सहिष्णुता से भी आगे की बात करते थे स्वामी विवेकानंद : मनमोहन वैद्य

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स्वामी विवेकानंद के शिकागो भाषण के बाद भारत के प्रति यूरोप का नजरिया बदल गया
पटना,12 जनवरी (हि.स.)। स्वामी विवेकानंद की 156वीं जयंती पर आयोजित युवा संगम में हिस्सा लेने बड़ी संख्या में आए युवाओं को राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के सह सरकार्यवाह मनमोहन वैद्य ने छोटे- छोटे किस्सों व कहानियों के माध्यम से भारत के उत्थान को लेकर स्वामी विवेकानंद के सपनों से अवगत कराया। युवाओं के मन में इन सपनों को साकार करने की लौ भी जगाई।
अपने संबोधन में उन्होंने कहा कि 11 सितम्बर 1893 में शिकागो के विश्व धर्म सम्मेलन में स्वामी विवेकानंद के उद्बोधन के पहले उन्हें कोई नहीं जानता था। लेकिन इस उद्बोधन के बाद अंतरराष्ट्रीय मंच पर भारत की महान सभ्यता को पूरी मजबूती से स्थापित करते हुए उन्होंने हिन्दुत्व के विशाल दर्शन से पूरी दुनिया को चमत्कृत कर दिया। इसके बाद से गुलाम भारत के प्रति पश्चिमी देशों का नजरिया ही बदल गया। उन्होंने बताया कि शिकागो के विश्व धर्म सम्मेलन में मौजूद श्रोताओं को स्वामी विवेकानंद ने अपने उद्बोधन के शुरुआत में ही भारत की ओर से तीन तरीके से धन्यवाद पेश किया। उन्होंने कहा था कि वह इस धर्म सभा में एकत्र सभी लोगों को प्राचीन संन्यासियों की परंपरा की ओर से धन्यवाद देते हैं, सभी धर्मों की जननी भारत मां की तरफ से धन्यवाद देते हैं और करोड़ों हिन्दुओं की ओर से धन्यवाद देते हैं।
सह सरकार्यवाह मनमोहन वैद्य ने आगे कहा कि धर्म की अवधारणा भारत की मौलिक अवधारणा है। यह मजहब, पंथ और रिलिजन से अलग है। हिन्दू धर्म एक मजहब, पंथ या या रिलिजन नहीं है, बल्कि यह एक जीवन दृष्टि है, जीवन दर्शन है। यह अध्यात्म पर आधारित है। यह बताता है कि सत्य एक है, इसके बुलाने के अलग- अलग नाम हो सकते हैं। धर्म का मतलब है समाज के विकास में योगदान देना, उसे लौटाना। आपके पास जो कुछ है उसमें से आप समाज को जो लौटाते हैं वही धर्म है। आपके पास रहने के लिए खुद का मकान तो है लेकिन जब आप दूसरों की सुविधा के लिए मकान बनवाते हैं तो उसे धर्मशाला कहा जाता है। आप धर्म का काम कर रहे हैं, आप अपनी अर्जित की हुई संपत्ति में से समाज को लौटा रहे हैं। इसी तरह से कुआं और तालाब खुदवाना भी धर्म का काम है। इस तरह के कार्यों के जरिए आप साझा सामाजिक संपत्ति में वृद्धि करते हैं। यह काम आप खुद के लिए नहीं बल्कि समाज के लिए करते हैं।
उन्होंने कहा कि आज लोग समाज में सहिष्णुता और असहिष्णुता की बात कर रहे हैं। लेकिन स्वामी विवेकानंद ने शिकागो धर्म सम्मलेन में ही स्पष्ट रूप से कहा था हिन्दू धर्म सहिष्णुता से आगे की बात करता है। इसके मुताबिक एक ही तत्व चैतन्य है, जिसकी अभिव्यक्ति अनेक रूपों में होती है। उन्होने कहा कि सामान्य तौर पर कहा जाता है कि भारत अनेक संस्कृतियों वाला देश है। जबकि बात ठीक इसके विपरीत है। भारत एक ऐसा देश है जिसमें विभिन्न संस्कृति के लोग निवास करते हैं। यही भारत और हिन्दू धर्म की खासियत है। हिन्दू धर्म हर व्यक्ति में ईश्वर का अस्तित्व देखता है। यह एकता और संपूर्ण विकास पर आधारित है। यह मनुष्य जीवन के अस्तित्व और उसके लक्ष्य के बारे में बताता है। यह मनुष्य के अंदर देवत्व को जगाता है।
उन्होंने कहा कि शिकागो विश्व धर्म सम्मेलन में जाने के पूर्व स्वामी विवेकानंद ने दो साल तक भारत का भ्रमण किया था। इस दौरान उन्होंने हर तबके के लोगों से मुलाकात की। यहां के समाज को गहराई से समझने की कोशिश की। शिकागो धर्म सम्मलेन के बाद वह तकरीबन चार साल तक अमेरिका और यूरोप का दौरा करते रहे। वहां की सभ्यता और संस्कृति का गहरार्ई से अवलोकन किया। इसके बाद उन्होंने भारतीयों को अपने संदेश में तीन महत्वपूर्व बातें कही। प्रथम, जिस तरह से यूरोप का समाज संगठित है भारत के समाज को भी वैसे ही संगठित होने की जरूरत है। द्वितीय, यहां व्यक्ति निर्माण की एक मजबूत पद्धति विकसित की जानी चाहिए और तृतीय, कुछ समय के लिए यहां के सभी देवी- देवताओं को एक तरफ रखकर सिर्फ भारत मां की आराधना करनी चाहिए। उन्होंने कहा कि आरएसएस स्वामी विवेकानंद के इन तीनों बात पर अमल करते हुये उनके सपनों को साकार करने के लिए प्रयासरत है। आरएसएस की शाखाओं में समानता की शिक्षा दी जाती है, एकता का पाठ पढ़ाया जाता है, जीने की कला सिखाई जाती है।
अपने संबोधन के दौरान वे प्राचीन संस्कृत साहित्य से छोटी-छोटी कहानियां भी सुनाते रहे, जिसे वहां मौजूद युवाओं ने बेहद पसंद किया। एक कहानी सुनाते हुये उन्होंने कहा कि एक गुरु के दो शिष्य थे। दोनों की आपस में प्रतिस्पर्धा रहती थी जिसकी वजह से दोनों आपस में खुद लड़ते थे। इसे देखते हुये गुरु ने दोनों शिष्यों के बीच में सारे कार्यों का बंटवारा कर दिया। यहां तक अपने शरीर की देखभाल करने की जिम्मेदारी भी उन्हें आधी- आधी दे दी। दायां भाग एक शिष्य को तो बायां भाग दूसरे को। अब गुरु की सेवा करने में भी दोनों प्रतिस्पर्धा करने लगे। एक बार गलती से गुरु के एक पैर पर गर्म दूध गिर गया तो दूसरे शिष्य को लगा कि पहले शिष्य ने जानबूझ कर ऐसा किया है। फिर उसने डंडे से दूसरे पैर की पिटाई शुरू कर दी। ईर्ष्या में आकर पहले शिष्य ने भी ऐसा ही किया। उन्होंने कहा कि हमारा समाज ऐसे ही काम करता है। चीजों को संपूर्णता में देखने की बजाय वह उन्हें पृथकता में देखने लगता है और समस्या यहीं से शुरू होती है। इसलिए देश और समाज को संपूर्णता में देखने की जरूरत है।
इस अवसर पर डॉ. पवन अग्रवाल ने भी युवाओं को संबोधित करते हुये उन्हें ध्यान और आनंद के महत्व से अवगत कराया।


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