नक्सलियों से आतंकियों की तरह निपटने की जरूरत
जब महाराष्ट्र अपना स्थापना दिवस मना रहा था, तब नक्सली छत्तीसगढ़ की सीमा से सटे गढ़चिरौली में पुलिस के दस्ते से खून की होली खेल रहे थे। उन्होंने पुलिस के वाहन को बारूदी सुरंग से उड़ा दिया, जिसमें 15 जवानों और वाहन चालक की मौत हो गई।
आम चुनाव के समय जब पुलिस व सैन्य बलों द्वारा सुरक्षा के इंतजाम गांव-गांव चौकस रहते हैं, तब नक्सलियों के सिलसिलेवार हमले केंद्र व राज्य सरकारों के लिए बड़ी चुनौती बनकर उभरे हैं। इससे पहले छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा में दो हमले हो चुके हैं, जिनमें एक भाजपा विधायक भीमा मंडावी को भी प्राण गंवाने पड़े। बताया जा रहा है कि पिछले साल 22 अप्रैल को गढ़चिरौली के ग्राम भामरगढ़ में सुरक्षाबलों ने सीधी मुठभेड़ में 40 नक्सलियों को मार गिराया था। इसी मुठभेड़ के विरोध में इस घटना को अंजाम दिया है। माओवादी इन इलाकों में जम्मू-कश्मीर के अलगाववादियों की तरह निर्वाचन प्रक्रिया को बाधित करने में जुटे हैं। इस लिहाज से अब इनके साथ भी आतंकियों की तरह निपटने की जरूरत है। जब आतंकियों के विरुद्ध सुरक्षाबलों की मुट्ठियां खोल दी गई हैं, तो फिर नक्सलियों के खिलाफ क्यों नहीं?
विषमता और शोषण से जुड़ी भूमण्डलीय आर्थिक उदारवादी नीतियों को जबरन अमल में लाने की प्रक्रिया ने देश में एक बड़े लाल गलियारे का निर्माण कर दिया है, जो पशुपति (नेपाल) से तिरुपति (आंध्रप्रदेश) तक जाता है। इन उग्र चरमपंथियों ने पहले पश्चिम बंगाल की मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के नेता-कार्यकर्ताओं को चुन-चुनकर मारा और अब ऐसी ही घटना को अंजाम छत्तीसगढ़ और महाराष्ट्र में कांग्रेस व भाजपा नेताओं को मौत के घाट उतारकर दे रहे हैं। जाहिर है, इन नक्सलियों का विश्वास किसी ऐसे मतवाद में नहीं रह गया है, जो बातचीत के जरिए समस्या को समाधान तक ले जाए। भारतीय राष्ट्र-राज्य की संवैधानिक व्यवस्था को यह गंभीर चुनौती है। इस घटना को केवल लोकतांत्रिक मूल्यों पर हमला कहकर दरकिनार नहीं कर सकते। जिन लोगों का भारतीय संविधान और कानून से विश्वास पहले ही उठ गया है, उनसे लोकतांत्रिक मूल्यों के सम्मान की उम्मीद व्यर्थ है। इनके पक्ष में अक्सर यह दलील देकर इनका बचाव किया जाता है कि ये नक्सली भटके हुए लोग हैं, जबकि ये नृशंस हत्यारे और निर्मम लुटेरों के रूप में बार-बार पेश आ रहे हैं। ये गरीबों के नाम पर वसूली करके आम आदमी, सैन्यबलों और पुलिस के साथ लगातार खूनी खेल खेल रहे हैं। नतीजतन बीते पांच सालों में 300 से भी ज्यादा जवान इनके निशाने पर आकर वीरगति को प्राप्त हो चुके हैं।
इस समस्या के हल के लिए क्षेत्रीय संकीर्णता से उबरकर केंद्रीयकृत राष्ट्रवादी दृष्टिकोण अपनाने की जरूरत है। पशुपति से लेकर जो वाम चरमपंथ तिरुपति तक पसरा है, उसने नेपाल, बिहार, झारखंड, ओडिशा, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र और आंध्रप्रदेश के एक ऐसे बड़े हिस्से को अपनी गिरफ्त में ले लिया है, जो कीमती जंगलों और खनिजों से भरे पड़े हैं। छत्तीसगढ़ के बैलाडीला में लौह अयस्क के उत्खनन से हुई यह शुरुआत ओडिशा की नियमगिरी पहाड़ियों में मौजूद बाक्साइट के खनन तक पहुंच गई है। यहां आदिवासियों की जमीन वेदांता समूह ने अवैध हथकंडे अपनाकर जिस तरीके से छीनी है, उसे सुप्रीम कोर्ट ने गैरकानूनी माना है। शोषण और बेदखली के ये उपाय लाल-गलियारे को चौड़ा करनेवाले हैं। यदि अदालत भी इन आदिवासियों के साथ न्याय नहीं करती तो इनमें से कई उग्र चरमपंथ का रुख कर सकते थे। सर्वोच्च न्यायालय का यह एक ऐसा फैसला था, जिसे मिसाल मानकर केंद्र और राज्य सरकारें ऐसे उपाय कर सकती थीं, जो चरमपंथ को आगे बढ़ाने से रोकने वाले साबित होते। लेकिन तत्कालीन राजनीतिक और आर्थिक हित साधने की रणनीति के चलते ऐसा हो नहीं पा रहा है। राज्य सरकारें केवल इतना चाहती हैं कि उनका राज्य नक्सली हमले से बचा रहे। छत्तीसगढ़ इस नजरिए से और भी ज्यादा दलगत हित साधने वाला राज्य है।
2018 के विधानसभा चुनाव से पहले तक भाजपा के इन्हीं नक्सली क्षेत्रों से ज्यादा विधायक जीतकर आते रहे हैं। कांग्रेस नेता महेन्द्र कर्मा ने नक्सलियों के विरुद्ध सलवा जुडूम को 2005 में खड़ा किया था। सबसे पहले बीजापुर जिले के कुर्तु विकासखण्ड के आदिवासी ग्राम अंबेली के लोग नक्सलियों के खिलाफ खड़े हुए थे। नतीजतन नक्सलियों की महेन्द्र कर्मा से नाराजगी एक स्वाभाविक प्रक्रिया थी। लेकिन कांग्रेस के हरिप्रसाद समेत अन्य नेता इस समस्या का हल सैन्य शक्ति की बजाय बातचीत से ही खोजने की वकालत कर रहे थे। नंदकुमार पटेल, विद्याचरण शुक्ल और पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह भी इसी पक्ष के हिमायती रहे हैं। सलमा जुडूम को अस्तित्व में लाने का ही परिणाम था कि नक्सलियों ने घात लगाकर महेंद्र कर्मा, नंदकुमार पटेल और विद्याचरण शुक्ल समेत एक दर्जन कांग्रेसियों की हत्या कर दी थी। इस जघन्य हत्याकांड के बाद नक्सलियों ने घटनास्थल पर ही तांडव नृत्य करके जिस तरह से जश्न मनाया, उससे तो यही अर्थ निकलता है कि इन्हें समझा-बुझाकर मुख्यधारा में लाना नामुमकिन है। जाहिर है, इनसे न केवल सख्ती से निपटने की जरूरत है, बल्कि खुफिया एजेंसियों को भी सतर्क करने की जरूरत है। नक्सलियों के पास अब आधुनिक खतरनाक हथियार हैं। इनमें रॉकेट लांचर, इंसास, हैंडग्रेनेड, एके-56 एसएलआर और एके-47 जैसे घातक हथियार शामिल हैं। साथ ही आरडीएक्स जैसे विस्फोटक हैं। लैपटॉप, वॉकी-टॉकी, आईपॉड, स्मार्ट मोबाइल फोन जैसे संचार के संसाधन हैं। वे भलीभांति अंग्रेजी जानते हैं। तय है, ये हथियार न तो नक्सली बनाते हैं और न ही नक्सली क्षेत्रों में इनके कारखाने हैं। ये सभी हथियार नगरीय क्षेत्रों से पहुंचाए जा रहे हैं। हालांकि खबरें तो यहां तक हैं कि पाकिस्तान और चीन माओवाद को बढ़ावा देने की दृष्टि से हथियार पहुंचाने की पूरी एक श्रृंखला बनाए हुए हैं। चीन ने नेपाल को माओवाद का गढ़ ऐसे ही सुनियोजित षड्यंत्र रचकर, वहां के हिंदू राष्ट्र की अवधारणा को ध्वस्त किया। नेपाल के पशुपति से तिरुपति तक इसी तर्ज के माओवाद को आगे बढ़ाया जा रहा है। हमारी खुफिया एजेंसियां नगरों से चलने वाले हथियारों की सप्लाई चैन का भी पर्दाफाश करने में नाकाम रही हैं। यदि ये एजेंसियां इस चेन की ही नाकेबंदी करने में कामयाब हो जाती हैं तो एक हद तक नक्सली गतिविधियों पर लगाम लग सकती है।
इस जघन्य हत्याकांड के बाद अब जरूरी हो गया है कि इन क्षेत्रों में सेना का इस्तेमाल किया जाना चाहिए। जब किसी भी किस्म का चरमपंथ राष्ट्र-राज्य की परिकल्पना को चुनौती बन जाए तो जरूरी हो जाता है कि उसे खत्म करने के लिए कारगर उपाय किये जाएं। इस सिलसिले में केंद्र सरकार को इंदिरा गांधी और पीवी नरसिम्हा राव से सबक लेने की जरूरत है, जिन्होंने पंजाब और जम्मू-कश्मीर के उग्रवाद को खत्म करने के लिए सेना का साथ लिया। इसी तर्ज पर माओवाद से निपटने के लिए अब सेना की जरूरत अनुभव होने लगी है। माओवादियों के सशस्त्र एक-एक हजार के जत्थों से राज्य पुलिस व अर्धसैनिक बल मुकाबला नहीं कर सकते। धोखे से किए जाने वाले इन हमलों में एकाएक मोर्चा संभालना और भी मुश्किल होता है। माओवाद प्रभावित राज्य सरकारों को संकीर्ण मानसकिता से ऊपर उठकर खुद सेना तैनाती की मांग केंद्र से करने की जरूरत है। सशस्त्र 10 हजार माओवादी नक्सलियों से सेना ही निपट सकती है। कहना न होगा कि अब नक्सलियों पर निर्णायक प्रहार का समय आ गया है।
आम चुनाव के समय जब पुलिस व सैन्य बलों द्वारा सुरक्षा के इंतजाम गांव-गांव चौकस रहते हैं, तब नक्सलियों के सिलसिलेवार हमले केंद्र व राज्य सरकारों के लिए बड़ी चुनौती बनकर उभरे हैं। इससे पहले छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा में दो हमले हो चुके हैं, जिनमें एक भाजपा विधायक भीमा मंडावी को भी प्राण गंवाने पड़े। बताया जा रहा है कि पिछले साल 22 अप्रैल को गढ़चिरौली के ग्राम भामरगढ़ में सुरक्षाबलों ने सीधी मुठभेड़ में 40 नक्सलियों को मार गिराया था। इसी मुठभेड़ के विरोध में इस घटना को अंजाम दिया है। माओवादी इन इलाकों में जम्मू-कश्मीर के अलगाववादियों की तरह निर्वाचन प्रक्रिया को बाधित करने में जुटे हैं। इस लिहाज से अब इनके साथ भी आतंकियों की तरह निपटने की जरूरत है। जब आतंकियों के विरुद्ध सुरक्षाबलों की मुट्ठियां खोल दी गई हैं, तो फिर नक्सलियों के खिलाफ क्यों नहीं?
विषमता और शोषण से जुड़ी भूमण्डलीय आर्थिक उदारवादी नीतियों को जबरन अमल में लाने की प्रक्रिया ने देश में एक बड़े लाल गलियारे का निर्माण कर दिया है, जो पशुपति (नेपाल) से तिरुपति (आंध्रप्रदेश) तक जाता है। इन उग्र चरमपंथियों ने पहले पश्चिम बंगाल की मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के नेता-कार्यकर्ताओं को चुन-चुनकर मारा और अब ऐसी ही घटना को अंजाम छत्तीसगढ़ और महाराष्ट्र में कांग्रेस व भाजपा नेताओं को मौत के घाट उतारकर दे रहे हैं। जाहिर है, इन नक्सलियों का विश्वास किसी ऐसे मतवाद में नहीं रह गया है, जो बातचीत के जरिए समस्या को समाधान तक ले जाए। भारतीय राष्ट्र-राज्य की संवैधानिक व्यवस्था को यह गंभीर चुनौती है। इस घटना को केवल लोकतांत्रिक मूल्यों पर हमला कहकर दरकिनार नहीं कर सकते। जिन लोगों का भारतीय संविधान और कानून से विश्वास पहले ही उठ गया है, उनसे लोकतांत्रिक मूल्यों के सम्मान की उम्मीद व्यर्थ है। इनके पक्ष में अक्सर यह दलील देकर इनका बचाव किया जाता है कि ये नक्सली भटके हुए लोग हैं, जबकि ये नृशंस हत्यारे और निर्मम लुटेरों के रूप में बार-बार पेश आ रहे हैं। ये गरीबों के नाम पर वसूली करके आम आदमी, सैन्यबलों और पुलिस के साथ लगातार खूनी खेल खेल रहे हैं। नतीजतन बीते पांच सालों में 300 से भी ज्यादा जवान इनके निशाने पर आकर वीरगति को प्राप्त हो चुके हैं।
इस समस्या के हल के लिए क्षेत्रीय संकीर्णता से उबरकर केंद्रीयकृत राष्ट्रवादी दृष्टिकोण अपनाने की जरूरत है। पशुपति से लेकर जो वाम चरमपंथ तिरुपति तक पसरा है, उसने नेपाल, बिहार, झारखंड, ओडिशा, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र और आंध्रप्रदेश के एक ऐसे बड़े हिस्से को अपनी गिरफ्त में ले लिया है, जो कीमती जंगलों और खनिजों से भरे पड़े हैं। छत्तीसगढ़ के बैलाडीला में लौह अयस्क के उत्खनन से हुई यह शुरुआत ओडिशा की नियमगिरी पहाड़ियों में मौजूद बाक्साइट के खनन तक पहुंच गई है। यहां आदिवासियों की जमीन वेदांता समूह ने अवैध हथकंडे अपनाकर जिस तरीके से छीनी है, उसे सुप्रीम कोर्ट ने गैरकानूनी माना है। शोषण और बेदखली के ये उपाय लाल-गलियारे को चौड़ा करनेवाले हैं। यदि अदालत भी इन आदिवासियों के साथ न्याय नहीं करती तो इनमें से कई उग्र चरमपंथ का रुख कर सकते थे। सर्वोच्च न्यायालय का यह एक ऐसा फैसला था, जिसे मिसाल मानकर केंद्र और राज्य सरकारें ऐसे उपाय कर सकती थीं, जो चरमपंथ को आगे बढ़ाने से रोकने वाले साबित होते। लेकिन तत्कालीन राजनीतिक और आर्थिक हित साधने की रणनीति के चलते ऐसा हो नहीं पा रहा है। राज्य सरकारें केवल इतना चाहती हैं कि उनका राज्य नक्सली हमले से बचा रहे। छत्तीसगढ़ इस नजरिए से और भी ज्यादा दलगत हित साधने वाला राज्य है।
2018 के विधानसभा चुनाव से पहले तक भाजपा के इन्हीं नक्सली क्षेत्रों से ज्यादा विधायक जीतकर आते रहे हैं। कांग्रेस नेता महेन्द्र कर्मा ने नक्सलियों के विरुद्ध सलवा जुडूम को 2005 में खड़ा किया था। सबसे पहले बीजापुर जिले के कुर्तु विकासखण्ड के आदिवासी ग्राम अंबेली के लोग नक्सलियों के खिलाफ खड़े हुए थे। नतीजतन नक्सलियों की महेन्द्र कर्मा से नाराजगी एक स्वाभाविक प्रक्रिया थी। लेकिन कांग्रेस के हरिप्रसाद समेत अन्य नेता इस समस्या का हल सैन्य शक्ति की बजाय बातचीत से ही खोजने की वकालत कर रहे थे। नंदकुमार पटेल, विद्याचरण शुक्ल और पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह भी इसी पक्ष के हिमायती रहे हैं। सलमा जुडूम को अस्तित्व में लाने का ही परिणाम था कि नक्सलियों ने घात लगाकर महेंद्र कर्मा, नंदकुमार पटेल और विद्याचरण शुक्ल समेत एक दर्जन कांग्रेसियों की हत्या कर दी थी। इस जघन्य हत्याकांड के बाद नक्सलियों ने घटनास्थल पर ही तांडव नृत्य करके जिस तरह से जश्न मनाया, उससे तो यही अर्थ निकलता है कि इन्हें समझा-बुझाकर मुख्यधारा में लाना नामुमकिन है। जाहिर है, इनसे न केवल सख्ती से निपटने की जरूरत है, बल्कि खुफिया एजेंसियों को भी सतर्क करने की जरूरत है। नक्सलियों के पास अब आधुनिक खतरनाक हथियार हैं। इनमें रॉकेट लांचर, इंसास, हैंडग्रेनेड, एके-56 एसएलआर और एके-47 जैसे घातक हथियार शामिल हैं। साथ ही आरडीएक्स जैसे विस्फोटक हैं। लैपटॉप, वॉकी-टॉकी, आईपॉड, स्मार्ट मोबाइल फोन जैसे संचार के संसाधन हैं। वे भलीभांति अंग्रेजी जानते हैं। तय है, ये हथियार न तो नक्सली बनाते हैं और न ही नक्सली क्षेत्रों में इनके कारखाने हैं। ये सभी हथियार नगरीय क्षेत्रों से पहुंचाए जा रहे हैं। हालांकि खबरें तो यहां तक हैं कि पाकिस्तान और चीन माओवाद को बढ़ावा देने की दृष्टि से हथियार पहुंचाने की पूरी एक श्रृंखला बनाए हुए हैं। चीन ने नेपाल को माओवाद का गढ़ ऐसे ही सुनियोजित षड्यंत्र रचकर, वहां के हिंदू राष्ट्र की अवधारणा को ध्वस्त किया। नेपाल के पशुपति से तिरुपति तक इसी तर्ज के माओवाद को आगे बढ़ाया जा रहा है। हमारी खुफिया एजेंसियां नगरों से चलने वाले हथियारों की सप्लाई चैन का भी पर्दाफाश करने में नाकाम रही हैं। यदि ये एजेंसियां इस चेन की ही नाकेबंदी करने में कामयाब हो जाती हैं तो एक हद तक नक्सली गतिविधियों पर लगाम लग सकती है।
इस जघन्य हत्याकांड के बाद अब जरूरी हो गया है कि इन क्षेत्रों में सेना का इस्तेमाल किया जाना चाहिए। जब किसी भी किस्म का चरमपंथ राष्ट्र-राज्य की परिकल्पना को चुनौती बन जाए तो जरूरी हो जाता है कि उसे खत्म करने के लिए कारगर उपाय किये जाएं। इस सिलसिले में केंद्र सरकार को इंदिरा गांधी और पीवी नरसिम्हा राव से सबक लेने की जरूरत है, जिन्होंने पंजाब और जम्मू-कश्मीर के उग्रवाद को खत्म करने के लिए सेना का साथ लिया। इसी तर्ज पर माओवाद से निपटने के लिए अब सेना की जरूरत अनुभव होने लगी है। माओवादियों के सशस्त्र एक-एक हजार के जत्थों से राज्य पुलिस व अर्धसैनिक बल मुकाबला नहीं कर सकते। धोखे से किए जाने वाले इन हमलों में एकाएक मोर्चा संभालना और भी मुश्किल होता है। माओवाद प्रभावित राज्य सरकारों को संकीर्ण मानसकिता से ऊपर उठकर खुद सेना तैनाती की मांग केंद्र से करने की जरूरत है। सशस्त्र 10 हजार माओवादी नक्सलियों से सेना ही निपट सकती है। कहना न होगा कि अब नक्सलियों पर निर्णायक प्रहार का समय आ गया है।