लोकतंत्र में नेताओं के बीच भावपूर्ण संबंध वक्त की जरूरत

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सियासत में निजी रिश्तों का होना नया नहीं है। सियासत के रिश्ते कभी-कभी खून के रिश्ते से भी ज्यादा प्रगाढ़ होते हैं। इंदिरा गांधी और राजनारायण की सियासी कटुता के किससे जगजाहिर हैं। लेकिन संजय गांधी की हवाई दुर्घटना में मौत के बाद वहां पहुंचने वालों में राजनारायण पहले राजनेता थे। यही नहीं, इंदिरा गांधी की हत्या के बाद राजनारायण ने अपने करीबियों से कहा भी था कि ‘अब मैं किसके खिलाफ चुनाव लडूंगा? राजीव तो बच्चा है। उसका विरोध करूंगा तो लोग क्या कहेंगे।’ करीब पांच साल पहले पटना में शरद यादव की तबीयत बिगड़ गई थी। उन्हें अस्पताल ले जाया गया था। तब सबसे पहले अस्पताल पहुंचने वालों में लालू प्रसाद यादव और उनकी पत्नी तत्कालीन मुख्यमंत्री राबड़ी देवी थीं। उस समय लालू विरोध की धुरी बने शरद जदयू के राष्ट्रीय अध्यक्ष थे। देश के सियासी इतिहास इस तरह के उदाहरणों से भरे पड़े हैं।कहने का मतलब यह कि अपने देश की राजनीति की यह खासियत रही है कि यहां विरोधी नेताओं के आत्मीय संबंध भी अनूठे रहे हैं। अब बसपा के साथ चुनावी गठबंधन को स्थायित्व प्रदान करने के लिए सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव, मायावती के साथ निजी रिश्ते को भी परवान चढ़ाने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे। विरोधी बार-बार प्रचार कर रहे हैं कि गठबंधन वक्ती है जिसकी काट के लिए अखिलेश द्वारा ऐसा करना जरूरी है। अखिलेश शुरू से ही मायावती को बुआ कहते रहे हैं। हालांकि मायावती उन्हें ‘मान न मान मैं तेरा मेहमान’ बताते हुए झिड़कती रही थीं। कई बार उनके द्वारा तिरस्कृत होने पर भी अखिलेश मायूस नहीं हुए और जब लोकसभा चुनाव के बाद विधानसभा में भी दोनों पार्टियां धरातल पर पहुंच गईं तो मायावती का भी मन पसीज गया। अखिलेश गठबंधन के साथ मायावती से अपने रिश्ते को दूर तक ले जाने के लिए कटिबद्ध दिखते हैं। बेटे की जिद के चलते मुलायम सिंह यादव को भी अपना नजरिया बदलना पड़ा। उन्होंने मैनपुरी की संयुक्त सभा में अखिलेश की कोशिशों पर मुहर लगाते हुए वसीयत करने के अंदाज में मंच से सपाइयों के लिए कहा कि ‘मायावती का हमेशा सम्मान करना’। यह दोनों पार्टियों के नेताओं के निजी रिश्ते के विस्तार का चरम था।
इसी कड़ी में एक बड़ा अध्याय तब जुड़ गया जब मायावती कन्नौज में डिम्पल के लिए सभा को संबोधित करने पहुंचीं थीं। डिम्पल ने मंच पर ही सुशील बहू की तरह चरण स्पर्श करके बुआ सास मायावती से आशीर्वाद लिया। मायावती ने भी सरेआम कहा कि डिम्पल हमारे घर की बहू हैं। इन्हें भारी बहुमत से जिताइए। अखिलेश के कटी पतंग बन चुके चाचा शिवपाल सिंह यादव ने इसकी कड़ी भर्त्सना की है। उन्होंने कहा कि डिम्पल से मायावती के चरण स्पर्श करवा कर भतीजे ने समाजवाद को उनके चरणों में डाल दिया है।
बहरहाल अखिलेश ने इस दंभ को तोड़कर एक अच्छी पहल की है। मायावती उनके लिए बुजुर्ग हैं। इसके अनुरूप दस्तूर निभाकर उन्होंने कोई अनुचित काम नहीं किया है। यह भी ध्यान रखा जाना चाहिए कि राजनीति अपनी जगह है लेकिन स्वस्थ लोकतंत्र में नेताओं के बीच भावपूर्ण संबंध रखना चाहिए। अटल जी इस नीति के बहुत कायल थे, जिसकी वजह से उनके निधन पर पूरी राजनीतिक बिरादरी में शोक छा गया था।
अखिलेश के दृश्य में आने के बाद सैफई राजवंश के पारिवारिक षड्यंत्र के मास्टर माइंड माने जा रहे शिवपाल यादव को कुछ समय पहले तक उम्मीद थी कि उन्हीं की तरह उनके बड़े भाई मुलायम सिंह यादव मायावती के प्रति अपनी घृणा को दिल से बाहर नहीं निकाल पाएंगे, लेकिन यह सिर्फ उनका मुगालता था। मुलायम सिंह और मायावती के बीच अखिलेश की कोशिशों से आत्मीय रिश्तों की कोपलें फिर फूट पड़ी हैं। अब शिवपाल के लिए ‘कारवां गुजर गया गुबार देखते रहे’ का मंजर है।
वैसे सार्वजनिक जीवन में काम करने वाले नेताओं को उतनी शुष्कता से बचना चाहिए जितनी बसपा नेताओं में रही है। सोनिया गांधी ने भी जन्मदिन की बधाई के लिए मायावती के आवास पर पहुंचकर उनके साथ निजी संबंध बनाने की पहल की थी। उन्हें उम्मीद थी कि इसके बाद मायावती कांग्रेस को लेकर कैसी भी हालत में कुछ ने कुछ कोमल रहेंगी। लेकिन जब मौका आया तो मायावती ने निष्ठुर होने में कोई कसर नहीं छोड़ी। अखिलेश के मामले में भी अभी तक की स्थिति एकतरफा है। अखिलेश अपने पूरे परिवार को पैर छूकर मायावती से आशीर्वाद लेना सिखा रहे हैं। लेकिन मायावती को यह गंवारा नहीं है कि अपने भतीजे आकाश आनंद को मुलायम सिंह के पैर छूने की नसीहत दें। इससे सपा समर्थकों में नाराजगी पनप रही है जो गठबंधन में दरकन साबित हो सकती है।
इसके बावजूद गठबंधन ने उत्तर प्रदेश में भाजपा की चूले हिला रखी हैं। मंडल मसीहा वीपी सिंह का कहना था कि भारतीय समाज जातियों का परिसंघ है। लोहिया और बाबा साहब अंबेडकर जातियां खत्म करके नये भारत के निर्माण का सपना देखते थे। लेकिन व्यावहारिक राजनीति में वीपी सिंह की अवधारणा अधिक सटीक साबित हुई। जातियां मिटाने की बजाय हर पार्टी में उनके समीकरण से चुनावी युद्ध की गोटियां लाल करने की रणनीति बुनी जा रही है। हिंदूवादी पार्टी होकर भी भाजपा को यही लाइन अख्तियार करनी पड़ी। इसकी वजह से ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने चक्रवर्ती सम्राट बनने के लिए जरूरी समझा कि वे अपनी पिछड़ी पहचान का बिगुल देश के कोने-कोने में फूंकें। जवाब में उत्तर प्रदेश का सपा-बसपा गठबंधन उनके इस अमृतकुंड को भेदने के लिए उन्हें नकली पिछड़ा साबित करने में जुट पड़ा है। गठबंधन में मायावती बहुत ही पुरजोर तरीके से इस बात की तस्दीक कर रही हैं कि पिछड़ों के असली मसीहा मुलायम सिंह और अखिलेश यादव हैं। इस चोट से मोदी के प्रति पिछड़ों के मोह के टूटने की नौबत बन आई है। उत्तर प्रदेश में सपा-बसपा गठबंधन पिछड़ों, दलित और मुसलमानों की गोलबंदी से चुनावी मैदान फतेह करने में लगा है। उसमें जातियों के परिसंघ की धारणा के अनुरूप सवर्णों के लिए भी स्पेस सुरक्षित रखने का ख्याल किया जा रहा है।

 


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