चीन, कश्मीर पर नेहरु की मूर्खतापूर्ण चूक से त्रस्त भारत
जैश-ए-मोहम्मद के सरगना मसूद अजहर को ‘वैश्विक आतंकी’ घोषित होने से बचाने के लिए चीन ने उस वीटो का इस्तेमाल किया जो उसे भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु की जबर्दस्त पैरवी की बदौलत प्राप्त हुआ था। कांग्रेस के सांसद शशि थरूर ने अपनी पुस्तक ‘ नेहरु-दि इनवेंशन आफ इंडिया’ में लिखा है कि ‘नेहरु ने (1950 के दशक में) अमेरिका के भारत को संयुक्त राष्ट्र संघ का स्थायी सदस्य बनवाने की पेशकश को ठुकरा दिया था। तब नेहरुजी ने कहा कि भारत की जगह चीन को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में ले लिया जाए। तब तक ताइवान संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद का सदस्य था।’ नेहरुजी का अमेरिकी पेशकश को अस्वीकार करने से सिद्ध होता है कि वे देश के सामरिक हितों को लेकर कितने लापरवाह थे। क्या उन्होंने इतना बड़ा फैसला लेने से किसी बड़े कांग्रेसी नेता से पूछा था या पहले संसद को जानकारी दी थी?
अब चीन ने जैश ए मोहम्मद को जीवदान दिया तो जाहिर है कि नेहरुजी के उस फैसले की चौतरफा आलोचना होने लगी। इसके साथ ही अचानक से उन्हें बचाने के लिए पिलपिले तर्क भी सामने आने लगे। तथ्यों के साथ खुलेआम खिलवाड़ होने लगी, पर सत्य को आप न तो झुठला सकते हैं और न ही दबा सकते हैं। सवाल यह है कि हम कब तक अपने किसी नायक का ईमानदारी से मूल्यांकन करने से बचते रहेंगे। पंडित जवाहर लाल नेहरु के दौर में ही चीन ने 1962 में भारत पर आक्रमण किया। भारत को युद्ध में भारी पराजय मिली। उस युद्ध के चलते चीन ने हमारे अक्सईचिन पर अपना कब्जा जमा लिया। ये हमारे कश्मीर घाटी जितना बड़ा क्षेत्र ही है।
चूंकि नेहरुजी किसी की सलाह को मानना अपनी शान के खिलाफ मानते थे। इसलिए देश को उनके अहंकारपूर्ण मनमाने फैसलों से नुकसान ही नुकसान हुआ। उन्हें बार-बार उपप्रधानमंत्री सरदार पटेल चीन मसले पर सलाह देते थे, पर मजाल है कि नेहरुजी ने उन्हें कभी गंभीरता से लिया हो। जब नेहरु ने मौखिक सलाह नहीं मानी तब हारकर पटेल ने 1950 में पंडित नेहरू को लिखे एक पत्र में चीन तथा उसकी तिब्ब्त की नीति से सावधान रहने को कहा था। अपने पत्र में पटेल ने चीन को ‘भावी शत्रु’ तक कह दिया था। लेकिन नेहरु को लगता था कि कूटनीति में उनका कोई सानी नहीं है। वे तो अपने को तीसरी दुनिया का नेता बनाने में व्यस्त थे, गुट निरपेक्ष आंदोलन के जरिए। हालांकि वे इसमें कभी सफल नहीं हुए।
नेहरुजी की कश्मीर नीति पर भी नए सिरे से विचार करने की आवश्यकता है। आज कश्मीर जिस स्थिति में पहुंच गया है, उसके लिए उन्हें कभी भी दोषमुक्त नहीं किया जा सकता। जरा इतिहास के पन्नों को खंगाल लेते हैं। पाकिस्तानी सेना ने 22 अक्टूबर, 1947 को कश्मीर पर हमला बोला। उस हमले से कश्मीर में तबाही मच गई। उधर, नेहरुजी किसी चमत्कार की उम्मीद करते रहे कि सब कुछ शांत हो जाएगा। उस समय हमारी सेना के पास गोला-बारूद नहीं थे। आरएसएस के स्वयसेवकों ने जान की बाजी लगाकर कबाइलियों को रोका। कई स्वयंसेवक मारे भी गए। अंत में भारतीय सेना को 27 अक्टूबर, 1947 को हवाई जहाज से श्रीनगर उतारा गया। भारतीय सेना के शौर्य के आगे कबाइलियों ने घुटने टेक दिए। 7 नवम्बर, 1947 को बारामूला को कबाइलियों से खाली करा लिया गया था, परन्तु तभी अचानक और बिना किसी कारण नेहरुजी ने शेख अब्दुल्ला की गुपचुप सलाह पर युद्ध विराम कर दिया। अगर नेहरु ने वह गलती न की होती तो आज सारा कश्मीर भारत का अंग होता। आज मुजफ्फराबाद, मीरपुर, गिलगित आदि पाकिस्तान में न होते। तब मसूद अजहर जैसे गुंडे पैदा ही नहीं होते। नेहरुजी इतने पर ही नहीं रूके। वे कश्मीर मसले को बिना किसी से पूछे स्वयं ही संयुक्त राष्ट्र में ले गए। बस तभी से कश्मीर का मसला हल ही नहीं हो रहा है। यह तो ‘आ बैल मुझे मार’ वाली कहानी चरितार्थ हुई। अब पाकिस्तान बार-बार कहता है कि कश्मीर विवाद को भारत ही इस संयुक्त राष्ट्र के मंच पर लेकर गया था।
अब संविधान में धारा 370 की ही बात कर लीजिए। बाबा साहेब अम्बेडकर की सलाह की अनदेखी करते हुए नेहरुजी ने भारतीय संविधान में धारा 370 को जुड़वा दिया था। यह भी उन्होंने शेख अब्दुल्ला की सलाह पर ही किया था। इसमें कश्मीर के लिए अलग संविधान को स्वीकृति दी गई जिसमें भारत का कोई भी कानून यहां की विधानसभा द्वारा पारित होने तक लागू नहीं होगा। यानी उन्होंने देश में दो संविधान का रास्ता बनाया। उन्हीं बाबा साहेब ने जब हिन्दू कोड बिल के बिन्दु पर नेहरुजी की कैबिनेट से 1951 में इस्तीफा दिया तो नेहरुजी ने उनसे इस्तीफा वापस लेने के लिए एक बार भी नहीं कहा। क्या उन्हें बाबा साहेब के त्यागपत्र को खारिज नहीं करना चाहिए था? एक बार नेहरुजी की कैबिनेट से बाहर होने के बाद बाबा साहेब नेपथ्य में चले गए थे। नेहरुजी के रुख के कारण देश को बाबा साहेब जैसी महान शख्सियत के जीवन के अंतिम पांच साल नहीं मिले। इस दौरान वे राजधानी के सिविल लाइंस इलाके में एकाकी जीवन व्यतीत करते रहे।
दरअसल, नेहरुजी कांग्रेस के अपने कुछ साथियों और समकालीनों से भयंकर रूप से असुरक्षित महसूस करते थे। उनमें डा. राजेन्द्र प्रसाद भी थे। वे राजेन्द्र बाबू को बार-बार अपमानित करते थे। हद तो तब हो गई जब दो बार राष्ट्रपति पद पर रहने के बाद डा. राजेन्द्र प्रसाद पटना जाकर रहने लगे तो नेहरुजी ने उन्हें वहां पर एक सरकारी आवास तक आवंटित नहीं करवाया। इसके चलते राजेन्द्र बाबू सदाकत आश्रम के एक सीलन भरे कमरे में रहते रहे। दमे के मरीज राजेंद्र बाबू के पास से कफ निकालने वाली मशीन तक मंगवा ली गई। वहां पर राजेन्द्र बाबू की 28 फरवरी, 1963 को मौत हो गई। यही नहीं, नेहरुजी ने डा. राजेन्द्र प्रसाद की अंत्येष्टि में जाने की भी जरूरत नहीं समझी। उस दिन वे एक मामूली से कार्यक्रम में जयपुर चले गए।
नेहरु ने राजेन्द्र बाबू के उतराधिकारी डॉ. एस. राधाकृष्णन को भी पटना न जाने की सलाह दे दी। लेकिन, डॉ. राधाकृष्णन ने नेहरू के परामर्श को नहीं माना और वे राजेन्द्र बाबू के अंतिम संस्कार में भाग लेने पटना पहुंचे। अब आप नेहरुजी की क्षुद्र राजनीति की शख्सियत को समझ सकते हैं।