पिछले कई साल से देश की अदालतों में ऐसे कर्जदारों के विरुद्ध मामले चल रहे हैं, जो जान-बूझकर बैंकों का कर्ज नहीं लौटा रहे हैं। ऐसे कर्जदारों के नाम सार्वजनिक करने पर भारतीय रिजर्व बैंक एवं वाणिज्यिक बैंक कई कायदे-कानूनों का हवाला देकर इन कर्जदारों के नाम सार्वजनिक करने से बचते हैं। लेकिन अब सर्वोच्च न्यायालय ने एक आदेश देकर सख्त हिदायत दी है, जिससे यह उम्मीद बढ़ी है कि इन विलफुल डिफाल्टरों के नाम जगजाहिर करने का रास्ता खुल जाएगा। न्यायालय ने कहा है कि रिजर्व बैंक की तरफ से बैंकों को लेकर जो सालाना जांच रिपोर्ट तैयार की जाती है, उसे सूचना का अधिकार कानून के तहत सार्वजनिक करना होगा। इस जांच रिपोर्ट में बैंकों के एनपीए ग्राहकों समेत उनकी तरफ से की जाने वाली तमाम गड़बड़ियों का खुलासा हो जाएगा।
वित्त राज्यमंत्री जयंत सिन्हा ने दिसंबर 2015 तक के आंकड़े राज्यसभा में पेश करते हुए कहा था कि कर्ज लेकर जान-बूझकर न लौटाने वाले प्रमुख लोगों अथवा कंपनियों के पास सार्वजनिक बैंकों का 1 लाख 21 हजार 832 करोड़ रुपये बकाया है। इस समय तक ऐसी धोखाधड़ी करने वालों की संख्या 5,554 थी, जो अब बढ़कर 7,686 हो गई है। ऐसे 9000 बैंक खाते हैं, जिनके खिलाफ बैंकों ने धन वसूली के मुकदमे देशभर की अदालतों में दायर किए हुए हैं। एक जानकारी से पता चला है कि 11 ऐसे कंपनी समूह हैं, जिन पर 1000 करोड़ रुपये से ज्यादा का बकाया है। अकेली ऐसी 11 कंपनियों पर 26000 करोड़ रुपये से ज्यादा एनपीए है। रिजर्व बैंक अब तक दावा करती रही है कि ऐसे मामलों में वह जानकारी नहीं दे सकती है, क्योंकि बैंक की वार्षिक निरीक्षण रिपोर्ट में न्यासीय जानकारी की गोपनीयता बनाए रखने की शर्त अंतर्निहित है। अब अदालत ने इसी जानकारी को आरटीआई के तहत खुलासा करने का निर्देश भारतीय रिजर्व बैंक को दिया है। साथ ही यह भी कहा है कि यदि इस आदेश की अवहेलना होती है तो इसे बेहद गंभीरता से लिया जाएगा। अदालत ने उन नीतियों को निरस्त करने की भी सलाह दी है, जिनके तहत बैंकों से जुड़ी गड़बड़ियों की कई जानकारियां सार्वजनिक नहीं हो पाती हैं।
वह कर्ज ही क्या, जो ब्याज समेत न लौटे। लेकिन ब्याज तो ब्याज, उद्योग जगत के बड़े कर्जदार, सार्वजनिक बैंकों का मूलधन भी नहीं लौटा रहे हैं। इस तथ्य से सभी भलीभांति परिचित हैं कि बैंक और साहूकार की कमाई कर्ज दी गई धनराशि पर मिलने वाले सूद से होती है। यदि ऋणदाता ब्याज और मूलधन की किस्त दोनों ही चुकाना बंद कर दें तो बैंक के कारोबारी लक्ष्य कैसे पूरे होंगे? हालात इतने बदतर हो गए हैं कि 40 सूचीबद्ध बैंकों के 4,43,691 करोड़ रुपये डूबंत खाते में आ गये हैं। ऐसी कंपनियों की संख्या लगभग 1100 है, जो वर्षों से किस्त नहीं चुका रही हैं। चूंकि सरकार और बैंक इस कर्ज को वसूलने के लिए सख्ती से पेश नहीं आ रहे हैं। इसलिए यह आशंका भी पनप रही है कि सरकार और बैंकों की सांठगांठ के चलते आम जनता की गाढ़ी कमाई की पूंजी हड़पने के लिए कुछ बड़े कार्पोरेट घरानों ने यह सुनियोजित ढंग से षड्यंत्र रचा है। सबसे ज्यादा 51 फीसदी कर्ज विनिर्माण, लौह अयस्क एवं इस्पात, कपड़ा, विमानन, खनन और ऊर्जा क्षेत्र की कंपनियों के पास है। हैरानी इस बात पर भी है कि बैंक और सरकार इन कर्जदारों के नामों की अधिकृत सूची भी सार्वजनिक नहीं करते हैं। जिस तरह से कालाधन के जमाखोरों के नाम छिपाने की कोशिशें रही हैं, उसी तर्ज पर इन उद्योगपतियों के नामों पर पर्दा पड़ा हुआ है। इस बाबत उद्योगपतियों की दलील है कि कंपनियों ने कर्ज लेकर जो निवेश किया, वह अर्थव्यवस्था की बदहाली के कारण लाभदायी नहीं रहा। कर्ज में डूबी 1129 ऐसी कंपनियां हैं, जिन पर निरंतर कर्ज बढ़ रहा है। इनमें से 311 कंपनियों ने 2 बैंकों से, 285 ने 3 बैंकों से, 297 कंपनियों ने 4 बैंकों से, 3 कंपनियों ने 6 बैंकों से, 4 कंपनियों ने 7 बैंकों से, 4 कंपनियों ने 8 बैंकों से और 2 कंपनियों ने 9 बैंकों से कर्ज ले रखा है। इस बढ़े एनपीए के चलते बैंकों की आमदनी और उनकी नई शाखाओं के विस्तार पर बुरा असर पड़ा है। इस वजह से बैंक सुचारू रूप से चल रही परियोजनाओं को नया कर्ज नहीं दे पा रहे हैं। इससे इन परियोजनाओं और कारखानों का उत्पादन सीमित रह गया है। इसका असर देश की अर्थव्यस्था पर पड़ रहा है। यदि यही कर्जदार लघु, मंझोले या किसान होते तो इनकी संपत्ति कुर्क हो गई होती। रिजर्व बैंक के नियम तो ये हैं कि यदि कोई ऋणी तीन महीने तक किस्तें नहीं चुकाता है तो उसे दोषी की श्रेणी में डाल दिया जाए। लेकिन एनपीए के सूरमाओं ने किस्तें तो चुकाई ही नहीं, कई-कई बैंकों से कर्ज लेने में जरूर सफल हो गए। माल्या, नीरव, मेहुल और ललित मोदी इस हकीकत को बयान करने वाले लोग हैं।
देश के बैंकों में जमा पूंजी करीब 80 लाख करोड़ है। इसमें 75 प्रतिशत राशि छोटे बचतकर्ताओं और आम जनता की है। कायदे से तो इस पूंजी पर नियंत्रण सरकार का होना चाहिए, जिससे जरूरतमंद किसानों, शिक्षित बेरोजगारों और लघु व मझोले उद्योगपतियों की पूंजीगत जरूरतें पूरी हो सकें। लेकिन दुर्भाग्य से यह राशि बड़े औद्योगिक घरानों के पास चली गई है और वे न उसे केवल दबाये बैठे हैं, बल्कि देश-विदेश में गुलछर्रे उड़ा रहे हैं। उधर फसल उत्पादक किसान आत्महत्या कर रहा है।
जिस वक्त केंद्र में संप्रग की सरकार थी और अर्थव्यवस्था की गुलाबी तस्वीर पेश की जा रही थी, उसी वक्त तत्कालीन वित्तमंत्री चिदंबरम ने एक बेलाग सच्चाई से अवगत कराते हुए कहा था, ‘गरीब कर्जदारों की वजह से कभी भी बैंकों का हजारों करोड़ रुपये का वैसा नुकसान नहीं हुआ, जैसे अभी-अभी किंगफिशर एयरलाइंस के डिफाल्टर के कारण हुआ है। यह घटना अपवाद नहीं है, बल्कि ऐसे कई डिफाल्टर हैं।’ उसी समय चिदंबरम ने वित्तीय संस्थानों को सलाह देते हुए कहा था, ‘भारत में गरीब बुरे कर्जदार कतई नहीं हैं। वे ईमानदार हैं। गरीब नैतिक दृष्टि से मजबूत और पारंपरिक ज्ञान में दक्ष हैं। इसलिए उन्हें अधिक कर्ज देने की जरूरत है।’ बावजूद यह विडंबना ही है कि औद्योगिक घरानों को आसानी से हजारों करोड़ का कर्ज मिल जाता है, जबकि छोटे कर्जदारों को बैंकों के कई-कई चक्कर लगाने होते हैं। विसंगति यह भी है कि उद्योगों के लिए कम ब्याज दर पर कर्ज मिलता है। इन बाधाओं की वजह से नवीन उद्यमियों व नवोन्मेषियों को अपना कारोबार शुरू करना ही मुश्किल होता है। घर के लिए कर्ज लेना भी कठिन होता है। यही वजह है कि आम आदमी सूदखोर महाजनों के चंगुल में फंसता जा रहा है। ऐसी विषम कठिनाइयों के चलते माइक्रो फाइनेंस का धंधा पूरे देश में फला-फूला है, जबकि ये 30 फीसदी की ऊंची सालाना ब्याज दर पर गरीब और मध्य वर्ग के लोगों को कर्ज देते हैं। लेकिन यह कर्ज का ऐसा दुष्चक्र है, जिसमें फंसकर व्यक्ति उबर नहीं पाता। यहां तक कि कई कर्जदार आत्मघाती कदम उठाने को मजबूर हो जाते हैं। इस हकीकत से पता चलता है कि बैंकिंग क्षेत्र कमजोर तबकों का सहारा बनने में नाकाम रहे हैं। इसके विपरीत यही बैंक धनी वर्ग की सुख-सुविधाएं बढ़ाने, औद्योगिक क्षेत्र के वित्तीय स्रोत खोलने और कुप्रबंधन के चलते डूबने वाली कंपनियों को उबारने का जरिया जरूर बने हैं।
कर्ज का सूद समेत नहीं लौटने का असर नई और अधूरी परियोजनाओं पर पड़ रहा है। दरअसल, कर्ज के रूप में दी गई धनराशि के लौटने से ही उसका फिर से निवेश संभव है। एनपीए की समस्या को नीतिगत स्तर पर भी देखने की जरूरत है। भारत में किसी कंपनी को दिवालिया घोषित करने और उसकी संपत्ति की नीलामी की प्रक्रिया पूरी करने में लंबा समय लगता है। नियमों में शिथिलता के चलते ही देश की अदालतों में दिवालिया घोषित करने और संपत्ति की कुर्की से जुड़े 60 हजार प्रकरण विचाराधीन हैं। लिहाजा इन लचर नियमों को ‘चैक बाउंस’ से संबंधित मामलों की तरह चुस्त-दुरस्त करने की जरूरत है। इस दृष्टि से बैंक द्वारा एक ही कंपनी और कंपनी समूह को कर्ज देने की सीमा भी निर्धारित करना जरूरी है। फिलहाल कोई बैंक अपनी कुल पूंजी का 25 प्रतिशत तक सिर्फ एक कंपनी को और 55 फीसदी तक किसी एक कंपनी समूह को कर्ज दे सकता है। यह लोच बैंक अधिकारियों को उदारता से ऋण मंजूर करने का अधिकार देता है। बैंकों में कदाचरण भी ऐसे ही झोलों के चलते पनपा है। बैंक प्रबंधक की जवाबदेही, सुनिश्चित करने और कर्ज नहीं चुकाने वालों पर दंडात्मक कार्रवाई के कानूनी उपायों की भी जरूरत है। शायद इसीलिए न्यायालय ने इस तथ्य की भी पड़ताल करने की इच्छा जताई है कि बैंकों के पास धन वसूलने की उचित प्रणाली मौजूद है अथवा नहीं? संभव है अब कर्ज वसूली की प्रक्रिया में भी सुधार आ जाए।