जलियांवाला बाग कांड: बलिदान की स्वर्ण शताब्दी

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जलियांवाला बाग के सौ साल पूरे हो गए। ब्रिटेन की प्रधानमंत्री थेरेसा मे ने हाल ही में इस कांड की आलोचना की। इसे भारतीय इतिहास पर काला धब्बा बताया लेकिन इस कांड के लिए भारत से माफी नहीं मांगी। 13 अप्रैल 1919 को पंजाब के अमृतसर स्थित जलियांवाला बाग में बैसाखी का मेला लगा था। दूसरी तरफ ब्रितानिया हुकूमत का विरोध करने के लिए क्रांतिकारियों ने रॉयल एक्ट के विरोध में वहां जनसभा बुलाई थी। भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन को कुचलने के लिए ब्रिटिश जज सिडनी रॉलेट की अध्यक्षता में बने रॉलेट एक्ट जिसमें प्रेस पर प्रतिबंध और नेताओं की जब चाहे बिना कारण बताये गिरफ़्तारी जैसे कड़े क्रूर कानून थे। इस एक्ट का विरोध पूरे देश में हो रहा था। अंग्रेजों को यह बात रास नहीं आ रही थी। वैसे भी यह उनके अहंकार को चुनौती थी। उनकी सत्ता को चुनौती थी। जलियांवाला बाग में जब सभा चल रही थी उस समय जनरल डायर ने 90 सैनिकों के साथ बाग को चारों ओर से घेर लिया और निहत्थे लोगों पर चौतरफा गोलियां बरसानी आरंभ कर दी। शासकीय आंकड़े बताते हैं कि जनरल डायर के इस अप्रत्याशित हमले में 484 लोग मारे गये थे जिसमें 50 मुस्लिम थे। 41 नाबालिग बच्चों के साथ अनेक दुधमुंहे बच्चों ने भी शहादत दी थी। सैकड़ों लोग घायल हो गए थे। गैर सरकारी आंकड़े पर गौर करें तो हजार लोग शहीद हुए और दो हजार लोग घायल हुए थे। बाग के अंदर कुएं से उस समय दो सौ शव निकाले गये थे। कुछ दिनों बाद जब कुएं की सफाई हो रही थी तो कई नरकंकाल, नर मुंड मिले थे। कुल मिलाकर आजादी के आंदोलन का यह सबसे क्रूरतम नरसंहार था। उसकी भारत समेत विश्वभर में प्रतिक्रया हुई थी। श्रीमती एनी बेसेन्ट ने उसकी तुलना बेल्जियम में जर्मनों द्वारा किये गये अत्याचार से की तो रूसी निकोलाई तिखोनोवा ने 1905 में हुए पिट्सबर्ग हत्याकांड से किया। इस घटना से आहत गुरुदेव रवींद्र नाथ टैगोर ने सर की उपाधि लौटा दी थी। सर शंकरन ने उनकी कार्यकारणी से इस्तीफा दे दिया था। आगे चल यह कांड अंग्रेजी सत्ता के लिए काल बन गया। गरम दल के नौजवानों की आंखों में खून उतर आया। चंद्रशेखर आजाद, राजगुरु ,सुखदेव ,भगत सिंह जैसे हजारों युवाओं ने देशभर में मातृभूमि को मुक्त कराने का संकल्प दोहराया। 1857 की चिनगारी पुनः भड़क उठी। इस क्रूर जघन्य हत्याकांड को अपनी आंखों से देखने वाले 16 वर्षीय बालक क्रांतिकारी उधम सिंह कसम खाता है और 21 वर्ष बाद 13 मार्च 1940 को इस घटना के दोषी माइकल ओ डायर को लंदन में जाकर गोली मारकर संकल्प पूरा करता है। रॉलेट एक्ट क्रांतिकारियों के बीच खूब पढ़ी गयी। बाद में अंग्रेजी सत्ता ने इस पर प्रतिबन्ध लगाया। वर्षों बाद भी जब देश का युवा, नागरिक जब जलियांवाला बाग में जाता है तो उस मिट्टी से तिलक लगा कर देश की सुरक्षा का संकल्प लेता है। इस प्रेरणा भूमि से वन्देमातरम के नारे गूंजते हैं। दूसरी तरफ आज भी ‘भारत तेरे टुकड़े होंगे’ की आवाज लगाने वाली ताकतें देश में सक्रिय हैं। कश्मीर से लेकर छत्तीसगढ़ के सुदूर जंगलों में जवान से लेकर नेता, जनता सबकी शहादत हो रही है। तथाकथित मानवाधिकारवादी, कलमकार, बुद्धिजीवी, राष्ट्र विरोधी गतिविधियों को बौद्धिक, आर्थिक, न्यायिक सहयोग समर्थन विदेशी शह पर कर रहे हैं। आखिर अलगाववादी, आतंकवादी गतिविधियों को अंजाम देकर देश से लोकतंत्र खत्म कर, किस तरह के समाज की वे संकल्पना कर रहे हैं? भारत के टुकड़े क्यों करना चाहते हैं? आतंकवाद का समर्थन किस मानवता के पक्ष में है? आज अनेक प्रश्न हैं जिनका उत्तर राष्ट्रीय संकल्प ही होगा। लोकतंत्र ही सबके साथ ,सबके विकास की गारंटी है। जिसको मजबूत करना ही शहीदों के सपनों का भारत बनाना होगा, यही जलियांवाला बाग के शहीदों को श्रद्धाजंलि होगी।
इस देश को आजादी बड़ी मुश्किल से मिली थी। सवाल यह है कि हम उस आजादी का महत्व समझ भी पाए हैं? गुलामी के दिनों में हम पर अंग्रेजों का हमला होता था और आज हम पर हमारे अपने ही हमलावर हो रहे हैं। जब यह देश जलियांवाला कांड की स्वर्ण शताब्दी मना रहा है, संयोग से देश में लोकसभा के चुनाव भी हो रहे हैं। उस समय भी हमने अंग्रेजों और देश के बीच से देश को चुना था। इस चुनाव में भी हमें देश के व्यापक हितों को चुनने हैं। यह देश गुलाम ही इसलिए हुआ था कि इस देश में कुछ स्वार्थी लोगों का वर्चस्व हो गया था। आज एक बार पुनश्च उसी तरह के हालात हैं। ऐसे में हमें सोचना है कि हम देश को कहां ले जाना पसंद करेंगे। आतंकवाद की आग में, अलगाववाद की आग में, भाषा और प्रांत की लड़ाई में, जाति और धर्म की लड़ाई में देश का विकास अवरुद्ध हो रहा है। जलियांवाला बाग नरसंहार हमें निरंतर सोचने और देश के लिए कुछ नया करने की प्रेरणा देता है। काश, हम इस प्रेरणा को जीवन का आदर्श बना पाते।


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