चीफ जस्टिस का दफ्तर आरटीआई के दायरे में आएगा या नहीं, फैसला सुरक्षित

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नई दिल्ली, 04 अप्रैल (हि.स.) । चीफ जस्टिस के दफ्तर को सूचना के अधिकार कानून के दायरे में लाने के मसले पर सुप्रीम कोर्ट की संविधान बेंच ने सुनवाई पूरी कर ली है। कोर्ट ने फैसला सुरक्षित रख लिया है । आज याचिकाकर्ता की ओर से वकील प्रशांत भूषण ने कहा कि लोगों को जानने का हक है कि किसी जज की नियुक्ति किस आधार पर हुई। सुनवाई के दौरान कोर्ट ने कहा कि पारदर्शिता अहम है लेकिन संस्थान को नष्ट नहीं किया जा सकता।

प्रशांत भूषण ने दलीलें रखते हुए कहा कि सुप्रीम कोर्ट शुरु से ही पारदर्शिता का पक्षधर रहा है। उन्होंने राजनारायण और एसपी गुप्ता के केस का हवाला दिया। उन्होंने कहा कि जजों की नियुक्ति से संबंधित दस्तावेज का खुलासा नहीं करना जनहित में नहीं है। प्रशांत भूषण ने कहा कि लोगों को ये जानने का हक है कि किस उम्मीदवार की नियुक्ति पर विचार करते समय किस एजेंसी ने क्या कहा। उन्होंने कहा कि जब आरटीआई कानून नहीं था तब सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि चुनाव लड़ने वाले उम्मीदवारों को अपनी संपत्ति और आपराधिक रिकॉर्ड का ब्योरा सार्वजनिक करना होगा। कोर्ट ने ये संविधान की धारा 19(1)(ए) के आधार पर कहा। उन्होंने कहा कि आरटीआई कानून के ड्राफ्टिंग के समय इस बात पर काफी चर्चा हुई कि फाइल नोटिंग और पत्र व्यवहार आरटीआई में आएगा कि नहीं। उस समय नौकरशाही ने इसके दुरुपयोग की संभावना जताई लेकिन सभी दलीलें खारिज कर दी गईं। आरटीआई के तहत मिली छूट जनहित को ध्यान में रखकर की गई है। पत्र-व्यवहार का कुछ हिस्सा व्यक्तिगत हो सकता है और उस सूचना को रोका जा सकता है लेकिन पूरा पत्र-व्यवहार व्यक्तिगत सूचना नहीं हो सकती है। आप ये नहीं कह सकते हैं कि जजों की नियुक्ति से संबंधित सूचनाओं को सार्वजनिक करने से छूट मिल सकती है।

प्रशांत भूषण ने हाल के अंजलि भारद्वाज के फैसले का जिक्र किया, जिसमें सूचना आयुक्तों की नियुक्ति में पारदर्शिता का पालन करने का निर्देश दिया गया है। उन्होंने सीनियर वकीलों के निर्धारण की प्रक्रिया का हवाला दिया, जिसमें उम्मीदवारों के नाम सार्वजनिक किए जाते हैं। उन्होंने कहा कि हम एक लोकतंत्र का हिस्सा हैं, जिसमें जनता मालिक है। जनता को जजों की नियुक्ति के विषय में जानने का हक है। कुछ देशों में नियुक्ति प्रक्रिया में पूरी पारदर्शिता बरती जाती है, जैसे कि दक्षिण अफ्रीका में। कोर्ट इस बारे में सजग रहे कि इस कोर्ट ने पारदर्शिता पर कई फैसले दिए हैं लेकिन इस कोर्ट के बारे में बात हो तो सूचना नहीं दी जाती है। यहां तक कि फैसलों के लंबित होने के बारे में सूचना मांगी जाती है तो वो नहीं दी जाती है। ये दुर्भाग्यपूर्ण है कि उस कोर्ट से सूचनाएं नहीं मिल रही हैं, जिसने पारदर्शिता को लेकर काफी दूरदर्शी फैसले किए हैं।

प्रशांत भूषण ने कहा कि जजों संपत्ति के बारे में आरटीआई याचिकाकर्ता ने संपत्ति के खुलासे को लेकर कोई सूचना नहीं मांगी। उसने केवल ये पूछा कि उन जजों के नाम बताए जाएं कि किन जजों ने अपनी संपत्ति की जानकारी चीफ जस्टिस को दी है और किन जजों ने नहीं दी है। केंद्रीय सूचना आयुक्त ने याचिकाकर्ता के पक्ष में फैसला दिया। दिल्ली हाईकोर्ट ने भी केंद्रीय सूचना आयुक्त के फैसले पर मुहर लगाई लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने इसके खिलाफ याचिका दायर की। उन्होंने कहा कि सुप्रीम कोर्ट ने बाद में फैसला किया कि स्वेच्छा से जो जज अपनी संपत्ति का खुलासा करना चाहते हैं उनका विवरण वेबसाइट पर डाला जाए। आज की तारीख में केवल 7 जजों की संपत्ति का विवरण सुप्रीम कोर्ट की वेबसाइट पर मौजूद है। उन्होंने राजनारायण के फैसले को उद्धृत करते हुए कहा कि इस देश के लोगों को हर वो सूचना जानने का हक है जो सार्वजनिक लोगों की ओर से सार्वजनिक तरीके से किया जाए।

चीफ जस्टिस ने कहा कि अटार्नी जनरल के मुताबिक सूचना का पूर्ण रुप से खुलासा होना न्यायपालिका के लिए नुकसानदेह साबित होगा। चीफ जस्टिस ने कहा कि हमने ये पाया है कि कई अच्छे उम्मीदवार जज नहीं बनना चाहते हैं, क्योंकि उन्हें लगता है कि इससे उनकी छवि खराब हो जाएगी। एसपी गुप्ता केस के समय प्राधिकार अलग था। अब जजों की नियुक्ति कॉलेजियम करती है। हम उम्मीदवारों से बात करते हैं और दूसरे स्रोतों से सूचनाओं की तहकीकात करते हैं। तब प्रशांत भूषण ने कहा कि इसमें कोई शक नहीं है कि चीफ जस्टिस और कॉलेजियम के दूसरे सदस्य अच्छे जजों की नियुक्ति कर रहे हैं लेकिन इसका मतलब ये नहीं है कि सूचना नहीं दी जा सकती है।

जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ ने कहा कि जजों की नियुक्ति को लेकर सार्वजनिक हित होना चाहिए। अगर कोई जज खुद ट्रांसफर चाहता है क्योंकि उसे सीजोफ्रेनिया नामक बीमारी है तो ये सूचना सार्वजनिक नहीं की जानी चाहिए। इस पर प्रशांत भूषण ने हामी भरी। भूषण ने कहा कि आरटीआई की धारा 10 के मुताबिक वैसे फाइल नोटिंग या पत्र-व्यवहार जो व्यक्तिगत हों वे सार्वजनिक नहीं की जा सकती हैं। तब चीफ जस्टिस ने कहा कि हमें संतुलित काम करना होगा।

चीफ जस्टिस ने कहा कि एक डिस्ट्रिक्ट जज की हाईकोर्ट में नियुक्ति होनी थी लेकिन उसका कार्यकाल नहीं बढ़ाया गया। उसने धारा 32 के तहत केस दायर किया। तब हमने कॉलेजियम के रिकॉर्ड मंगाकर उन्हें दिखाया और उन्होंने केस वापस ले लिया। आप अनुमान कीजिए कि अगर उस जज के बारे में कॉलेजियम का कारण सार्वजनिक किया जाता तो उन पर क्या बीतती। प्रशांत भूषण ने कहा कि न्यायपालिका की स्वतंत्रता का मतलब कार्यपालिका और विधायिका से स्वतंत्रता है न कि लोगों से स्वतंत्रता। संपत्ति और जवाबदेही व्यक्तिगत सूचना है लेकिन अगर लोकसेवक की ओर से खुलासा करना जनहित में है।

पिछले 3 मार्च को सुनवाई के दौरान अटार्नी जनरल केके वेणुगोपाल ने कहा था कि जजों की नियुक्ति पर कॉलेजियम जिन तथ्यों पर विचार करती है, उनकी सूचना सार्वजनिक न हो। उन्होंने कहा था कि जजों की संपत्ति का ब्योरा सार्वजनिक होना चाहिए। सुनवाई के दौरान अटार्नी जनरल ने कहा कि एसपी गुप्ता के केस का फैसला आदर्शवादी था। एसपी गुप्ता के केस पर फैसला 1981 में सुनाया गया था और उस समय आरटीआई का कानून नहीं था। इसलिए उस केस के आधार पर कोई फैसला नहीं किया जा सकता है।

अटार्नी जनरल ने कहा था कि न्यायपालिका की स्वतंत्रता को ध्यान में रखते हुए इस एक्ट से बाहर भी जो चलन में रहा है, उसका ख्याल रखा जाना चाहिए। उन्होंने कहा था कि जजों की नियुक्ति से जुड़ी सूचना को अलग वर्ग में रखा जाना चाहिए और उसे गोपनीय रखा जाना चाहिए ताकि क़ॉलेजियम के काम करने की स्वतंत्रता बरकरार रहे। किसी जज को नियुक्त करने या नहीं करने के बारे में फाइल नोटिंग्स का खुलासा करना जनहित में नहीं है। किसी जज की नियुक्ति व्यक्तिगत चरित्र की है, इसलिए उसकी सूचना के खुलासे पर आरटीआई की धारा 8(आई)(जे) के तहत छूट मिलनी चाहिए।


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