ऋषि बोधोत्सव पर किया साम्प्रदायिक पाखंडों से बचने का आह्वान

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जयपुर, 2 मार्च (हि.स.)। किशोरावस्था में ही महर्षि दयानंद सरस्वती ने अपनी उपासना विधि से मूर्तिपूजा को अलग कर दिया था । वे 14 वर्ष की आयु में ही संत कबीर की भाँति मंदिर, मस्जिद व चर्च में बनी प्रतिमा और मज़ार के चमत्कारों को पाखंड मानने लगे थे तथा कालांतर में वेदों के गहन अध्ययन के द्वारा वे निराकार एवं सर्वव्यापक ब्रह्म के सच्चे उपासक बन गए।

यह विचार अमेरिका की राजधानी वाशिंगटन डीसी स्थित भारतीय राजदूतावास में प्रथम सांस्कृतिक राजनयिक एवं भारतीय संस्कृति शिक्षक रहे डॉ. मोक्षराज ने जनता कॉलोनी स्थित आर्यसमाज में महर्षि दयानंद सरस्वती के बोधोत्सव कार्यक्रम में बतौर मुख्य अतिथि व्यक्त किए। उन्होंने कहा कि बहन व चाचा की असामयिक मृत्यु ने किशोरवय के मूलशंकर को महावीर स्वामी व गौतम बुद्ध की भाँति वीतराग बना दिया। महर्षि दयानंद सरस्वती को महाशिवरात्रि को ही आध्यात्मिक बोध प्राप्त हुआ था । डॉ. मोक्षराज ने कहा कि हमें साम्प्रदायिक पाखंडों से बचना चाहिए।

समारोह में आर्य प्रतिनिधि सभा राजस्थान के मंत्री जीववर्धन शास्त्री, डॉ. मुरारीलाल पारीक व स्वामी देवानंद सरस्वती ने भी महर्षि के जीवन से जुड़ी महत्वपूर्ण घटनाओं की जानकारी प्रदान की। संचालन ब्रह्मप्रकाश गुप्ता ने किया तथा पं. देवव्रत ने हवन कराया। समारोह में रमेश जिंदल, अरुण शर्मा, नरदेव आर्य, प्रकाश गुप्ता, राजीव दीक्षित, किशनचंद जैन, मधु गुप्ता, देवेंद्र त्यागी, डॉ. रमाशंकर शिरोमणि, रणजीत सिंह, आयूष आर्य, सुरेश आर्य, वेदप्रिय आर्य, भागीरथ, जगदीश आर्य, विष्णु आर्य, मुकेश चौधरी, ललित कुमार, सोमदेव आर्य एवं मोनू आदि ने भाग लिया।


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