अस्तित्व की रक्षा के लिए जूझ रहे वामदल

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इस बार के लोकसभा चुनावों में भाजपा, कांग्रेस और क्षेत्रीय दल सत्ता में आने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। उधर, भारत के वामदल अपना अस्तित्व बचाने की लड़ाई लड़ने को विवश हैं। इन दलों के पश्चिम बंगाल व त्रिपुरा जैसे पुराने गढ़ ध्वस्त हो चुके हैं। एकमात्र बचे गढ़ केरल में भाजपा के साथ-साथ कांग्रेस भी इन्हें अपदस्थ करने के लिए जोरदार टक्कर दे रही है।
1918 में सोवियत रूस में कथित जनक्रांति हुई जिसमें वहां की राजशाही की सरकार को उखाड़ फेंक तत्कालीन कम्युनिस्ट नेताओं ने अपनी सरकार बनाई थी। इसके बाद ये विश्व की नजरों में आये। कार्ल मार्क्स की वैचारिकी पढ़ने-सुनने में इतनी मोहक थी कि उस काल के कई पढ़े-लिखे लोग इस विचारधारा के पोषक बने। भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू तक इस विचारधारा से गहरे प्रभावित रहे। नेहरू पर वामपंथ के इस प्रभाव का ही परिणाम था कि देश को स्वाधीनता मिलने के बाद देश के विकास के लिए बनायी गयी योजनाओं में निजीकरण के स्थान पर राष्ट्रीयकरण, विकास की पंचवर्षीय योजनाओं आदि को जगह मिली। इंदिरा गांधी के काल तक तो सत्तादल पर इनका प्रभाव इतना था कि संविधान का संशोधन कर उसमें ‘समाजवाद’ व ‘पंथनिरपेक्ष’ जैसे शब्द रखे गये।
इसके बावजूद भारत के वामदल कुछेक राज्यों में अपनी सरकार बनाने से अधिक कुछ नहीं कर पाये। इसके पीछे कारण था इनकी वैचारिकता का भारतीय वैचारिकता से टकराव। 1962 के चीन से हुए युद्ध में तो सरकार के संदिग्धों की सूची में ये प्रथम अंकित नामों में थे। इस विचारधारा की दूसरी शाखा ‘माओवाद’ भारत में माओवादी, नक्सली, उग्रवादी आंदोलनों की जनक रही। पूर्वोत्तर का उग्रवाद हो या बिहार, छत्तीसगढ़, झारखंड, ओडिशा, आंध्रप्रदेश, महाराष्ट्र आदि का नक्सली आंदोलन, सारे के सारे आंदोलनों की कमान व वैचारिकता तथा आर्थिक श्रोत केवल वाम विचारधारा के समर्थक ही थे।
राष्ट्रीय राजनीति के परिदृश्य में वामदलों का स्वर्णकाल 2004 का लोकसभा चुनाव था जिसमें इन्हें 59 सीटें मिली थीं। उस समय त्रिपुरा, पश्चिम बंगाल और केरल में इनकी सरकारें थी। इनके समर्थन के बल पर चलनेवाली केन्द्र की तत्कालीन सरकार पर इनका दबाव इतना था कि इन्हीं के चलते देश में सूचना का अधिकार, खाद्य सुरक्षा कानून व मनरेगा जैसी योगजनाएं लागू की गयीं। लेकिन सिद्धांतों की बजाय सुविधा की सियासत करने के कारण 2009 के चुनावों में ये महज 20 सीटों पर सिमट कर रह गए। इससे भी बुरा हुआ 2014 के चुनावों में। इसमें इनके सांसदों का आंकड़ा महज 10 पर आ टिका। इस चुनाव में इनके दो सहयोगी- आरएसपी व फारवर्ड ब्लाक तो अपना खाता भी नहीं खोल पाये।
2014 के लोकसभा चुनावों में ‘राष्ट्रवाद’ के हाथों बुरी तरह मात खाए वामपंथियों ने अपनी इस हार का कारण ‘मोदी प्रभाव’ को मान पूरे 5 वर्ष मोदी सरकार के खिलाफ तमाम अभियान चलाए किन्तु मोदी सरकार व भाजपा की सजगता के चलते सारे के सारे अभियान ध्वस्त हुए। इन अभियानों में कतिपय लेखकों द्वारा पुरस्कारों की वापसी, एक वर्ग विशेष के सिने कलाकारों को भारत में रहने से लगनेवाला भय, जेएलएन में ‘भारत तेरे टुकड़े होंगे…’ जैसी नारेबाजी आदि अनेक ऐसे आंदोलन थे जिन्होंने इन्हीं की वैचारिकता से प्रभावित मीडिया के एक वर्ग की सुर्खियां तो खूब पायीं, किन्तु जनसाधारण पर अपेक्षित प्रभाव डालने में असफल रहे।
अब 2019 के लोकसभा चुनावों में अपने अस्तित्व को बचाने की चिंता में इनकी वैचारिकी व लुभावने नारों के प्रभाव में आकर देश के विपक्षी दलों ने मोदी सरकार को अपदस्थ करने के लिए कई राज्यों में गठबंधन किया। लेकिन गठबंधन के घटक दलों ने वामदलों को न उत्तरप्रदेश में जगह दी न बिहार, न बंगाल में। एकमात्र तमिलनाडु को छोड़ दें तो पूरे देश में इनके साथ कोई भी दल खड़ा नहीं दिख रहा। इनके गढ़ माने जानेवाले केरल में कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने पहुंचकर इनकी नींद खराब कर दी है। वहां भाजपा व स्थानीय दल तो पहले ही इनके विरोध का परचम लिए हुए हैं।
स्वाभाविक है कि देश-विदेश में अपनी वैचारिकी का पृष्ठपोषण करनेवाले तथा इसी के सहारे अपनी सामाजिक-राजनीतिक व आर्थिक रोटियां सेंक मौज उड़ानेवालों की एक अच्छी-खासी फौज के बावजूद जनसाधारण की उपेक्षाओं के चलते 2019 के चुनावों में देश के वामदलों के समक्ष अस्तित्व का संकट खड़ा हो गया है। देखना होगा कि 23 मई के चुनाव परिणामों से इनकी विदाई होगी या छिटपुट सीटें प्राप्त कर ये विदाई के लिए 2024 के चुनावों की प्रतीक्षा करेंगे।

 


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