अखिलेश यादव के आजमगढ़ से ताल ठोंकने के पीछे की रणनीति

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नई दिल्ली, 24 मार्च (हि.स.)। बसपा प्रमुख मायावती ने पहले ही ऐलान कर रखा था कि वह लोकसभा चुनाव नहीं लड़ेंगी लेकिन समाजवादी पार्टी के प्रमुख अखिलेश यादव ने रविवार को यह कहकर सबको चौंका दिया कि वह आजमगढ़ से चुनाव लड़ेंगे। यह सीट 2014 में उनके पिता मुलायम सिंह यादव ने जीती थी। अब मुलायम सिंह मैनपुरी से लड़ रहे हैं, ऐसे में अखिलेश ने यहां से चुनाव लड़ने का फैसला किया है।
पूर्व मुख्यमन्त्री अखिलेश की राजनीति की शुरुआत ही कन्नौज से सांसद बनकर हुई थी। उनके पिता ने जब कन्नौज लोकसभा सीट खाली की तो साल 2000 में हुए उपचुनाव में अखिलेश ने जीत दर्ज करके राजनीति में कदम रखा। 2004 के आम चुनाव में भी अखिलेश यादव ने कन्नौज सीट से चुनाव लड़ा और बसपा के ठाकुर राजेश को एकतरफा शिकस्त दी। 2009 में भी अखिलेश की जीत का सिलसिला नहीं रुका और उन्होंने कन्नौज सीट से ही बसपा के महेश चंद्र वर्मा को हराकर हैट्रिक बनाई। उन्होंने कन्नौज के साथ-साथ फिरोजाबाद सीट से भी जीत हासिल की लेकिन कन्नौज सीट बरकरार रखते हुए फिरोजाबाद सीट छोड़ दी। इसके बाद इस सीट पर हुए उपचुनाव में अखिलेश ने अपनी पत्नी डिम्पल को चुनाव मैदान में उतारा। डिम्पल के खिलाफ कांग्रेस से राजबब्बर मैदान में थे। राजबब्बर ने 3,12,728 वोट हथियाकर डिम्पल को 85,343 वोटों के अंतर से हरा दिया। डिम्पल की यह हार सैफई कुनबा आज तक नहीं भुला पाया है।
अब एक बार फिर अखिलेश यादव उस सीट (आजमगढ़) से चुनावी मैदान में उतरे हैं, जो उनके पिता मुलायम सिंह ने छोड़ी है। राजनीतिक प्रेक्षकों का मानना है कि अखिलेश का यह फैसला पूर्वी उत्तर प्रदेश में सपा-बसपा गठबंधन के समर्थन में कार्यकर्ताओं के साथ-साथ यादव-मुस्लिम वोट के जनाधार को भी बरकरार रखने की कोशिश है। मुस्लिम, यादव और गैर-यादव ओबीसी के कुछ वर्गों का आजमगढ़ के आसपास के क्षेत्र में आधा दर्जन से अधिक सीटों पर प्रभाव है, जहां सीट-बंटवारे की व्यवस्था के तहत बसपा चुनाव लड़ रही है। इन निर्वाचन क्षेत्रों में गाजीपुर, जौनपुर, सलेमपुर, घोसी, लालगंज, अंबेडकरनगर, संत कबीर नगर, देवरिया और मच्छलीशहर आदि प्रमुख हैं। इन समुदायों और जातियों के मतदाताओं का गोरखपुर, कुशीनगर, आज़मगढ़, बलिया और कुछ अन्य क्षेत्रों में भी प्रभाव है जहां सपा अपने उम्मीदवारों को मैदान में उतार रही है।
आजमगढ़ में नेशनल इंश्योरेंस कम्पनी में बतौर प्रबंधक कार्यरत रामचंदर कहते हैं कि 2014 के चुनावों में सपा को इन समुदायों और जातियों के वोट मिले थे और इन सीटों पर पार्टी के उम्मीदवार दूसरे या तीसरे स्थान पर थे। सपा ने आजमगढ़ सीट जीती थी क्योंकि मुलायम सिंह यादव एक भारी-भरकम उम्मीदवार थे। हालांकि 2014 में इनमें से कई सीटों पर मुस्लिम वोटों का विभाजन भाजपा के पक्ष में हुआ था। इस बार गठबंधन का प्राथमिक एजेंडा भाजपा को हराने के लिए वोटों के विभाजन को रोकना है। प्रदेश में सीट-बंटवारे की व्यवस्था के अनुसार बसपा 38 सीटों पर, सपा 37 पर और राष्ट्रीय लोकदल (रालोद) तीन सीटों (पश्चिमी उप्र) पर चुनाव लड़ रही है।
इसके अलावा इस बात की भी आशंका है कि यादव और दलित मतदाता स्थानीय मुद्दों के कारण चुनाव में एक साथ नहीं आ सकते हैं। इस प्रकार आजमगढ़ से अखिलेश की उम्मीदवारी और निर्वाचन क्षेत्र में सपा-बसपा नेताओं के संयुक्त अभियान से यादव और दलित मतदाताओं को एकजुट करने की संभावना है। आजमगढ़ में लगभग चार लाख यादव, तीन लाख मुस्लिम और लगभग 2.75 लाख दलित मतदाता हैं।
रमाकांत यादव 2009 में आजमगढ़ से भाजपा के उम्मीदवार के रूप में जीते थे और 2004 में उन्हें बसपा के टिकट से चुना गया था। 1998 में भी बसपा वहां जीती थी। सपा 1996, 1999 और 2014 में जीती थी। 2014 में, मुलायम सिंह यादव ने भाजपा के रमाकांत यादव को मात्र 63,000 मतों के अंतर से हराया था। बसपा ने मुस्लिम उम्मीदवार शाह आलम उर्फ​गुड्डू जमाली को उतारा था, जो 2.66 लाख वोटों के साथ तीसरे स्थान पर रहे थे। भाजपा उम्मीदवार को यादव वोटों का एक हिस्सा मिला, जबकि बसपा उम्मीदवार ने मुस्लिम वोटों में कटौती की। सपा नेताओं का कहना है कि चूंकि अखिलेश यादव खुद इस बार बसपा के समर्थन से चुनाव लड़ रहे हैं, इसलिए मुस्लिम और यादव मतदाताओं में विभाजन की संभावना कम है। इसका आसपास के निर्वाचन क्षेत्रों में भी प्रभाव पड़ेगा।
आजमगढ़ के रहने वाले पत्रकार रघुनाथ प्रसाद का कहना है कि आजमगढ़ कभी सपा का गढ़ तो नहीं रहा लेकिन अखिलेश की उम्मीदवारी इस बार सपा-बसपा गठबंधन में मददगार साबित हो सकती है। मायावती ने 2004 में चुनाव लड़ा था और वह अकबरपुर से सांसद चुनी गई थीं। 2000, 2004 और 2009 में अखिलेश चुनाव लड़े और जीते। उन्होंने 2012 में लोकसभा से इस्तीफा दे दिया था। सपा के एक शीर्ष नेता का कहना है कि अगर अखिलेश यादव आजमगढ़ से जीत जाते हैं और 2022 के उप्र विधानसभा चुनाव के बाद राज्य की राजनीति को तरजीह देना चाहेंगे, तो उस समय वे संसद की सदस्यता से इस्तीफा दे सकते हैं। भाजपा और कांग्रेस ने आजमगढ़ से अभी अपना उम्मीदवार घोषित नहीं किया है। 


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