साझा रैली से मुस्लिम ध्रुवीकरण का प्रयास
उत्तर प्रदेश में रविवार को 25 साल बाद समाजवादी पार्टी (सपा) और बहुजन समाज पार्टी (बसपा) की साझा चुनावी रैली हुई। दुनिया के सबसे बड़े इस्लामिक सेंटर देवबंद से इन दलों ने अपनी चुनावी हसरतों को पंख दिए। किसी ने कहा कि नाटकबाजी से भाजपा को कोई लाभ नहीं होने वाला तो किसी ने कहा कि चौकीदार की चौकी छीन लेंगे। किसी ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के शब्द ज्ञान पर तो कटाक्ष किया कि लेकिन चौकीदार की चौकी छीनने की बात कहकर यह भी साबित किया कि शब्द ज्ञान के मामले में वे खुद कितने अपरिपक्व हैं। मेरठ में मोदी ने सपा, रालोद और बसपा के प्रथमाक्षर की युति से जो शब्द बनाया था, वह सराब था। सराब का शाब्दिक अर्थ मृगतृष्णा, मृग मरीचिका होता है। हालांकि मोदी का आशय इन दलों को शराब बताना था। पीएम के आशय को इन दलों ने सही समझ लिया। अब बात चौकीदार की। चौकीदार एक शब्द है। वह दो शब्दों से मिलकर बना ही नहीं है। चौकीदार में चौकी तो जुड़ा है लेकिन चौकी से चौकीदार का कोई रिश्ता न पहले था और न आज है। गठबंधन ने देवबंद में रैली कर अपनी एकता का परिचय दिया है। यह साबित करने की कोशिश की है कि उनका गठबंधन मिलावटी नहीं, पाकीजा है। वैसे देवबंद में गठबंधन की साझा रैली का एक ही मतलब है मुस्लिम ध्रुवीकरण की कवायद। इसे निर्वाचन आयोग ने भी समझ लिया है। तभी तो उसने मायावती के बयान पर संज्ञान लेते हुए जवाब मांगा है।
भाजपा के कुछ नेताओं का तर्क है कि यह गठबंधन बस चुनावभर का है। चुनाव नतीजे आते ही इसका टूटना स्वाभाविक है। यह बाद की बात है। अभी तो बसपा नेत्री मायावती उत्साहित हैं। भीड़ देखकर नेताओं का उत्साहित होना सहज भी है। मायावती ने तो यहां तक कह दिया कि यहां की भीड़ अगर मोदीजी देख लेंगे तो पागल हो जाएंगे। यह शायद पश्चिम बंगाल में भीड़ देखकर की गई प्रधानमंत्री की प्रतिक्रिया का जवाब था। भीड़ जीत का मानक नहीं होती। लेकिन वह चुनाव लड़ने वालों का विश्वास जरूर बनती है। भीड़ देखकर नेता मुगालते में आते रहते हैं। लेकिन निर्णय तो मतदाता स्वविवेक के आधार पर ही करता है। वह पार्टियों के गुण-दोष का भी विचार करता है। उनके वादों को भी अपनी कसौटी पर परखता है। सपा-बसपा और रालोद ने मुस्लिमों को साधने के लिए देवबंद को चुना। लेकिन मुस्लिम मायावती की गद्दार वाली टिप्पणी को कैसे भूल सकते हैं? सपा, बसपा हो या रालोद या कांग्रेस सभी केवल मुस्लिमों का इस्तेमाल करती रहीं और मतलब निकल जाने पर उन्हें दूध की मक्खी की तरह फेंक देती रही। मायावती ने इस बार पश्चिमी उत्तर प्रदेश की अधिकांश मुस्लिम और दलित बहुल सीटों पर अपने प्रत्याशी उतारे हैं क्योंकि उन्हें भरोसा नहीं था कि अखिलेश अपने यादव वोट उनके दलित प्रत्याशियों के पक्ष में ट्रांसफर नहीं करा पाएंगे। कमोवेश यही स्थिति जाट मतों के साथ भी है। इसीलिए उन्होंने प्रत्याशी उतारते वक्त भी दलित-मुस्लिम फार्मूला बना रखा है। अतीत की यादें, विगत के दर्द शूल न बनें तो मायावती की चुनावी गाड़ी अभी तो पटरी पर है लेकिन जहां तक भीड़ देखकर चुनावी प्रतिक्रिया का सवाल है तो मायावती की सभा में भीड़ कभी कम नहीं हुई। मायावती ने इस रैली के जरिये कांग्रेस और भाजपा दोनों पर ही निशाना साधा है। उन्होंने राहुल गांधी के अति गरीबों को छह हजार रुपये प्रतिमाह देने के वादे पर सवाल उठाते हुए कहा है कि गरीबी छह हजार देने से नहीं, हर हाथ को काम देने से मिटेगी।
मायावती ही नहीं, अखिलेश को भी यह बात समझ में आ गई है कि कांग्रेस ‘खेलब न खेलय देब,खेलब त खेलवय बिगारब’ की रीति-नीति पर काम कर रही है। उसे पता है कि वह खुद तो जीतेगी नहीं, लेकिन सपा-बसपा को भी जीतते नहीं देखना चाहती। मायावती ने तो रैली में मौजूद लोगों को इस बाबत आगाह किया ही, अखिलेश ने भी नहले पर दहला रखने में कोई कोर-कसर शेष नहीं रखी है। उन्होंने कहा कि कांग्रेस और भाजपा एक ही हैं। दोनों का उसूलों और सिद्धांतों से कोई लेना-देना नहीं है। दोनों ही सत्ता के भूखे हैं। दोनों को चुनाव के दौरान ही गरीबों की याद आती है।
देबबंद में साझा रैली का आगाज करने के पीछे भी सपा-बसपा और रालोद की विशेष रणनीति रही है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में सबसे बड़ा निर्णायक वोट दलितों, मुस्लिमों और जाटों का है। मुस्लिमों पर कांग्रेस की भी नजर है। मुस्लिम भाजपा को वोट देने से अमूमन कतराते हैं। पीएम मोदी के सबका साथ-सबका विकास के नारे पर सवाल उठाकर मायावती ने मुस्लिमों को जहां उनसे दूर करने की कोशिश की है, वहीं उन्हें यह समझाने की भी कोशिश की है कि कांग्रेस को वोट दिया तो भाजपा जीत जाएगी। पश्चिमी उत्तर प्रदेश की 8 लोकसभा सीटों पर 11 अप्रैल को मतदान होना है। इस रैली के जरिये गठबंधन की कोशिश एक साथ पश्चिम की करीब 5 लोकसभा सीटों पर मतदाताओं को अपनी ओर आकर्षित करना भी रहा है। देवबंद के जरिए सपा-बसपा और रालोद ने सहारनपुर के साथ-साथ कैराना, मुजफ्फरनगर, बागपत और बिजनौर लोकसभा सीट को एक साथ फोकस किया। पश्चिमी उत्तर प्रदेश मुसलमानों की सबसे बड़ी बेल्ट है। सहारनपुर, मुजफ्फरनगर, मेरठ, बिजनौर, अमरोहा, बुलंदशहर और मुरादाबाद जिले में मुस्लिम मतदाता निर्णायक भूमिका में हैं। चुनाव के पहले चरण में पड़ने वाली आठ सीटों पर मुस्लिम मतदाताओं की संख्या 25 प्रतिशत से भी अधिक है। कैराना में 26, मेरठ में 31, बागपत में 20, मुजफ्फरनगर में 31, सहारनपुर में 38, गाजियाबाद में 19 और बिजनौर में 38 फीसदी मुसलमान हैं। गौतमबुद्धनगर सीट पर 14 फीसदी मुस्लिम मतदाता हैं। अकेले देवबंद तहसील में ही करीब 40 प्रतिशत मुसलमान हैं, जबकि यहां 25 प्रतिशत दलित आबादी है। जाटों और दलितों के बीच टकराव किसी से छिपा नहीं है। 2013 के मुजफ्फरनगर दंगे में तो मुसलमान और जाट आमने-सामने आ गए थे। जाटों और मुसलमानों के बीच अक्सर संघर्ष की स्थिति बनती रही है। जाट नेता अजित चौधरी और मायावती का गठजोड़ क्या जाटों और दलितों के बीच के मनमुटाव दूर कर पाएगा। क्या मुस्लिमों और जाटों के गिले-शिकवे दूर हो पाएंगे, यह विचार का विषय है। मायावती कह रही हैं कि अगर ईवीएम में गड़बड़ी न हुई तो देश में सरकार गठबंधन की ही बनेगी, इसका मतलब अपनी जीत को लेकर उनके मन में कहीं न कहीं संशय तो है ही।
पिछले चुनाव में पश्चिमी उत्तर प्रदेश की सभी सीटें भाजपा की झोली में चली गई थीं। देखना दिलचस्प होगा कि पश्चिमी उत्तरप्रदेश के मतदाता इस बार 11 अप्रैल को क्या गुल खिलाते हैं।
भाजपा के कुछ नेताओं का तर्क है कि यह गठबंधन बस चुनावभर का है। चुनाव नतीजे आते ही इसका टूटना स्वाभाविक है। यह बाद की बात है। अभी तो बसपा नेत्री मायावती उत्साहित हैं। भीड़ देखकर नेताओं का उत्साहित होना सहज भी है। मायावती ने तो यहां तक कह दिया कि यहां की भीड़ अगर मोदीजी देख लेंगे तो पागल हो जाएंगे। यह शायद पश्चिम बंगाल में भीड़ देखकर की गई प्रधानमंत्री की प्रतिक्रिया का जवाब था। भीड़ जीत का मानक नहीं होती। लेकिन वह चुनाव लड़ने वालों का विश्वास जरूर बनती है। भीड़ देखकर नेता मुगालते में आते रहते हैं। लेकिन निर्णय तो मतदाता स्वविवेक के आधार पर ही करता है। वह पार्टियों के गुण-दोष का भी विचार करता है। उनके वादों को भी अपनी कसौटी पर परखता है। सपा-बसपा और रालोद ने मुस्लिमों को साधने के लिए देवबंद को चुना। लेकिन मुस्लिम मायावती की गद्दार वाली टिप्पणी को कैसे भूल सकते हैं? सपा, बसपा हो या रालोद या कांग्रेस सभी केवल मुस्लिमों का इस्तेमाल करती रहीं और मतलब निकल जाने पर उन्हें दूध की मक्खी की तरह फेंक देती रही। मायावती ने इस बार पश्चिमी उत्तर प्रदेश की अधिकांश मुस्लिम और दलित बहुल सीटों पर अपने प्रत्याशी उतारे हैं क्योंकि उन्हें भरोसा नहीं था कि अखिलेश अपने यादव वोट उनके दलित प्रत्याशियों के पक्ष में ट्रांसफर नहीं करा पाएंगे। कमोवेश यही स्थिति जाट मतों के साथ भी है। इसीलिए उन्होंने प्रत्याशी उतारते वक्त भी दलित-मुस्लिम फार्मूला बना रखा है। अतीत की यादें, विगत के दर्द शूल न बनें तो मायावती की चुनावी गाड़ी अभी तो पटरी पर है लेकिन जहां तक भीड़ देखकर चुनावी प्रतिक्रिया का सवाल है तो मायावती की सभा में भीड़ कभी कम नहीं हुई। मायावती ने इस रैली के जरिये कांग्रेस और भाजपा दोनों पर ही निशाना साधा है। उन्होंने राहुल गांधी के अति गरीबों को छह हजार रुपये प्रतिमाह देने के वादे पर सवाल उठाते हुए कहा है कि गरीबी छह हजार देने से नहीं, हर हाथ को काम देने से मिटेगी।
मायावती ही नहीं, अखिलेश को भी यह बात समझ में आ गई है कि कांग्रेस ‘खेलब न खेलय देब,खेलब त खेलवय बिगारब’ की रीति-नीति पर काम कर रही है। उसे पता है कि वह खुद तो जीतेगी नहीं, लेकिन सपा-बसपा को भी जीतते नहीं देखना चाहती। मायावती ने तो रैली में मौजूद लोगों को इस बाबत आगाह किया ही, अखिलेश ने भी नहले पर दहला रखने में कोई कोर-कसर शेष नहीं रखी है। उन्होंने कहा कि कांग्रेस और भाजपा एक ही हैं। दोनों का उसूलों और सिद्धांतों से कोई लेना-देना नहीं है। दोनों ही सत्ता के भूखे हैं। दोनों को चुनाव के दौरान ही गरीबों की याद आती है।
देबबंद में साझा रैली का आगाज करने के पीछे भी सपा-बसपा और रालोद की विशेष रणनीति रही है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में सबसे बड़ा निर्णायक वोट दलितों, मुस्लिमों और जाटों का है। मुस्लिमों पर कांग्रेस की भी नजर है। मुस्लिम भाजपा को वोट देने से अमूमन कतराते हैं। पीएम मोदी के सबका साथ-सबका विकास के नारे पर सवाल उठाकर मायावती ने मुस्लिमों को जहां उनसे दूर करने की कोशिश की है, वहीं उन्हें यह समझाने की भी कोशिश की है कि कांग्रेस को वोट दिया तो भाजपा जीत जाएगी। पश्चिमी उत्तर प्रदेश की 8 लोकसभा सीटों पर 11 अप्रैल को मतदान होना है। इस रैली के जरिये गठबंधन की कोशिश एक साथ पश्चिम की करीब 5 लोकसभा सीटों पर मतदाताओं को अपनी ओर आकर्षित करना भी रहा है। देवबंद के जरिए सपा-बसपा और रालोद ने सहारनपुर के साथ-साथ कैराना, मुजफ्फरनगर, बागपत और बिजनौर लोकसभा सीट को एक साथ फोकस किया। पश्चिमी उत्तर प्रदेश मुसलमानों की सबसे बड़ी बेल्ट है। सहारनपुर, मुजफ्फरनगर, मेरठ, बिजनौर, अमरोहा, बुलंदशहर और मुरादाबाद जिले में मुस्लिम मतदाता निर्णायक भूमिका में हैं। चुनाव के पहले चरण में पड़ने वाली आठ सीटों पर मुस्लिम मतदाताओं की संख्या 25 प्रतिशत से भी अधिक है। कैराना में 26, मेरठ में 31, बागपत में 20, मुजफ्फरनगर में 31, सहारनपुर में 38, गाजियाबाद में 19 और बिजनौर में 38 फीसदी मुसलमान हैं। गौतमबुद्धनगर सीट पर 14 फीसदी मुस्लिम मतदाता हैं। अकेले देवबंद तहसील में ही करीब 40 प्रतिशत मुसलमान हैं, जबकि यहां 25 प्रतिशत दलित आबादी है। जाटों और दलितों के बीच टकराव किसी से छिपा नहीं है। 2013 के मुजफ्फरनगर दंगे में तो मुसलमान और जाट आमने-सामने आ गए थे। जाटों और मुसलमानों के बीच अक्सर संघर्ष की स्थिति बनती रही है। जाट नेता अजित चौधरी और मायावती का गठजोड़ क्या जाटों और दलितों के बीच के मनमुटाव दूर कर पाएगा। क्या मुस्लिमों और जाटों के गिले-शिकवे दूर हो पाएंगे, यह विचार का विषय है। मायावती कह रही हैं कि अगर ईवीएम में गड़बड़ी न हुई तो देश में सरकार गठबंधन की ही बनेगी, इसका मतलब अपनी जीत को लेकर उनके मन में कहीं न कहीं संशय तो है ही।
पिछले चुनाव में पश्चिमी उत्तर प्रदेश की सभी सीटें भाजपा की झोली में चली गई थीं। देखना दिलचस्प होगा कि पश्चिमी उत्तरप्रदेश के मतदाता इस बार 11 अप्रैल को क्या गुल खिलाते हैं।