जबरन नसबंदी के लिए कांग्रेस क्यों नहीं मांगती माफी

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गलती को स्वीकार करना बड़ी बात है और उससे भी बड़ी बात है कृत अपराध के लिए क्षमायाचना करना। भारत में कांग्रेस को जापान सरकार से सबक लेनी चाहिए । जापान में युजेनिक्स प्रोटेक्शन कानून के तहत 25 हजार लोगों की जबरन नसबंदी की गई थी। भले ही इस अपराध को स्वीकार करने में जापान सरकार को 23 साल लग गए लेकिन जब जागे तभी सवेरा। जापान सरकार को देर से ही सही, यह तो लगा कि उसके स्तर पर अपने देश के नागरिकों के साथ ज्यादती हुई है और इसके लिए उसे माफी मांगनी चाहिए और इस निमित्त उसने न केवल क्षमायाचना की बल्कि संसद में हर पीड़ित को 28,600 डॉलर बतौर मुआवजा देने संबंधी विधेयक भी पारित किया। मुआवजे का मौखिक वादा नहीं किया। इस निमित्त एक कानून बना दिया जिससे कि पीड़ितों के घावों पर मरहम लगाने में कोई हीलाहवाली न हो। युजेनिक्स प्रोटेक्शन कानून जापान में 1996 में बना था। जापान सरकार ने इस कानून के तहत अक्षम लोगों की नसबंदी करने की ही अनुमति दे रखी थी। देखा जाए तो कानून गलत नहीं था। जापान चाहता था कि शारीरिक रूप से अक्षम और रुग्ण लोग सहवास कर देश में बीमार संतति उत्पन्न न करें। लेकिन अधिकारियों ने सरकार की नजर में अपनी अहमियत बढ़ाने के लिए 25 हजार लोगों की जबरन नसबंदी करवा दी थी जिसका कोई औचित्य नहीं था। नसबंदी तो अपने दौर में हिटलर ने भी करवाई थी लेकिन उसके द्वारा करवाई गई नसबंदी का आंकड़ा चार लाख से ऊपर नहीं जा सका, मगर भारत की तत्कालीन इंदिरा गांधी सरकार तो इस मामले में हिटलर से भी 15 गुणा आगे बढ़ गई। आपातकाल के दौरान उसने तकरीबन 62 लाख लोगों के जबरन ऑपरेशन करवा दिए। उनकी अवस्था का भी विचार नहीं किया। बुजुर्ग और बीमार का भी विचार नहीं किया। बच्चों और किशोरों का भी विचार नहीं किया। जो संन्यासी हो चुके थे, योगी और फकीर हो चुके थे उन्हें भी नहीं छोड़ा। कांग्रेस के सिर पर बस एक ही जुनून था कि येन-केन प्रकारेण नसबंदी का आंकड़ा बढ़ जाए जिससे कि वह अमेरिका समेत दुनिया के अन्य देशों को खुश कर सके। दरअसल अमेरिका समेत अन्य कुछ देशों की दलील थी कि अगर भारत में जनसंख्या पर नियंत्रण के प्रभावी प्रयास नहीं हुए तो सभी के लिए रोटी का जुगाड़ कर पाना उसके लिए संभव नहीं है। उत्पादन चाहे वह जितना कर ले। जो राहुल गांधी आज देश से गरीबी मिटाने की बात कर रहे हैं, उन्हीं की दादी भारत को दो जून की रोटी की व्यवस्था को लेकर इतनी परेशान थी कि उन्होंने 62 लाख लोगों की संतानोत्पत्ति की भावना का ही गला घोंट दिया था। दरअसल विश्व बैंक, स्वीडिश इंटरनेशनल डेवलपमेंट अथॉरिटी और संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष से भारत सरकार को उस समय अरबों डॉलर का कर्ज मिला था। इसे देखते हुए इंदिरा सरकार ने सत्तर के दशक में नसबंदी अभियान की शुरुआत की थी। उन्होंने ‘हम दो -हमारे दो’ का नारा दिया था। दूरदृष्टि पक्का इरादा जैसी बात कही थी। नसबंदी तब सरकार जबरन करा रही थी और आज लोग स्वेच्छा से करा रहे हैं। अगर जनमानस को विश्वास में लिया गया होता। उन्हें परिवार नियोजन के फायदे बताए गए होते तो लोग सरकार की इस मुहिम में शामिल होते, लेकिन कांग्रेस मुस्लिम समाज को तो नसबंदी अभियान से छूट देना चाहती थी, क्योंकि मुस्लिम धर्मगुरुओं ने स्पष्ट कर दिया था कि उनके धम्रग्रंथ उन्हें नसबंदी की इजाजत नहीं देते। उस समय भी मुस्लिम कांग्रेस के बड़े वोट बैंक थे और हिंदू समाज कांग्रेस की नीतियों का तो विरोध करता ही था। मुसलमानों की रीति-नीति की भी आलोचना करता था। इसलिए मुस्लिम समाज को खुश करने के लिए इंदिरा गांधी ने हिंदुओं पर जबरन बड़ा नसबंदी अभियान थोप दिया। उनके पुत्र संजय गांधी के नेतृत्व में पूरी यूथ कांग्रेस इसी अभियान में जुट गई। आपातकाल में जनता के अधिकार इंदिरा गांधी पहले ही छीन चुकी थीं। नसबंदी अभियान के तहत उनके संतानोत्पत्ति के अधिकार भी छीनने की उसने भरसक कोशिश की। नसंबदी से घर-घर में दशहत फैल गई। कब कहां किसकी नसबंदी हो जाए, कहा नहीं जा सकता था। अगर यह कहें कि आपातकाल का सबसे दमनकारी अभियान नसबंदी थी तो कदाचित गलत नहीं होगा। 25 जून 1975 भारतीय लोकतंत्र का काला दिन कहा जाता है क्योंकि इसी दिन इंदिरा गांधी ने इस देश में आपातकाल लागू किया था। जनता के सभी नागरिक अधिकार छीन लिए थे। आपातकाल ने देश के राजनीतिक दलों से लेकर पूरी व्यवस्था को बुरी तरह प्रभावित किया लेकिन उस वक्त लिए गए नसबंदी जैसे सख्त फैसले ने इसे राजनीतिक गलियारों से इतर आमजन के निजी जीवन तक पहुंचा दिया। नसबंदी का फैसला इंदिरा सरकार ने जरूर लिया था लेकिन इसे लागू कराने का जिम्मा उनके छोटे बेटे संजय गांधी को दिया गया। संजय गांधी ने इस मौके का लांच पैड की तरह इस्तेमाल किया। आजादी के बाद जनसंख्या विस्फोट से निपटना इंदिरा सरकार के लिए एक बड़ी चुनौती थी। नसबंदी के फैसले के पीछे संजय गांधी की महत्वाकांक्षा भी थी, क्योंकि उन्हें खुद को कम वक्त में साबित भी करना था। पौधरोपण से लेकर शिक्षा और स्वास्थ्य से जुड़े कई अभियान भी देश में पहले से चल रहे थे लेकिन ऐसे अभियानों से संजय गांधी को किसी त्वरित परिणाम की उम्मीद नहीं थी। घरों में घुसकर, बसों और ट्रेनों से उतारकर और लोभ-लालच देकर लोगों की नसबंदी की गई। एक साल के भीतर देशभर में 60 लाख से ज्यादा लोगों की नसबंदी कर दी गई। इनमें 16 साल के किशोर से लेकर 70 साल के बुजुर्ग तक शामिल थे। गलत ऑपरेशन और इलाज में लापरवाही की वजह से हजारों लोगों को अपनी जान तक गंवानी पड़ी। सभी सरकारी महकमों को साफ आदेश था कि नसंबदी के लिए तय लक्ष्य को वह वक्त पर पूरा करें, नहीं तो तनख्वाह रोककर उनके खिलाफ कार्रवाई की जाएगी। खुद नसबंदी कराओ या पांच नसबंदी कराओ का कांग्रेसी फरमान अधिकारियों और कर्मचारियों के गले की हड्डी बन गया था। इस काम की रिपोर्ट सीधे मुख्यमंत्री दफ्तर को भेजने तक के निर्देश दिए गए थे। साथ ही अभियान से जुड़ी हर बड़ी अपडेट पर संजय गांधी खुद नजरें गड़ाए हुए थे। ऐसी सख्ती से लेट-लतीफ कही जाने वाली नौकरशाही के होश उड़ गए और सभी को अपनी नौकरी बचाने की पड़ी थी। इसमें सबसे अधिक निशाने पर गरीब आबादी रही। ऐसी भी खबरें सामने आई थीं, जिनमें पुलिस ने गांव को घेर लिया और पुरुषों को जबरन खींचकर उनकी नसबंदी की गई। इस अभियान को सलमान रश्दी के उपन्यास ‘मिडनाइट चिल्ड्रन’ में भी जगह मिली। सुना है कि जबरन नसबंदी के लिए हिटलर और उसके समर्थक नाजियों ने भी माफी नहीं मांगी थी। फिर इंदिरा गांधी, उनके वंशज या कांग्रेसी इसके लिए क्षमायाचना नहीं करते। अब जब जापान सरकार ने माफी मांग ली है तो क्या इस बात की अपेक्षा की जा सकती है कि कांग्रेस अपने पूर्वकृत भूलों के लिए देशवासियों से क्षमायाचना करेगी। जापान की तरह उन्हें मुआवजा देने की दिशा में सोचेगी।

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