बंगाल में हिंसा की राजनीति
आगामी 19 मई को लोकसभा चुनाव का अंतिम चरण समाप्त हो जाएगा। इस बार के चुनाव जिस तरह का संदेश पश्चिम बंगाल की राजनीति एवं ममता बनर्जी के शासन को लेकर दे रहे हैं, वह कम से कम देश के लोकतंत्रात्मक परिदृश्य में किसी काले धब्बे से कमतर नहीं है। यही कारण है कि निर्वाचन आयोग को वहां एक दिन पहले ही चुनाव प्रचार पर रोक लगाना पड़ा। भारत के चुनावी इतिहास में यह पहला मामला है। आइये जानते हैं कि आखिर इसका कारण क्या है?
ममता के राज में पश्चिम बंगाल जिस तरह से हिंसा की राजनीति से सुलग रहा है, उससे यह साफ हो गया है कि ममता केवल नाम की ममता हैं। उनके हृदय में मुख्यमंत्री होने के बाद भी पश्चिम बंगाल के जनमानस को लेकर कोई ममतामयी भाव नहीं है। पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) के लोग खुलेआम दबंगई कर रहे हैं और पुलिस मूक दर्शक है। इस सबके बीच दुखद यह भी है कि हिंसा इस हद तक बढ़ गई है कि महापुरुषों की प्रतिमा को भी निशाना बनाया जा रहा है। ईश्वरचंद्र विद्यासागर की प्रतिमा को तोड़ा जाना तो यही बता रहा है कि राजनीतिक स्तर पर ममता की पार्टी सत्ता के लिए कितने निचले स्तर तक जा सकती है। क्या भारत इस महान विभूति के योगदान को विस्मृत कर सकता है? ईश्वरचंद्र विद्यासागर बंगाली पुनर्जागरण के जरिए भारत के जनमानस में स्वाभिमान का बीजारोपण कर सुधारवादी आन्दोलन चलानेवाले उन गिने-चुने नेताओं में से एक हैं, जिन्होंनेअपने समय में आजाद भारत की दिशा तय कर दी थी। सड़क किनारे लगी लाइट में पढ़कर शिक्षक, दार्शनिक, लेखक और समाज सुधारक बननेवाले विद्यासागर विलक्षण प्रतिभा के धनी थे। साल 1841 में महज 21 साल की उम्र में उन्हें फोर्ट विलियम कॉलेज में संस्कृत का विभागाध्यक्ष बनाया गया था। विभागाध्यक्ष बनते ही उन्होंने सभी जाति के बच्चों के लिए कॉलेज के दरवाजे खोल दिए थे। भले ही उन्होंने एक ब्राह्मण परिवार में जन्म लिया था किंतु अपने समय में वे यह बताने और समझाने में सफल रहे थे कि योग्यता पर किसी जाति विशेष का विशेषाधिकार नहीं हो सकता। सबको पढ़ाई के समान अवसर मिलें तो कई मेधाएं प्रकट हो सकेंगी। ब्रह्म समाज की स्थापना कर उन्होंने विधवा विवाह को लेकर ब्रिटिश सरकार से इस पर एक्ट बनाने के लिए दबाव बनाया था। उसका परिणाम यह रहा कि 1857 में विधवा पुनर्विवाह एक्ट देश में लागू हो सका। इसके लिए शुरूआत उन्होंने सबसे पहले स्वयं के घर से की और एक विधवा से अपने एकमात्र बेटे का विवाह करवाया।
विद्यासागर ने बहुपत्नी प्रथा और बाल विवाह के खिलाफ भी आवाज उठाई थी। उन्होंने बेटियों की शिक्षा के लिए कई कदम उठाए जो इतिहास में दर्ज हैं। इसी प्रकार से और भी तमाम समाज सुधार के कार्य उनके नाम से दर्ज हैं। जिस दिन विद्यासागर की प्रतिमा टूटी उस दिन कोलकाता में भाजपा अध्यक्ष अमित शाह का रोड शो था। रोड शो विद्यासागर कॉलेज के गेट से होकर गुजरा था। इसी बीच किसी ने कॉलेज का गेट तोड़कर अंदर कमरे में रखी ईश्वरचंद्र विद्यासागर की प्रतिमा तोड़ दी। अब भाजपा और तृणमूल कांग्रेस के लोग एक-दूसरे पर प्रतिमा तोड़ने का आरोप लगा रहे हैं। ममता पर सवाल इसलिए भी उठ रहे हैं क्योंकि जहां ईश्वरचंद्र विद्यासागर की प्रतिमा रखी थी, उस कॉलेज पर टीएमसी का नियंत्रण है। हालांकि ममता इस घटना को बंगाल की अस्मिता से जोड़ रही हैं। महान समाज सुधारक ईश्वरचंद विद्यासागर की प्रतिमा को तोड़ा जाना निश्चित रूप से निंदनीय है। पश्चिम बंगाल सरकार को चाहिए कि मामले की न्यायिक जांच कराए और दोषियों को कड़ी सजा दिलाए। लेकिन क्या ममता के सत्ता में रहते ऐसा हो सकेगा? यह तो चोर को चाबी देने की बात हो गई। वर्तमान में पश्चिम बंगाल व्यापक हिंसा के दौर से गुजर रहा है। टीएमसी नेताओं के हौसले इतने बुलंद हैं कि राज्यभर में आचार संहिता लगी होने के बाद भी चुनाव का कोई चरण अभी तक बिना हिंसा के नहीं गुजरा है। वे अपने राजनीतिक विरोधियों को लगातार निशाना बना रहे हैं।
इस बार के लोकसभा चुनाव के छह चरण समाप्त हो चुके हैं। इन छह चरणों के चुनाव में अब तक सिवाय बंगाल के कहीं भी हिंसा नहीं हुई है। हिंसा में ज्यादातर भारतीय जनता पार्टी से जुड़े लोगों को ही शिकार बनाया गया है। बंगाल के अंदर हिंसा का जो तांडव चल रहा है, उससे तो यही लगता है कि ममता के राज में पश्चिम बंगाल में सभी नियम कायदे और संवैधानिक संस्थाएं बौनी बनी हुई हैं। चुनाव के नतीजे चाहे जो हों, लोकतंत्र में हिसा की कोई जगह नहीं होनी चाहिए। सरकारें आती-जाती रहती हैं, लेकिन गंवाई गई जिंदगियां वापस नहीं लौटेंगी। यह बात सभी को समझनी होगी।