सामान्य राजनीतिक शिष्टाचार भी खो रही कांग्रेस : सियाराम पांडेय ‘शांत’
राज्यसभा के उपसभापति के चुनाव में राजग प्रत्याशी हरिवंश नारायण सिंह की विजय के बाद कांग्रेस बौखला गई है। लोकतंत्र में हार-जीत सामान्य बात है, लेकिन राजनीतिक शिष्टाचार बनाए रखना ही लोकतंत्र की ताकत और विशेषता है। लेकिन लगता है कि कांग्रेस ने सामान्य राजनीतिक शिष्टाचार से भी तौबा कर लिया है। उपसभापति हरिवंश की जीत के बाद राज्यसभा के सभापति एम. वेंकैया नायडू ने सभी पार्टियों को राजनीतिक भोज दिया, लेकिन कांग्रेस ने उससे भी यह कहते हुए किनारा कर लिया कि राज्यसभा में सभापति ने उन्हें राफेल पर बोलने का पर्याप्त मौका नहीं दिया। मानसून सत्र के अंतिम दिन उसने जिस तरह से राफेल मुद्दे पर हंगामा किया, उससे तीन तलाक जैसा महत्वपूर्ण बिल राज्यसभा में पेश नहीं हो सका। अब यह संसद के शीतकालीन सत्र में पास हो सकता है। मोदी सरकार चाहे तो इसपर अध्यादेश भी ला सकती है। कांग्रेस के मौजूदा आचरण से मुस्लिम महिलाएं भी आहत हुई हैं और इसका असर 2019 के लोकसभा चुनाव में दिखना लगभग तय माना जा रहा है।
कांग्रेस की खिसियाहट इस बात से भी है कि मोदी सरकार को बांधने के लिए हर तरह के पाश फेंकने के बाद भी वह अपने मंसूबे में काम नहीं हो पा रही है। विपक्ष की एकता का ढोल कसने और उसे अनुशासन की लय में लाने का वह जितना ही प्रयास करती है, उतनी ही जल्दी ढोल फट जाती है। विपक्ष एकता की अब तक उसकी कवायद कुछ खास रंग नहीं ला पाई है और अब तो यह स्थिति है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को पानी पी-पीकर कोसने वाले राजनीतिक दल भी कांग्रेस नीत चुनावी गठबंधन में शामिल होने में हिचक रहे हैं। कुछ तो इसके लिए सीधे तौर पर राहुल गांधी को जिम्मेदार मानते हैं। आम आदमी पार्टी ने तो खुलकर कह दिया है कि वह किसी भी तरह के चुनावी राजनीतिक गठबंधन का हिस्सा इसलिए नहीं बनेगी क्योंकि कांग्रेस और राहुल गांधी गठबंधन का हिस्सा होंगे। इस तरह की सोच रखने वाली आम आदमी पार्टी अकेली नहीं है। कुछ अन्य राजनीतिक दल भी इसी तरह का ख्याल रखते हैं। आम आदमी पार्टी ने तो यहां तक कह दिया है कि अगर राहुल गांधी संसद में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के गले लग सकते हैं तो अपने उम्मीदवार के लिए हमसे समर्थन तो मांग ही सकते थे।
राज्यसभा में उपसभापति चुनाव से पूर्व कांग्रेस ने दावा किया था कि उसे अपने 61 सदस्यों के अलावा तृणमूल कांग्रेस और समाजवादी पार्टी के 13-13 सदस्यों, टीडीपी के छह, सीपीएम के पांच, बीएसपी और डीएमके के चार-चार सदस्यों, सीपीआई के दो और जेडीएस के एक सदस्य का भी समर्थन मिलेगा। ऐसा होता तो उसे 111 मत मिलते, लेकिन वह 101 मतों पर ही सिमट गई। कांग्रेस ने अपना प्रत्याशी उतारकर जहां सहयोगी दलों का दिल तोड़ दिया वहीं बीजेपी ने सहयोगी दल जेडीयू के सांसद को अपना समर्थन देकर विपक्ष का भी दिल जीत लिया। इसे कहते हैं त्याग की ताकत। कांग्रेस दोनों हाथों से बटोरना चाहती है। वह बस अपना भला चाहती है जबकि बीजेपी सबका साथ-सबका विकास की रीति-नीति में यकीन रखती है। यही वजह है कि बीजेपी को चुनाव पूे दावे 126 के मुकाबले सिर्फ एक सीट कम मिली जबकि कांग्रेस के हाथ एक बार फिर राजनीतिक लिहाज से खाली ही रहे। कांग्रेस ने कहा था कि अगर बीजेपी के पास राज्यसभा में पर्याप्त संख्या होती तो वह अपना प्रत्याशी उतारती, सहयोगी दल के चेहरे पर विश्वास नहीं करती। विपक्ष की इस राय में दम है। अगर कांग्रेस अपना उम्मीदवार देने की बजाय उनकी पार्टी से चेहरा आगे करती तो ज्यादा वोट मिलते। यह और बात है कि विपक्ष इस बात को मानने के लिए बिल्कुल भी तैयार नहीं है कि हरिवंश की जीत से विपक्षी एकता को कोई झटका लगा है। भले ही विपक्ष इस मामले में अपना बहादुर चेहरा दिखाने की कोशिश करे, लेकिन सच तो वह भी बेहतर समझता है।
गठबंधन की जिस नाव पर सवार होकर कांग्रेस और उसका राजनीतिक गठबंधन चुनावी वैतरणी पार करना चाहता है, उसमें कई छेद हैं। ऐसे छेद, जिनकी ओवरहॉलिंग जरूरी है। चिप्पी लगाने से काम नहीं होने वाला। राहुल गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस डूबती हुई जहाज है, इस बात का पता कांग्रेस को भी है। मोदी सरकार के खिलाफ लोकसभा चुनाव में विश्वासमत के दौरान विपक्ष ने पूरे देश को अपनी ताकत दिखाई थी, लेकिन मतदान के समय विपक्ष ताश के पत्तों की तरह बिखर गया। कुछ मुद्दों पर विपक्ष को सरकार को घेरने का मौका भी मिला लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जिस तरह विपक्ष खासकर कांग्रेस को धोया, उससे विपक्ष को सिर उठाते नहीं बना। कांग्रेस अपने ही बुने मकड़जाल में उलझ गई थी। हालिया चुनाव भले ही राज्यसभा के उपसभापति के पद के लिए रहा हो, लेकिन इसके नतीजे वर्ष 2019 के लोकसभा चुनाव पर असर न डालें, ऐसा मुमकिन नहीं है। इसकी एक बड़ी वजह हरिवंश का उत्तर प्रदश से होना है। उत्तर प्रदेश सबसे बड़ा राज्य है। सबसे ज्यादा लोकसभा सीटें उत्तर प्रदेश में हैं। उत्तर प्रदेश से प्रधानमंत्री, उत्तर प्रदेश से राष्ट्रपति, उत्तरप्रदेश से गृहमंत्री और अब उत्तर प्रदेश से राज्यसभा के उपसभापति का चयन पूर्वांचल और अवध को खास अहमियत तो देता ही है और इसका मनोवैज्ञानिक असर पड़ना तय है। नरेंद्र मोदी और अमित शाह पहले ही कह चुके हैं कि उत्तर प्रदेश ही तय करेगा कि देश में किसकी सरकार बनेगी? राज्यसभा में कुल 244 राज्यसभा सदस्य हैं, उनमें से 232 सांसदों ने उपसभापति के चुनाव में भाग लिया। 125 सदस्यों ने हरिवंश सिंह को वोट किया जबकि कांग्रेस के बीके हरिप्रसाद को 101 वोट मिले। दो सदस्य वोटिंग के दौरान गैरहाजिर रहे और 16 सांसदों ने मतदान में भाग ही नहीं लिया। एनडीए बहुमत के आंकड़े से दूर था जबकि विपक्ष के सभी दलों को मिलाकर बहुमत के लिए पर्याप्त सीटें थी। इसके बाद भी एनडीए प्रत्याशी की जीत ने तथाकथित विपक्षी एकता की पोल खोल दी है।
एनडीए के पास राज्यसभा में केवल 95 सदस्य थे। ऐसे में उसने न केवल अपने सहयोगी दलों को साधा, बल्कि विपक्ष के कई दलों का भी समर्थन हासिल किया। राजनीतिक दिग्गज इस चुनाव के मायने भी निकालने लगे हैं। एआईएडीएमके, बीजेडी और टीआरएस ने एनडीए को समर्थन देकर एक बार फिर साबित कर दिया है कि वे विपक्ष में तो हैं, लेकिन मोदी सरकार की जरूरत के साथी भी हैं। राष्ट्रपति के चुनाव में भी उक्त तीनों दलों ने एनडीए का समर्थन किया था। मोदी सरकार के खिलाफ लाए अविश्वास प्रस्ताव के दौरान एआईएडीएमके ने अगर सरकार के पक्ष में मतदान किया तो बीजेडी और टीआरएस ने मतदान में भाग ही नहीं लिया था। राज्यसभा के उपसभापति चुनाव में कांग्रेस को भले ही तेलुगुदेशम पार्टी का समर्थन मिला हो लेकिन एआईएडीएमके, टीआरएस और बीजेडी का दिल जीतने में कांग्रेस कामयाब नहीं हो पाई। आम आदमी पार्टी, वाईएसआर कांग्रेस और पीडीपी ने राज्यसभा के उपसभापति चुनाव मतदान से खुद को बाहर रखा। इन दलों की तटस्थता का मतलब है कि वे विपक्ष में रहते हुए भी कांग्रेस के साथ नहीं है। कुल मिलाकर देखा जाए तो कांग्रेस के साथ जुड़ना विपक्ष की मजबूरी हो सकती है लेकिन मजबूरी में किया गया सहयोग प्रभावी नहीं होता। यह बात कांग्रेस जितनी जल्दी समझ ले उतना ही अच्छा है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ठीक ही कहा है कि सदन में हरिकृपा रहेगी। जीते-हारे कोई भी। उनका आशय दोनों उम्मीदवारों के नाम में हरि जुड़ा होने से था। कांग्रेस इसे भी अपने प्रत्याशी के अपमान से जोड़कर देख रही है। विरोध का चश्मा चढ़ा हो तो सकारात्मकता दिमाग से भी बाहर हो जाती है। कांग्रेस को अपना चश्मा बदलना होगा। उसे बीजेपी से बड़ी रेखा खींचनी होगी। अपने स्तर पर देश में विकास का माहौल बनाना होगा। यही उसके पुनरुत्थान का मार्ग भी है। बीजेपी सधे हुए अंदाज में आगे बढ़ रही है, इस चुनाव से उसका मनोबल बढ़ा है और वह इस प्रतीति से युक्त भी हो गई है कि आत्मबल हो और नीयत साफ हो तो गठबंधन के विरोधी घटाटोप भी बाल बांका नहीं कर सकते।
(हिन्दुस्थान समाचार)