आरके सिन्हा की कलम से… किसानों की अनदेखी नहीं कर सकता भारत !

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महाराष्ट्र में किसानों का आंदोलन शांतिपूर्ण तरीके से समाप्त हो गया। महाराष्ट्र सरकार ने अन्नदाताओं की अधिकांश मांगों को तुरंत मान भी लिया। इस राज्य में जो कुछ घटित हुआ वो सारे देश के किसानों और सभी राज्य सरकारों के लिए नजीर बन सकता है। लोकतंत्र में सभी को अपनी बात रखने और आंदोलन का अधिकार है। महाराष्ट्र के किसानों ने यही किया परन्तु, शांतिपूर्ण तरीके से। हालांकि राजधानी दिल्ली और देश के बाकी कई जगहों पर पूर्व में किसान अपने आंदोलनों के दौरान हिंसक भी होते रहे हैं। पिछले वर्ष दिल्ली के जंतर-मंतर पर तमिलनाडु के किसानों ने अपनी तरफ सरकार और मीडिया का ध्यान खींचने के लिए कई अजीबोगरीब हरकतें की थीं। ये मानव मुंड लेकर धरने पर बैठे थे। वे मानव मूत्र पीकर अपना विरोध जता रहे थे। वे मानव मल खाने की भी चेतावनी दे रहे थे। वे किसान नग्न प्रदर्शन से लेकर चूहे खाने और सांप को मुंह में रखने जैसे तरीके भी अपना रहे थे। उनकी मागें जायज हो सकती हैं, होंगी भी पर आंदोलन का तरीका कतई सही नहीं था। इसलिए वे बैरंग लौट भी गए। उन्हें दिल्ली की जनता से भी कोई विशेष सहयोग नहीं मिला क्योंकि उनके आंदोलन में नाटकीयता अधिक थी। लोगों ने फुर्सत के वक्त मनोरंजन भी किया। इसके विपरीत महाराष्ट्र के किसानों को मुंबई की जनता ने हाथों-हाथ लिया। उनका तहे दिल से स्वागत किया गया। उनके लिए स्थानीय जनता द्वारा जगह-जगह खान-पान से लेकर फर्स्ट एड तक की व्यवस्था की गई। दरअसल भारत में कोई भी सरकार, चाहे वह किसी भी दल या गठबंधन की क्यों न हो, किसान विरोधी नहीं हो सकती। इसका उदाहरण हमने मुंबई में देखा। हजारों किसान सड़कों पर आ गए और सरकार ने भी दो कदम आगे बढ़कर उनकी मांगों को मानने का साहस दिखाया। यही सद्भावना का प्रदर्शन सफल लोकतंत्र की बुनियाद है। सिर्फ कर्ज माफी नहीं अब देश का किसान सिर्फ कर्ज माफी की ही मांग नहीं कर रहा है। उसे अपने भविष्य की भी चिंता है। देश के कई भागों में अन्नदाता सड़कों पर उतर रहे हैं। सवाल यह है कि किसान आंदोलन के लिए क्यों मजबूर हो रहे हैं? वे आत्महत्या क्यों करना चाहते हैं? ये आग उठी कहां से? इसकी मोटे तौर पर बड़ी वजह यह है कि इन किसानों को उनकी फसल का लागत भी नहीं मिल रहा है। चाहे महाराष्ट्र हो या फिर मध्य प्रदेश या फिर उत्तर प्रदेश, सब की कहानी कमोबेश एक जैसी है। आज भी इस देश में 70 प्रतिशत से ऊपर की आबादी के आय का मुख्य स्रोत कृषि ही है। बाकी 30 प्रतिशत जनता का पेट भी ये 70 प्रतिशत किसान ही भरते हैं। इसके बावजूद हमारे किसान उपेक्षा के शिकार हैं। इनमें से ज्यादातर आर्थिक तंगी की चपेट में हैं। महाराष्ट्र सरकार ने जिस प्रकार से इनकी मांगों को स्वीकार किया, उससे यह उम्मीद तो बंधी ही है कि अब किसान धक्के खाते नहीं फिरेंगे। दिल –दहलाने वाले हालात किसान के यकीन मानिए कि ज्यादातर औसत जोत के अन्नदाता किसानों की माली हालत या औकात सरकारी दफ्तर के चपरासी जितनी भी नहीं है। क्या हमारे देश के अन्नदाता की ऐसी ही स्थिति होनी चाहिए? जवाब तो आप सब जानते ही हैं। सरकार के आंकड़ों पर ही गौर कर लें तो दयनीय स्थिति खुद-ब-खुद स्पष्ट होती है। खेतिहर परिवारों की आमदनी और खर्च का एक हिसाब नेशनल सैंपल सर्वे की रिपोर्ट में भी दर्ज है।2014 के दिसंबर महीने में प्रकाशित इस रिपोर्ट के मुताबिक देश के कुल नौ करोड़ किसान परिवारों में से तकरीबन सवा छह करोड़ किसान परिवारों के पास एक हेक्टेयर (ढाई एकड़) या इससे भी कम ही जोत लायक जमीन है। इन परिवारों का कुल मासिक खर्च उनके मासिक उपभोग खर्च से ज्यादा है। जैसे कि देश में एक हेक्टेयर तक की जोत वाले किसानों को परिवार के भरण पोषण के लिए खेती से महीने भर में कुल 2145रुपये तक की ही कमाई हो पाती है। खेतिहर मजदूरी से ऐसे परिवार को महीने में 2011 रुपये की ही औसत आमदनी होती है। पशुधन से 629 रुपये की और गैर-खेतिहर काम से ऐसा कोई परिवार महीने में लगभग 462 रुपये जुटा लेता है। खेती, मेहनत-मजदूरी और पशुधन से हुई इस पूरी कमाई को एक साथ जोड़ दें तो कुल रकम5247 रुपये की आती है। यानी बामुश्किल सभी स्रोतों से हासिल कुल 5247 रुपये की आमदनी सीमांत कृषक परिवारों की है, जबकि महीने का न्यूनतम खर्च 6020 रुपये से लेकर 7500 है। दूसरी तरफ, सरकारी दफ्तर में काम करने वाला सबसे अदना कर्मचारी भी महीने में 20 हजार रुपये से ऊपर की तनख्वाह पाता है। अब तो मजदूरों की न्यूनतम मजदूरी भी केन्द्रीय संस्थानों में सरकार ने 15000/- तय कर दी है मकान, बिजली,पानी, मेडिकल, फण्ड, पेंशन अलग से। लेकिन, किसान की दशा जस की बनी हुई है । कुछ समय पहले महाराष्ट्र के विदर्भ इलाके के कुछ किसानों से मुलाकात हुई थी। मैंने यवतमाल जिले के किसानों से उनका नाम पूछा। जवाब में एक किसान ने कहा कि “मेरा नाम आपको तब पता चलेगा जब मैं आत्महत्या कर लूंगा और सिर्फ मैं ही नहीं, यहां बैठे दूसरे भी।” मैं यह सुनते ही स्तब्ध रह गया। किसी तरह हिम्मत जुटाकर इसका कारण पूछा। उन लोगों ने कहा, “ हम सब ग्रैजुएट हैं। जब हमने पढ़ाई पूरी कर ली तो हमें नौकरियां नहीं मिली, इनमें से कईयों ने तो नौकरी पाने के लिए अपनी जमीन तक औने पौने दाम में बेच दी। तब हमने निर्णय लिया कि अपने गांव जाकर खेती-बारी करेंगे। हमारे पास जो भी जमीन थी, उस पर खेती बारी करने लगे। इतने से हमारा पेट नहीं भरता। हम सब करीब 30-32 की उम्र के हैं, हमारी शादी भी नहीं हो रही। कोई भी किसान से अपनी बेटी की शादी नहीं करना चाहता। तो हमारे जीवन में फिर बचा ही क्या है?ऐसे में हम जैसे युवा हारकर आत्महत्या नहीं करेंगे तो क्या करेंगे। ” ऐसी हालत मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, बिहार सहित बाकी राज्यों के किसानों की भी हो रही है। तब ना होती हरित क्रांति हालांकि ये भी आरोप बेबुनियाद ही हैं कि सरकारें किसानों के हित में कुछ भी नहीं करती। अगर ये बात होती तो भारत में हरित क्रांति नहीं हो पाती। सरकार कृषि शोध संस्थान और विश्वविद्लाय चला रही है। इनका मकसद किसानों की ही मदद करना है। बेशक किसान हमेशा से देश का आधार रहे हैं और सरकार इनोवेशन और कुछ ठोस उपायों के जरिए देश के इस आधार को मजबूत बनाने की कोशिश करती रही हैं। प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना के तहत यह सुनिश्चित करना है कि प्रत्येक खेत को किसी ना किसी तरह के सिंचाई के सुरक्षात्मक साधन उपलब्ध हों। किसानों को सिंचाई के आधुनिक तरीकों के बारे में शिक्षित किया जा रहा है ताकि पानी की ‘प्रत्येक बूंद के बदले अधिक पैदावार’मिले। इसी तरह से किसान समूहों को जैविक खेती के प्रति प्रोत्साहित करने के लिए परंपरागत कृषि विकास योजना की शुरुआत की गई। इसी क्रम में घरेलू उत्पादन और ऊर्जा दक्षता बढ़ाने के लिए नई यूरिया नीति की घोषणा की गई है । बेमौसम बारिश को देखते हुए एनडीए सरकार ने तेजी से कार्रवाई करते हुए कहा कि यदि 33 प्रतिशत या इससे अधिक फसल नष्ट हुई है तो किसान मुआवजा पा सकेंगे। इससे पहले किसानों को मुआवजा तभी मिलता था जबकि 50% या इससे अधिक नुकसान हुआ हो। यानी प्रयास तो हो रहे हैं। इनमें और गति लाने की आवश्यकता है। सबसे बड़ी बात यह है कि यदि हम बिचौलियों की दलाली और सूद के भार से ग्रस्त किसानों को उनके उत्पाद का सही मूल्य बाज़ार में दिलवा सकें, तो आधी समस्या का हल हो जायेगा। यह सही है कि एक हेक्टेयर जमीन से कोई भी किसान परिवार अपना पेट नहीं भर सकता । न बच्चों का विवाह कर सकता है, न ही उनकी पढाई। इलाज कराने की तो बात ही दूर है। किसान आज मेहनत कर रहा है, बैंकों की किश्त भरने में, उर्वरक और कीटनाशक खरीदने में। अत: किसानों की अर्थव्यवस्था सुधारने का एक ही उपाय है-पारंपरिक खेती पर वापस लौटें। देशी गयों को रखें। पशुधन पर आधारित कृषि हो। न ट्रैक्टर की किश्त भरनी पड़ेगी और न ही रासायनिक उर्वरक और कीटनाशक खरीदना होगा। कृषि की लागत कम होगी तभी किसान आत्मनिर्भर और खुशहाल हो सकेंगे। (लेखक राज्य सभा सदस्य एवं हिन्दुस्थान समाचार बहुभाषी संवाद सेवा के अध्यक्ष हैं)


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