता है। चुनावों में इसी आधार पर वोटिंग भी होती है। नेता चुनने वाली जनता उनसे कभी सवाल नहीं पूछती है। स्वास्थ्य के लिए अस्पताल, चलने के लिए सड़क, पीने के लिए पानी भले उपलब्ध न हो लेकिन पांच साल बाद वह फिर जाति और धर्म से संबंधित नेताओं को ही वोट करेगी। विकास उसके लिए बहुत मायने नहीं रखता। देश में आम मतदाता लहर पर वोटिंग करता है। वह दागी, बागी, अपराधी और दौलतमंद जैसी छवि के उम्मीदवारों को भी अपना लेता है। इसकी वजह से उसे अनछुए विकास की पीड़ा झेलनी पड़ती है।
लोकतंत्र में चुनावों की गिरती साख को लेकर प्रबुद्ध समाज की चिंता बढ़ने लगी है। चुनाव आयोग को सुधार के लिए आगे आना चाहिए। अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर राजनीति में खुली छूट मिलनी बंद होनी चाहिए। चुनाव के दौरान गंदी जुबान से जहर फैलाने वाले नेताओं के चुनाव लड़ने पर कम से कम पांच साल का प्रतिबंध लगना चाहिए। दलबदल कानून को और कठोर बनाना चाहिए। नोटा में डाले गए मतों की नकारात्मक गणना होनी चाहिए। चुनाव में मतों के ध्रुवीकरण के लिए सांप्रदायिक सौहार्द बिगाड़ने वाले लोगों पर आपराधिक मुकदमा दर्ज होना चाहिए। गलतबयानी को अपराध की श्रेणी में रखना चाहिए। हालांकि 2019 में आयोग ने गलतबयानी पर कुछ सख्ती दिखायी है। नेताओं पर कुछ घंटों के प्रतिबंध जरूर लगाए गए हैं, लेकिन यह काफी नहीं है। आयोग को खुले मन से लोकतांत्रिक व्यवस्था की पारदर्शिता बनाए रखने के लिए आवश्यक कदम उठाने चाहिए। समय रहते आयोग ने अगर राजनेताओं की इस हरकत को गंभीरता से नहीं लिया तो लोकतांत्रित व्यवस्था में चुनावों की निष्पक्षता प्रभावित होगी।

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