प्रदूषण के कहर से अछूता नहीं एवरेस्ट
माउंट एवरेस्ट को फतह करना पर्वतारोहियों के लिए रहस्य और रोमांच से भरपूर होता है, क्योंकि विश्व की सबसे ऊंची चोटी माउंट एवरेस्ट पर चढ़ना आज भी दुनिया का सबसे बड़ा कारनामा माना जाता है। बावजूद इसके हकीकत यही है कि इस उद्देश्य में चंद पर्वतारोहियों को ही सफलता नसीब होती है। प्रतिवर्ष हजारों लोग माउंट एवरेस्ट को छूने की कोशिश करते हैं। उनमें से गिने-चुने लोग ही चोटी तक पहुंचने में सफल हो पाते हैं। कुछ लोग तो एवरेस्ट फतह करने की चाहत में अपनी जान भी गंवा देते हैं। यह एक ऐसा सफर है, जहां मौत हर कदम पर बांहें फैलाए खड़ी रहती है। इस सफर के लिए फौलाद जैसे कलेजे की जरूरत होती है। मामूली-सी चूक हुई और जिंदगी खत्म। यही कारण है कि इसे धरती के ऊपर पाताल की संज्ञा भी दी जाती रही है।
करीब 30 हजार फुट ऊंची इस चोटी के रास्ते में जगह-जगह ऐसे श्मशान बन चुके हैं, जहां बरसों से पड़ी लाशें अपने अंतिम संस्कार का इंतजार कर रही हैं। इन दुर्गम रास्तों पर जिसने जहां दम तोड़ दिया, वहीं उसका श्मशान बन गया क्योंकि यहां से लाशें निकालने की कोशिश करना भी खुदकुशी करने के समान माना जाता है। अभी तक एवरेस्ट के दुर्गम रास्तों से सैंकड़ों ऐसे शव बरामद हो चुके हैं, जिनकी पहचान तक नहीं हो पाई और इनमें से बहुत सारे शव तो दशकों पुराने हैं, जो भौगोलीय परिस्थितियों के चलते सुरक्षित रहे। वर्ष 1953 में माउंट एवरेस्ट को दुनिया की सबसे ऊंची चोटी घोषित किए जाने के बाद से एवरेस्ट पर चढ़ाई के प्रयासों के दौरान 300 से ज्यादा लोग दम तोड़ चुके हैं। अनुमान है कि इस दुर्गम पर्वत में सैकड़ों शव अभी भी दबे पड़े हैं। पिछले कुछ वर्षों के दौरान कई भारतीय पर्वतारोही भी एवरेस्ट फतह अभियान के दौरान मौत की नींद सो चुके हैं। अधिकांश की मौत चढ़ाई के दौरान संतुलन बिगड़ने पर खाई में गिरने, हिम दरारों में समा जाने, हिमस्खलन या ऑक्सीजन की कमी के चलते दम घुटने से होती है।
पृथ्वी की सबसे ऊंची चोटी माउंट एवरेस्ट तक पहुंचने के लिए पर्वतारोहियों को कई तरह की बाधाओं को पार करना पड़ता है। कई बार चढ़ाई के दौरान ऐसे मुश्किल हालात पैदा हो जाते हैं कि जांबाज नेपाली शेरपाओं के भी बर्फीले पर्वतों पर पसीने छूट जाते हैं। करीब 8848 मीटर ऊंचे शिखर की खड़ी चढ़ाई के दौरान रास्ते में कई ऐसे दर्रे आते हैं, जिनमें से कुछ की गहराई तो करीब 300-400 फुट है। ऐसे दर्रों को प्रायः सीढ़ियां जोड़कर पार किया जाता है, जो बेहद डरावना और मुश्किलों से भरा काम है। यह चढ़ाई इतनी खतरनाक होती है कि हवा के एक तेज झोंके के साथ ही पर्वतारोही संतुलन खोकर गहरी खाई में दफन हो सकता है।
एवरेस्ट फतह करने के अभियान के दौरान पर्वतारोहियों की बढ़ती मौतों का आंकड़ा परेशान करता है, तो अब एवरेस्ट के 8848 मीटर लंबे रास्ते पर चहुंओर फैलते कूड़े के ढेर को लेकर भी गंभीर चिंता होने लगी है। ज्यों-ज्यों व्यावसायिक पर्वतारोहण का क्रेज बढ़ रहा है, दुनिया की यह सबसे ऊंची बर्फीली चोटी भी कूड़े के ढेर तले दबने लगी है। दरअसल पर्वतारोहियों की संख्या अब हर साल बढ़ रही है, जो अपने साथ ऑक्सीजन के सिलेंडर, खाने-पीने का सामान, टेंट तथा बहुत सारी चीजें ले जाते हैं। इनमें से बहुत से पर्वतारोही अपने सामान का भार कम करने के लिए कूड़ा-कचरा रास्ते में ही फेंकते चलते हैं। कचरे के साथ-साथ मानव मल भी ऊंचाई पर बने शिविरों में फंसा हुआ है। विशेषज्ञ अब चेतावनी देते हुए कहने लगे हैं कि मानव मल तथा मानव द्वारा किया गया कचरा हद से बाहर जा चुका है।
हाल ही में एक रिपोर्ट में बताया गया है कि 8.848 कि.मी. लंबे इस दुर्गम मार्ग पर पर्वतारोही अपने साथ लेकर गए खाली गैस सिलैंडर, तंबू, बेकार हो चुके उपकरण और यहां तक कि मल जैसे मानवीय अपशिष्ट भी एवरेस्ट के मार्ग पर ही छोड़ आते हैं। हालात इतने बदतर होते जा रहे हैं कि एवरेस्ट पर अब टनों कूड़ा-कचरा इकट्ठा हो चुका है।
शेरपाओं को हर एक किलो कचरा लाने के लिए 2 डॉलर राशि दी जाती है। कुछ वर्षों में करीब 16 टन कूड़ा पहाड़ों से हटाया जा चुका है किन्तु अभी भी हजारों टन कचरा एवरेस्ट पर पड़ा हुआ है। कचरे में कुछ चीजें तो ऐसी हैं, जिन्हें पर्वतों से नीचे लाने में सफलता नहीं मिल रही, जैसे पर्वतारोहियों के शव। दरअसल एवरेस्ट के दुर्गम रास्तों पर कड़ाके की ठंड की वजह से जगह-जगह बर्फ में दबे पड़े शव पत्थर की तरह ठोस हो जाते हैं, जिन्हें नीचे लाना पर्वतारोहियों के लिए नामुमकिन हो जाता है। इतनी मुश्किलों के बावजूद नेपाली पर्वतारोहियों का दल समय-समय पर एवरेस्ट की सफाई में जुटता है और हर साल कई टन कूड़ा-कचरा नीचे लाया जाता है। एक रिपोर्ट के अनुसार समुद्र तल से 5200 मीटर से 6500 मीटर की ऊंचाई के बीच करीब 8 टन कचरा हटाया गया है।
टेंट में तो पर्वतारोहियों के पास शौचालय मौजूद होते हैं, जिसे निचले इलाकों में ले जाकर फेंक दिया जाता है किन्तु एवरेस्ट पर चढ़ाई के दौरान पर्वतारोही शौच के लिए प्रायः बर्फ में ही गड्ढा खोदते हैं और मानवीय मल को वहीं बर्फ में दबा छोड़ देते हैं। इस प्रकार प्रत्येक सीजन में करीब 26500 पाउंड मानव मल एवरेस्ट के पर्वतों पर जमा हो रहा है। इसी के चलते एवरेस्ट को अब विश्व का सबसे ऊंचा कचरा डंप भी कहा जाने लगा है।
एवरेस्ट पर चढ़ने वाली विश्व की पहली महिला जापान की जुंको तापेई पिछले कई सालों से एवरेस्ट पर पड़ रहे दबाव, वहां जमा हो रहे मलबे और उससे हो रहे नुकसान का अध्ययन कर रही हैं। उनका कहना है कि एवरेस्ट पर एक मिलियन लीटर तो सिर्फ पेशाब ही जमा हो गया है जबकि पॉलिथीन, प्लास्टिक, खाली बोतलें, शव और हेलीकॉप्टर के कचरे की तो कोई सीमा ही नहीं है, जो कई लाख टन तक पहुंच चुका है। वह कहती हैं कि पर्वतारोहण से जुड़ी संस्थाओं को एवरेस्ट को बचाने के लिए अब अंधाधुंध ढंग से अभियान दलों को हरी झंडी देना बंद कर देना चाहिए और पर्वतारोहण के लिए नए शिखरों की तलाश की जानी चाहिए। दुनिया के कुछ जाने-माने पर्वतारोही भी अब चेतावनी भरे स्वर में सलाह देने लगे हैं कि यदि पर्वतारोहण अभियानों की बढ़ती संख्या पर रोक नहीं लगाई गई तो माउंट एवरेस्ट का पारिस्थितिकीय संतुलन विनाशकारी हो सकता है। कुछ पर्वतारोहियों का कहना है कि कुछ दशक पहले जहां एवरेस्ट अभियान पर एक-दो दल ही जाते थे, अब एक ही सीजन में दर्जनों टीमें एवरेस्ट पर जाती हैं। इससे एवरेस्ट पर बढ़ रहे दबाव का अनुमान सहजता से लगाया जा सकता है। कुछ विशेषज्ञ यह सलाह भी दे रहे हैं कि जब तक एवरेस्ट को पूरी तरह मलबारहित नहीं कर दिया जाता, तब तक कुछ समय के लिए पर्वतारोहण पर रोक लगा दी जाए। नेपाल में सागरमाथा प्रदूषण समिति के अध्यक्ष का भी कहना है कि पर्वतारोहण से सरकारों को भले ही आमदनी होती है किन्तु इस प्रकार हिमालय के पर्यावरण को नष्ट करने की इजाजत नहीं दी जा सकती।
स्थिति की गंभीरता का अनुमान इसी से लगा सकते हैं कि यूरोप के पर्यावरण विभाग के अनुसार पूरे एवरेस्ट पर पर्वतारोहियों के चलते हजारों टन कूड़ा इस समय मौजूद है। 2008 से लगातार चल रहे एवरेस्ट सफाई अभियान के बावजूद इसमें साल दर साल बढ़ोतरी हो रही है, जो बेहद चिंताजनक है। हालांकि एवरेस्ट पर फैलती गंदगी पर नियंत्रण के उद्देश्य से नेपाल सरकार ने वर्ष 2014 से एवरेस्ट पर चढ़ाई से पहले पर्वतारोहियों से 4 हजार डॉलर जमा कराने शुरू किए हैं। नियम यह है कि एवरेस्ट से वापस लौटते समय हर पर्वतारोही को कम से कम 8 किलो कचरा अपने साथ लेकर लौटना होगा अन्यथा उनके जमा 4 हजार डॉलर वापस नहीं किए जाएंगे। सागरमाथा प्रदूषण नियंत्रण समिति की एक रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2017 में नेपाल के पर्वतारोही करीब 25 टन कचरा तथा 15 टन मानवीय अपशिष्ट लेकर नीचे लौटे, जिनका कुल वजन तीन डबल डेकर बसों के बराबर बताया जाता है। लेकिन एवरेस्ट पर इस समय कूड़े के भारी अंबार की जो स्थिति है, उस लिहाज से यह नाकाफी है। आठ किलोग्राम कचरा वापस लेकर न लौटने पर चार हजार डॉलर की जमानत राशि जब्त होने के नियम के बावजूद स्थिति यह है कि सिर्फ आधे पर्वतारोही ही कचरा वापस लेकर लौटते हैं। अब तक 18 बार एवरेस्ट की चढ़ाई कर चुके शेरपा पेम्बा दोरजे इसी संबंध में अपना दर्द बयां करते हुए कहते हैं कि यह बहुत बुरी स्थिति है, जो आंखों में चुभती है।
वैश्विक तापमान में दिनोंदिन होती बढ़ोतरी भी इस समस्या को विकराल बनाने में अहम भूमिका निभा रही है। दरअसल एवरेस्ट के रास्ते पर हिमनदों के पिघलने से बरसों से बर्फ के नीचे दबा कचरा भी अब बाहर आने लगा है और कचरे का ढेर बढ़ता जा रहा है। हालांकि एवरेस्ट पर कचरे को कम करने के सतत प्रयास कुछ वर्षों से निरन्तर किए जा रहे हैं किन्तु एवरेस्ट को कचरा मुक्त करने के उद्देश्य में आशातीत सफलता नहीं मिल सकी है। चिंता की बात यह भी है कि एवरेस्ट पर मलबे की सफाई की दिशा में कई स्वयंसेवी संस्थाएं तो सराहनीय कार्य कर रही हैं किन्तु इसके लिए अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कोई ठोस कार्यक्रम अभी तक नहीं चलाया गया है। बहरहाल, इससे पर्वतों की नैसर्गिक सुंदरता पर भी पर्यावरणीय संकट गहराने लगा है।
करीब 30 हजार फुट ऊंची इस चोटी के रास्ते में जगह-जगह ऐसे श्मशान बन चुके हैं, जहां बरसों से पड़ी लाशें अपने अंतिम संस्कार का इंतजार कर रही हैं। इन दुर्गम रास्तों पर जिसने जहां दम तोड़ दिया, वहीं उसका श्मशान बन गया क्योंकि यहां से लाशें निकालने की कोशिश करना भी खुदकुशी करने के समान माना जाता है। अभी तक एवरेस्ट के दुर्गम रास्तों से सैंकड़ों ऐसे शव बरामद हो चुके हैं, जिनकी पहचान तक नहीं हो पाई और इनमें से बहुत सारे शव तो दशकों पुराने हैं, जो भौगोलीय परिस्थितियों के चलते सुरक्षित रहे। वर्ष 1953 में माउंट एवरेस्ट को दुनिया की सबसे ऊंची चोटी घोषित किए जाने के बाद से एवरेस्ट पर चढ़ाई के प्रयासों के दौरान 300 से ज्यादा लोग दम तोड़ चुके हैं। अनुमान है कि इस दुर्गम पर्वत में सैकड़ों शव अभी भी दबे पड़े हैं। पिछले कुछ वर्षों के दौरान कई भारतीय पर्वतारोही भी एवरेस्ट फतह अभियान के दौरान मौत की नींद सो चुके हैं। अधिकांश की मौत चढ़ाई के दौरान संतुलन बिगड़ने पर खाई में गिरने, हिम दरारों में समा जाने, हिमस्खलन या ऑक्सीजन की कमी के चलते दम घुटने से होती है।
पृथ्वी की सबसे ऊंची चोटी माउंट एवरेस्ट तक पहुंचने के लिए पर्वतारोहियों को कई तरह की बाधाओं को पार करना पड़ता है। कई बार चढ़ाई के दौरान ऐसे मुश्किल हालात पैदा हो जाते हैं कि जांबाज नेपाली शेरपाओं के भी बर्फीले पर्वतों पर पसीने छूट जाते हैं। करीब 8848 मीटर ऊंचे शिखर की खड़ी चढ़ाई के दौरान रास्ते में कई ऐसे दर्रे आते हैं, जिनमें से कुछ की गहराई तो करीब 300-400 फुट है। ऐसे दर्रों को प्रायः सीढ़ियां जोड़कर पार किया जाता है, जो बेहद डरावना और मुश्किलों से भरा काम है। यह चढ़ाई इतनी खतरनाक होती है कि हवा के एक तेज झोंके के साथ ही पर्वतारोही संतुलन खोकर गहरी खाई में दफन हो सकता है।
एवरेस्ट फतह करने के अभियान के दौरान पर्वतारोहियों की बढ़ती मौतों का आंकड़ा परेशान करता है, तो अब एवरेस्ट के 8848 मीटर लंबे रास्ते पर चहुंओर फैलते कूड़े के ढेर को लेकर भी गंभीर चिंता होने लगी है। ज्यों-ज्यों व्यावसायिक पर्वतारोहण का क्रेज बढ़ रहा है, दुनिया की यह सबसे ऊंची बर्फीली चोटी भी कूड़े के ढेर तले दबने लगी है। दरअसल पर्वतारोहियों की संख्या अब हर साल बढ़ रही है, जो अपने साथ ऑक्सीजन के सिलेंडर, खाने-पीने का सामान, टेंट तथा बहुत सारी चीजें ले जाते हैं। इनमें से बहुत से पर्वतारोही अपने सामान का भार कम करने के लिए कूड़ा-कचरा रास्ते में ही फेंकते चलते हैं। कचरे के साथ-साथ मानव मल भी ऊंचाई पर बने शिविरों में फंसा हुआ है। विशेषज्ञ अब चेतावनी देते हुए कहने लगे हैं कि मानव मल तथा मानव द्वारा किया गया कचरा हद से बाहर जा चुका है।
हाल ही में एक रिपोर्ट में बताया गया है कि 8.848 कि.मी. लंबे इस दुर्गम मार्ग पर पर्वतारोही अपने साथ लेकर गए खाली गैस सिलैंडर, तंबू, बेकार हो चुके उपकरण और यहां तक कि मल जैसे मानवीय अपशिष्ट भी एवरेस्ट के मार्ग पर ही छोड़ आते हैं। हालात इतने बदतर होते जा रहे हैं कि एवरेस्ट पर अब टनों कूड़ा-कचरा इकट्ठा हो चुका है।
शेरपाओं को हर एक किलो कचरा लाने के लिए 2 डॉलर राशि दी जाती है। कुछ वर्षों में करीब 16 टन कूड़ा पहाड़ों से हटाया जा चुका है किन्तु अभी भी हजारों टन कचरा एवरेस्ट पर पड़ा हुआ है। कचरे में कुछ चीजें तो ऐसी हैं, जिन्हें पर्वतों से नीचे लाने में सफलता नहीं मिल रही, जैसे पर्वतारोहियों के शव। दरअसल एवरेस्ट के दुर्गम रास्तों पर कड़ाके की ठंड की वजह से जगह-जगह बर्फ में दबे पड़े शव पत्थर की तरह ठोस हो जाते हैं, जिन्हें नीचे लाना पर्वतारोहियों के लिए नामुमकिन हो जाता है। इतनी मुश्किलों के बावजूद नेपाली पर्वतारोहियों का दल समय-समय पर एवरेस्ट की सफाई में जुटता है और हर साल कई टन कूड़ा-कचरा नीचे लाया जाता है। एक रिपोर्ट के अनुसार समुद्र तल से 5200 मीटर से 6500 मीटर की ऊंचाई के बीच करीब 8 टन कचरा हटाया गया है।
टेंट में तो पर्वतारोहियों के पास शौचालय मौजूद होते हैं, जिसे निचले इलाकों में ले जाकर फेंक दिया जाता है किन्तु एवरेस्ट पर चढ़ाई के दौरान पर्वतारोही शौच के लिए प्रायः बर्फ में ही गड्ढा खोदते हैं और मानवीय मल को वहीं बर्फ में दबा छोड़ देते हैं। इस प्रकार प्रत्येक सीजन में करीब 26500 पाउंड मानव मल एवरेस्ट के पर्वतों पर जमा हो रहा है। इसी के चलते एवरेस्ट को अब विश्व का सबसे ऊंचा कचरा डंप भी कहा जाने लगा है।
एवरेस्ट पर चढ़ने वाली विश्व की पहली महिला जापान की जुंको तापेई पिछले कई सालों से एवरेस्ट पर पड़ रहे दबाव, वहां जमा हो रहे मलबे और उससे हो रहे नुकसान का अध्ययन कर रही हैं। उनका कहना है कि एवरेस्ट पर एक मिलियन लीटर तो सिर्फ पेशाब ही जमा हो गया है जबकि पॉलिथीन, प्लास्टिक, खाली बोतलें, शव और हेलीकॉप्टर के कचरे की तो कोई सीमा ही नहीं है, जो कई लाख टन तक पहुंच चुका है। वह कहती हैं कि पर्वतारोहण से जुड़ी संस्थाओं को एवरेस्ट को बचाने के लिए अब अंधाधुंध ढंग से अभियान दलों को हरी झंडी देना बंद कर देना चाहिए और पर्वतारोहण के लिए नए शिखरों की तलाश की जानी चाहिए। दुनिया के कुछ जाने-माने पर्वतारोही भी अब चेतावनी भरे स्वर में सलाह देने लगे हैं कि यदि पर्वतारोहण अभियानों की बढ़ती संख्या पर रोक नहीं लगाई गई तो माउंट एवरेस्ट का पारिस्थितिकीय संतुलन विनाशकारी हो सकता है। कुछ पर्वतारोहियों का कहना है कि कुछ दशक पहले जहां एवरेस्ट अभियान पर एक-दो दल ही जाते थे, अब एक ही सीजन में दर्जनों टीमें एवरेस्ट पर जाती हैं। इससे एवरेस्ट पर बढ़ रहे दबाव का अनुमान सहजता से लगाया जा सकता है। कुछ विशेषज्ञ यह सलाह भी दे रहे हैं कि जब तक एवरेस्ट को पूरी तरह मलबारहित नहीं कर दिया जाता, तब तक कुछ समय के लिए पर्वतारोहण पर रोक लगा दी जाए। नेपाल में सागरमाथा प्रदूषण समिति के अध्यक्ष का भी कहना है कि पर्वतारोहण से सरकारों को भले ही आमदनी होती है किन्तु इस प्रकार हिमालय के पर्यावरण को नष्ट करने की इजाजत नहीं दी जा सकती।
स्थिति की गंभीरता का अनुमान इसी से लगा सकते हैं कि यूरोप के पर्यावरण विभाग के अनुसार पूरे एवरेस्ट पर पर्वतारोहियों के चलते हजारों टन कूड़ा इस समय मौजूद है। 2008 से लगातार चल रहे एवरेस्ट सफाई अभियान के बावजूद इसमें साल दर साल बढ़ोतरी हो रही है, जो बेहद चिंताजनक है। हालांकि एवरेस्ट पर फैलती गंदगी पर नियंत्रण के उद्देश्य से नेपाल सरकार ने वर्ष 2014 से एवरेस्ट पर चढ़ाई से पहले पर्वतारोहियों से 4 हजार डॉलर जमा कराने शुरू किए हैं। नियम यह है कि एवरेस्ट से वापस लौटते समय हर पर्वतारोही को कम से कम 8 किलो कचरा अपने साथ लेकर लौटना होगा अन्यथा उनके जमा 4 हजार डॉलर वापस नहीं किए जाएंगे। सागरमाथा प्रदूषण नियंत्रण समिति की एक रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2017 में नेपाल के पर्वतारोही करीब 25 टन कचरा तथा 15 टन मानवीय अपशिष्ट लेकर नीचे लौटे, जिनका कुल वजन तीन डबल डेकर बसों के बराबर बताया जाता है। लेकिन एवरेस्ट पर इस समय कूड़े के भारी अंबार की जो स्थिति है, उस लिहाज से यह नाकाफी है। आठ किलोग्राम कचरा वापस लेकर न लौटने पर चार हजार डॉलर की जमानत राशि जब्त होने के नियम के बावजूद स्थिति यह है कि सिर्फ आधे पर्वतारोही ही कचरा वापस लेकर लौटते हैं। अब तक 18 बार एवरेस्ट की चढ़ाई कर चुके शेरपा पेम्बा दोरजे इसी संबंध में अपना दर्द बयां करते हुए कहते हैं कि यह बहुत बुरी स्थिति है, जो आंखों में चुभती है।
वैश्विक तापमान में दिनोंदिन होती बढ़ोतरी भी इस समस्या को विकराल बनाने में अहम भूमिका निभा रही है। दरअसल एवरेस्ट के रास्ते पर हिमनदों के पिघलने से बरसों से बर्फ के नीचे दबा कचरा भी अब बाहर आने लगा है और कचरे का ढेर बढ़ता जा रहा है। हालांकि एवरेस्ट पर कचरे को कम करने के सतत प्रयास कुछ वर्षों से निरन्तर किए जा रहे हैं किन्तु एवरेस्ट को कचरा मुक्त करने के उद्देश्य में आशातीत सफलता नहीं मिल सकी है। चिंता की बात यह भी है कि एवरेस्ट पर मलबे की सफाई की दिशा में कई स्वयंसेवी संस्थाएं तो सराहनीय कार्य कर रही हैं किन्तु इसके लिए अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कोई ठोस कार्यक्रम अभी तक नहीं चलाया गया है। बहरहाल, इससे पर्वतों की नैसर्गिक सुंदरता पर भी पर्यावरणीय संकट गहराने लगा है।