फिल्मी सितारे और सियासत की जुगलबंदी

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राजनीति के इतिहास के विश्लेषण से साफ होता है कि फिल्मी सितारों और सियासत की जुगलबंदी काफी पुरानी है। आधुनिक राजनीति में यह संदर्भ कोई नया नहीं है। आज राजनीति सभी क्षेत्रों की नामचीन हस्तियों की पहली पसंद बन चुकी है, क्योंकि यह पॉवर और पॉलिटिक्स का खेल है। मगर बड़ा सच यह है कि सितारों की मजबूरी राजनीति नहीं है, राजनीति की मजबूरी सितारे हैं। सितारे राजनीति में आते नहीं, थोपे जाते हैं। राजनीति ऐसा क्षेत्र है, जहां सत्ता का सारथी बन कर आराम की जिंदगी बितायी जा सकती है। वर्तमान संदर्भ में राजनीति सभी नीतियों में श्रेष्ठ बन चुकी है। उसमें जनसेवा की चादर को हटाकर ग्लैमर का लबादा ओढ़ लिया है। सभी राजनीति दलों ने अपनी सियासी गोट फिट करने के लिए कलाकार, गीतकार, संगीतकार, पत्रकार, अधिवक्ता, मॉडल, पूर्व दस्युओं और उनके सगे संबंधियों, रागियों-बैरागियों, खिलाड़ियों को अपनी पंसद बना लिया है। ग्लैमर की चमकीली दुनिया से आने वाले लोग राजनीति को कितना करीब से जान पाते हैं, यह कहना मुश्किल है। चुनाव में ऑटो चलाने का नाटक और गेहूं काटकर पसीना बहाने का सरोकार कितना आम आदमी के करीब है, यह बताने की आवश्यकता नहीं है। पंचसितारा जैसे आलीशान वातानुकूलित कमरों में रहने वाले लोग गांव, गरीब और किसान को कितना करीब से समझ पाते होंगे, यह बहस का विषय है।
मुद्दा यह भी है कि संबंधित क्षेत्रों से संसद पहुंचने वाली ऐसी हस्तियों ने अपने क्षेत्र के लिए क्या किया। ससंद में उनकी हाजिरी कितनी रही। कितनी बहसों में हिस्सा लिया। अगर यह सब शून्य रहा तो सवाल यह पूछा जाना चाहिए कि ऐसे लोगों को राजनीति में लाने का मकसद क्या है? मगर साफ है कि इसकी मूल वजह सिर्फ सीट निकालने की राजनीति है। भारतीय जनता पार्टी ने अभी ढाई किलो के हाथ वाले सनी देवोल को गुरुदासपुर से टिकट दिया है। राजनीति में पूरा देवोल परिवार सक्रिय है। फिल्मी दुनिया में अपने जमाने के बेताज बादशाह और शोले के वीरू धर्मेंद्र उनके पिता हैं। इस फिल्म की नायिका बसंती यानी हेमा मालिनी, धर्मेंद्र की पत्नी हैं। धर्मेंद बीकानेर से सांसद रह चुके हैं। हेमा मालिनी मथुरा से सासंद हैं। वो खुशनसीब हैं कि इस बार भी उन्हें टिकट मिला। कांग्रेस में भी यह फेहरिस्त लंबी है। कुछ दिन पहले रंगीला गर्ल अभिनेत्री उर्मिला मांतोंडकर कांग्रेस में शामिल हुईं। इसके तुरंत बाद कांग्रेस ने लगे हाथ उन्हें टिकट भी थमा दिया। वह लोकसभा पहुंच पाती हैं, यह तो 23 मई को ही साफ होगा। अभिनेत्री नगमा भी कांग्रेस का हिस्सा रह चुकी हैं।
भारत में इंदिरा सरकार के इमरजेंसी काल को राजनीति में काला अध्याय के रूप में जाना जाता है। अभिव्यक्ति की आजादी पर इसे सबसे बड़ा हमला बताया गया। इंदिरा गांधी ने अपने राजनीतिक विरोधियों को सबक सिखाने के लिए आपातकाल का सहारा लिया था। उस दौरान देश में राजनीतिक अस्थिरता का दौर था। पूरी राजनीति इंदिरा के खिलाफ खड़ी थी। कांग्रेस के मुकाबले लिए जनता पार्टी का गठन हुआ था, लेकिन वह भी इंदिरा गांधी से दीर्घकाल तक मुकाबला नहीं कर पायी। इसके बाद सदाबहार अभिनेता देवानंद ने नेशनल पार्टी का गठन किया। इसमें वी शांताराम, जीपी सिप्पी और विजय आनंद जैसी हस्तियां शामिल हुईं, लेकिन सितारों का यह प्रयोग सफल नहीं हो पाया। फिल्म उद्योग को भारी कीमत चुकानी पड़ी। बाद में एक-एक कर लोगों ने नेशनल पार्टी से से दूरी बना ली।
इसी के साथ देवानंद की सदाबहार सियासत की ख्वाहिश पूरी नहीं हो पायी। हिंदी सिनेमा के रूपहले पर्दे पर कभी एक दमदार आवाज गूंजा करती थी। वह आवाज थी कपूर खानदान के पृथ्वीराज कपूर की। 1952 में उन्हें पहली बार राज्यसभा के लिए चुना गया था। दक्षिण भारत में तो फिल्म और राजनीति के इतिहास को अलग कर पाना मुश्किल है। एनटी रामाराव को कौन नहीं जानता। फिल्मों के बाद उन्होंने राजनीति को अपनी पसंद बनाया और आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री बने। दक्षिण की राजनीति में अम्मा के नाम से मशहूर जयलिता भी फिल्मों की दुनिया का हिस्सा रही हैं। देश की राजनीति का वह दौर भी आपको याद होगा जब इंदिरा गांधी की हत्या के बाद राजीव गांधी ने अपने करीबी मित्र और रूपहले पर्दे के बेताज शंहशाह अभिताभ बच्चन को इलाहाबाद से चुनाव लड़ाया था। यहां उन्होंने राजनीति के महारथी हेमवती नंदन बहगुणा को पराजित किया था। बाद में बोफोर्स तोप सौदे में बदनाम होने के बाद इतने क्षुब्ध हुए कि राजनीति से संन्यास ले लिया और बच्चन परिवार के संबंध गांधी परिवार से हमेशा के लिए टूट गये। यह दीगर बात है उनकी पत्नी जया बच्चन समाजवादी पार्टी में हैं। सुनील दत्त कांग्रेस का बड़ा चेहरा रहे हैं। उनकी कमी को कांग्रेस की राजनीति में उनकी बेटी प्रिया दत्त पूरी कर रही हैं। 1991 के चुनाव में कांग्रेस ने फिल्मी दुनिया के पहले सुपर स्टार राजेश खन्ना पर लाल कृष्ण आडवाणी के खिलाफ दांव लगाया था। यह अलग बात है कि इस चुनाव में राजेश खन्ना की हार हुई। अटल सरकार में बिहारी बाबू शत्रुघ्न सिन्हा केंद्रीय मंत्री रह चुके हैं। अब कांग्रेस से पटना साहिब से चुनाव मैदान में हैं। कांग्रेस से सांसद बने राज बब्बर कभी पूर्व प्रधानमंत्री वीपी सिंह के साथ हुआ करते थे। 2014 में परेश रालव भाजपा से सांसद चुने गए। अनुपम खेर की पत्नी किरण खेर चंडीगढ़ से दोबारा मैदान में हैं। गोविंदा भी राजनीति की पारी खेल चुके हैं। भाजपा ने जौनपुर से रविकिशन को मैदान में उतारा है। कभी वह कांग्रेस के लिए काम करते थे। आजमगढ़ सीट से पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के सामने भाजपा ने भोजपुरी सिनेमा के स्टार दिनेश लाल यादव निरहुआ को उतार कर मुकाबला दिलचस्प कर दिया है। भाजपा सांसद मनोज तिवारी भी भोजपुरी फिल्मी की उपज हैं। यह सभी लोग राजनीति के मोहरे तो बने पर जनता के लिए ज्यादा कुछ नहीं कर पाए। भाजपा हो या कांग्रेस या कोई अन्य दल, सभी ने इनका इस्तेमाल किया।
अहम सवाल है कि क्या हम जिस क्षेत्र में हैं वहां रह कर अपना कैरियर नहीं बना सकते हैं। उस क्षेत्र विशेष में हम क्या और बेहतर नहीं कर सकते हैं। अगर कर सकते हैं तो अभिनय, खेल, संगीत, कार्यपालिका, विधि, मीडिया और शिक्षा क्षेत्र के लोगों की पहली पसंद राजनीति क्यों बन रही है। दरअसल समाज में एक सोच पनप चुकी है कि राजनेता बनकर जो रुतबा और शान-ओ-शौकत की जिंदगी जी जा सकती है वह दूसरे क्षेत्रों में संभव नहीं है। शायद यही वजह है कि हर क्षेत्र का आदमी राजनीति में आने को लालायित रहता है। सचिन तेंदुलकर और रेखा राज्यसभा सदस्य रह चुके हैं। सदन में उपस्थिति को लेकर तेंदुलकर कितनी आलोचना हुई। इस बार भाजपा ने पंजाब की गुरुदासपुर सीट से सनी देओल पर दांव खेला है। इससे पहले विनोद खन्ना यहां से कई बार भाजपा के टिकट पर चुनाव जीत चुके हैं। सूफी संगीतकार हंसराज हंस ने भी राजनीतिक मंच पर प्रदर्शन शुरू कर दिया है। क्रिकेटर गौतम गंभीर भी दिल्ली से मैदान में हैं। मतदाताओं को लुभाने में सितारों की अहम भूमिका मानी जाती है। वैसे भी देश में युवा वोटरों की अधिक संख्या है। जिस अभिनेता को सिनेमाघरों और टीवी पर देख लोग तालियां पीटते हों, वह चिलचिलाती धूप में गलियों में खाक छानता मिल जाए तो फिर क्या कहने। उससे हाथ मिलाने, बात करने और सेल्फी लेने का मौका मिल जाए तो युवाओं के जिंदगी का एक मकसद पूरा हो जाता है।

 


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